मैं राष्ट्रपति जी का बहुत आभारी हूं कि मुझे आप सबसे मिलने का अवसर मिला और राष्ट्रपति जी का ये इनीशिएटिव है, खास करके शिक्षा क्षेत्र के लिए और मैं देख रहा हूं कि लगातार वो इस विषय की चिंता भी कर रहे हैं, सबसे बात कर रहे हैं, और बहुत विगिरसली, इस काम के पीछे समय दे रहे हैं। उनका ये प्रयास, उनका मार्गदर्शन आने वाले दिनों के, और आने वाली पीढि़यों के लिए बहुत ही उपकारक होगा, ऐसा मेरा विश्वास है। हमारे देश में आईआईटी ने एक प्रतिष्ठा प्राप्त की है। जिस कालखंड में इसका प्रारंभ हुआ, जिन प्रारंभिक लोगों ने इसको जिस रूप में इस्टेबलिश किया, उसकी एक ग्लोबल छवि बनी हुई है, और आज विद्यार्थी जगत में भी, और पेरेंट में भी एक रहता है कि बेटा आईआईटी में एडमिशन ले और एक प्रकार से आप का ब्रांडिंग हो चुका है। अब कोई ब्रांडिंग के लिए आपको ज्यादा कुछ करना पड़े, ऐसी स्थिति नहीं है। लेकिन कभी-कभी संकट लगता है कि इस ब्रांड को बचायें कैसे? और इसके कुछ लिए कुछ पारामीटर्स तय करना चाहिए ताकि कहीं कोई इरोजन न हो और कोशिश यह हो कि ज्यादा अपग्रेडेशन होता रहे।
आपका मैंने एजेंडा आज देखा, जितने विषय अपने सोचे हैं, उतने अगर आप तय करते हैं, तो मुझे नहीं लगता है कि आने वाले दस साल तक आपको कोई नए विचार की जरूरत पड़ेगी या कोई कमियां महसूस होगी, काम के लिए। इतना सारा एजेंडा आपने रखा है आज। ग्लोबल रैंकिंग से लेकर के आईआईटियन के उपयोग तक की सारी इसकी रेंज है। एक, मुझे ऐसा लगता है कि एक तो हमें ग्लोबल रैंकिंग के लिए जरूर कुछ कर लेना चाहिए क्योंकि आइसोलेटेड वर्ल्ड में हम रह नहीं सकते। लेकिन एक बार हमारे अपने पारामीटर तय करके, देश की अंदरूनी व्यवस्था में हम कोई रैंकिंग की व्यवस्था विकसित कर सकते हैं क्या? वही हमको फिर आगे हमें ग्लोबल रैंकिंग की तरफ ले जाएगा। हमीं कुछ पारामीटर तय करें कि हमारी सारी आईआईटी उस पारामीटर से नीचे नहीं होंगी, और इससे ऊपर जाने का जो प्रयास करेगा, उसकी रैंकिंग की व्यवस्था होगी, रेगुलरली उसकी मानिटरिंग की व्यवस्था होगी। और उसकी जब प्रक्रिया बनती है तो एक कांस्टेंट इनबिल्ट सिस्टम डेवलप कर सकते हैं जो हमें इंप्रूवमेंट की तरफ ले जाता है।
दूसरा एक मुझे विचार आता है कि आईआईटियन्स होना, ये अपने आप में एक बड़े गर्व की बात है, रिटायरमेंट के बाद भी वह बड़ा गर्व करता है। ये अपने आप में एक बहुत बड़ी ताकत है आईआईटी की, उसका हर स्टूडेंट जीवन के किसी भी काल में आईआईटियन होने का गर्व करता है। ये बहुत ही बड़ी हमारी पूंजी है। आईआईटी अलूमनी का हम उपयोग क्या करते हैं ? डू यू हैव अवर ऑन रीजन? वो हमारे कैम्पस के लिए कोई आर्थिक मदद करें, कभी आयें, अपने जीवन में बहुत ऊंचाइयां प्राप्त किये हैं तो अपने स्टूडेंट्स को आकर अपने विचार शेयर करें, इंस्पायर करें।
मैं समझता हूं कि इससे थोड़ा आगे जाना चाहिए। हम अलूमनी पर फोकस करें और उनसे आग्रह करें कि साल में कितने वीक वो हमारे स्टूडेंट्स के लिए देंगे। उनके रुपये-डॉलर से ज्यादा उनका समय बहुत कीमती है। कोई जरूरी नहीं है कि वह जिस आईआईटी से निकला है, वहीं आए। इंटरचेंज होना चाहिए। एक्सपीरियेंस शेयर करने का अवसर मिलना चाहिए। यह अपने आपमें बेहतरीन अनुभव है, क्योंकि स्टूडेंट जीवन से बाहर जाने के बाद 20 साल , 25 साल में उन्होंने दुनिया देखी है। कुछ आईआईटियन्स होंगे जो अपने आप में कुछ करते होंगे, मेरे पास डाटा नहीं है। करते होंगे।
लेकिन, मैंने डाक्टरों को देखा है, दुनिया के भिन्न-भिन्न देशों में अपना स्थान बनाने के बाद वह डॉक्टर वहां इकट्ठे होकर एक टीम बनाते है। एक दूसरे के उपयोगी हों, ऐसी टीम बनाते है। टीम बना करके हिन्दुस्तान में आ करके रिमोटेस्ट से रिमोट एरिया में वह चले जाते हैं। 15 दिन के लिए कैंप लगाते हैं, मेडिकल चेकअप करते हैं, आपरेशन्स करते हैं, एक-आध दिन वह स्टूडेंट्स को वो सिखाने के लिए चले जाते हैं। कई ऐसे डाक्टरों की टीमें हैं जो ऐसी काम करती है। क्या आईआईटी अलुमनी की ऐसी टीमें बन सकती है?
दूसरा मुझे लगता है कि आईआईटी अलुमनी की एक मैपिंग करें, कि हमारे जो पुराने स्टूडेंट्स थे, उनकी आज किस विषय में किसकी क्या कैपिबिलिटी है। हम उनका ग्रुपिंग करें। मान लीजिए कि आज वो कुछ आईआईटी के स्टूडेंट्स दुनिया में कहीं न कहीं हेल्थ सेक्टर में काम कर रहे हैं। हेल्थ सेक्टर से जुड़े हुए आईआईटियन्स को बुलाकर के उनका नॉलेज जो है, उनके एक्सपर्टीज जो हैं, हिन्दुस्तान में हेल्थ सेक्टर में वो कैसे कंट्रीब्यूट कर सकते हैं। उनके आईडियाज, उनका समय, उनकी योजनाएं, एक बहुत बड़ी जगह है, जिनको हम जोड़ सकते हैं। उसका हमें प्रयास करना चाहिए।
मुझे लगता है, हर बच्चा आईआईटी में नहीं जा पाएगा और अकेले आईआईटी से देश बन नहीं पाएगा। इस बात को हमें स्वीकार करना होगा। आज आईआईटीज की वो ताकत नहीं है कि रातें-रात हम कैनवास बहुत बड़ा कर दें। फैकल्टी भी नहीं मिलती है। क्या आईआईटीज हमारी, अपने नजदीकी एक या दो कॉलेज को अडॉप्ट कर सकती है ? और वो अपना समय देना, स्टूडेंट्स भेजना, सीनियर स्टूडेंट्स भेजना, प्रोफेसर भेजना, उनको कभी यहां बुलाना, उनकी क्वालिटी इम्प्रूवमेंट में आईआईटी क्या भूमिका निभा सकता है? बड़ी सरलता से किया जा सकता है। अगर हमारे आईआईटियन अपने नजदीक के एक-दो इंजीनियरिंग कॉलेज को ले लें तो हो सकता है कि आज हम 15 होंगे तो हम 30-40 जगह पर अपना एक छोटा-छोटा इम्प्रूवेंट कर सकते हैं। हो सकता है कि वहां से बहुत स्टूडेंट्स होंगे जो किसी न किसी कारण से आईआईटी में एडमिशन नहीं ले पाये होंगे लेकिन उनमें टैलेंट की कमी नहीं होगी। अगर थोड़ा उनको अवसर मिल जाए तो हो सकता है कि वो स्टूडेंट भी देश के काम आ जाएं।
एक बात मैं कई दिनों से अनुभव करता हूं कि हमें ग्लोबल टैलेंट पुल पर सोचना चाहिए। मैं ग्लोबल टैलेंट की बात इसलिए करता हूं कि सब जगह फैकल्टी इज ए इश्यू । सब जगह फैकल्टी मिलती नहीं है। क्या दुनिया में जो लोग इन-इन विषयों को पढ़ाते थे, अब रिटायर हो गये, उन रिटायर लोगों का एक टैलेंट पूल बनाएं और उनके यहां जब विंटर हों, क्योंकि उनके लिए वेदर को झेलना बहुत मुश्किल होता है, उस समय हम उनको ऑफर करें कि आइए इंडिया में तीन महीने, चार महीने रहिए। वी विल गिव यू द बेस्ट वेदर और हमारे बच्चों को पढ़ाइये। वी बिल गिव यू द पैकेज। अगर हम इस प्रकार के एक पूरा टैलेंट पूल ग्लोबल बनाते हैं, और वहां जब विंटर हो, क्योंकि वह जिस एज ग्रूप में हैं, वहां की विंटर उन्हें परेशान करती है। इकोनोमिकली वो इतना साउंड नहीं हैं कि दस नौकर रख पायें घर में। वो सब उन्हें खुद से करना पड़ता है। उनको मिलते नहीं नौकर। वह अगर हिंदुस्तान आए तो हम अच्छी फेसिलिटी दें और मैं मानता हूं कि उसकी कैपिसिटी है हमारे स्ट्रडेंट को पढ़ाने की और एक फ्रेश एयर हमें मिलेगी। हम इस ग्लोबल टेलेंट पूल को बना कर के अगर हम लाते हैं। कहीं से शुरू करें, दो, पांच, सात से, आप देखिए धीरे-धीरे-धीरे और नॉट नेसेसिरली आईआईटी, और भी इंस्टीट्यूशंस हैं, जिसको इस प्रकार के लोगों की आवश्यकता है। इस पर हम सोच सकते हैं। मैं मानता हूं कि साइंस इज यूनिवर्सल बट टेक्नोलॉजी मस्ट बी लोकल। और यह काम आईआईटियन्स कर सकते हैं।
मैं एक बार नॉर्थ ईस्ट गया, अब नॉर्थ ईस्ट के लोग, कुएं से पानी निकालना है, तो पाइपलाइन का उपयोग नहीं करते हैं, बंबू का उपयोग करते हैं। मतलब उसने, जो भी वैज्ञानिक सोच बनी होगी, बंबू लाइफलोंग चलता है, उसको रिप्लेस भी नहीं करना पड़ता है। उसमें जंग भी नहीं लगती है, ऐसी बहुत सी चीजें हैं। हम आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों को उपलब्ध व्यवस्थाओं के साथ जोड़कर के, हमारे सामान्य जीवन में क्वालिटेटिव चेंज लाने के लिए, हम रिसर्च का काम, प्रोजेक्ट अपने यहां ले सकते हैं क्या ? हम ज्यादा कंट्रीब्यूट कर पाएंगे, ऐसा मुझे लगता है।
आईआईटी में जो बैच आते हैं, उसी वर्ष उसके लिए प्रोजेक्ट तय होने चाहिए। पांच प्रोजेक्ट लें, छह प्रोजेकट लें, 10 प्रोजेक्ट लें। 10-10 का ग्रुप बना दें, लाइक माइंडेड। जब वो एजुकेशन पूरा करे, तब तक एक ही प्रोजेक्ट पर काम करे। मैं मानता हूं, वे पढ़ते ही पढ़ते ही देश को काफी कुछ कंट्रीब्यूट कर के जाएंगे। मान लीजिए, किसी ने ले लिया रूरल टॉयलेट। रूरल टॉयलेट करना है तो क्या होगा, पानी नहीं है, क्या व्यवस्था करेंगे। किस प्रकार के डिजाइन होंगे, कैसे काम करेंगे, वो अपना पढ़ाई पूरी करते-करते इतने इनोवेशन के साथ वो देगा, कॉस्ट इफेक्टिव कैसे हो, यूटिलिटी वाइज अच्छा कैसे हो, मल्टीपल यूटीलिटी में उसका बेस्ट उपयोग कैसे होगा, सारी चीजें वह सोचना शुरू कर देगा। लेकिन हम प्रारंभ में ही तय करें कि 25 प्रोजेक्ट है, यू विल सलेक्ट, उसका एक एक ग्रुप बन जाए। वह अपना काम करते रहें। मैं समझता हूं कि हर बैच जाते समय देश को 5-10 चीजें देकर जाएंगे। जो बाद में, हो सकता है कि एक इनक्यूबेशन सेंटर की जरूरत पड़ेगी, हो सकता है कि एक कर्मशियल मॉडल की जरूरत पड़ेगी, यह तो एक्सटेंशन उसका आगे बढ़ सकता है। लेकिन यह परमानेंट कंट्रीब्यूशन होगा।
दूसरा ये होगा कि जो बाइ इन लार्ज आज कैरिअर ओरिएंटेड जीवन हो चुका है और कैरिअर का आधार भी डॉलर और पाउंड के तराजू पर तौला जाता है, सटिसफेक्शन लेवल के साथ जुड़ा हुआ नहीं है, ईट इज ट्रेजेडी ऑफ द कंट्री। लेकिन ये अगर करेगा, तो उसके मन में जॉब से भी बढ़कर, कैरिअर से भी बढ़कर, एक सटिसफेक्शन लेवल की एक रूचि बनेगी। उसका एक मॉल्डिंग होगा। हम उस पर यदि कुछ बल देते हैं तो करना चाहिए। मैंने 15 अगस्त को एक बात कही थी, जो प्राइवेट में काम करता है, तो कहते हैं, जॉब करता है, सरकार में जो काम करता है सर्विस करता है। यह जॉब कल्चर से सर्विस कल्चर से लाने का एनवायरमेंट हम आईआईटी में बनाएं। देश के लिए कुछ तो करना चाहिए। आज देखिए, डिफेंस सेक्टर, इतना अरबों-खरबों रुपये का हम इंपोर्ट करते हैं। मैं नहीं मानता है कि हमारे देश के पास ऐसे टेलेंट नहीं है, जो यह न बना पाएं। अश्रु गैस, बाहर से इमपोर्ट करते हैं, क्या हम नहीं बना सकते ? यू विल बी सरप्राइज, हमारी जो केरेंसी है, केरेंसी की इंक हम इंपोर्ट करते हैं और छापते है हम गांधी जी की तस्वीर।
यह चैलेंजेज क्यों न उठाएं हम, क्यों न उठाएं ? मैं मानता हूं कि एक-एक चीज को उठाकर के हम अब उसके लिए कोई एक व्यक्ति बनाएं, आप खुद सोच लें तो सैकड़ों चीज हो जाए, मान लीजिए डिफेंस में है, हो सकता है कि हम कम पड़ जाते हैं। बहुत बड़ी चीजें रिसर्च करके हम नहीं दे पाते है। हेल्थ सेक्टर में ले लीजिए, एक थर्मामीटर भी हम बाहर से इमपोर्ट करते है।
हेल्थ आज टोटली टेक्नोलॉजी आधारित हो गई है। अन्य का रोल 10 परसेंट है, तो 90 परसेंट रोल टेक्नोलॉजी का है। अगर टेक्नोलॉजी का रोल हेल्थ सेक्टर को रिप्लेस कर रही है तो वाट इज अवर इनिशिएटिव? मैं जब गुजरात में जब था, तो एक डॉक्टर को जानता था, जिन्होंने हर्ट के लिए स्टैंट बनाया था, इंजीनियरिंग के स्टूडेंट को लेकर के। मार्केट में स्टैंट की जो कीमत थी, उसके मुकाबले उसने जो स्टैंट बनाया था उसकी 10 परसेंट कीमत थी और फूल प्रूफ हो चुका है, 10 साल हो गए हैं, देयर इज नो कम्पलेंट एट ऑल। एक डॉक्टर ने अपने प्रोफेशन के साथ-साथ हर्ट के लिए स्टैंट बनाया – हि इज हार्ट सर्जन, लेकिन इस काम को किया, अपने आइडियाज से इंजीनियरिंग फील्ड के लोगों को बुलाया। एंड ही इज ट्राइंग हिज लेवल बेस्ट कि हमारा इंटरफेस हो सकता है क्या ? मेडिकल फैकल्टी एंड आईआईटियन्स और स्पेशियली इक्विपमेंट मैन्यूफैक्चरिंग में भारत को हेल्थ सेक्टर के लिए अपनी बनाई हुई चीजें क्यों न मिले ? इस चैलेंज को मैं समझता हूं, हमारे आईआईटियंस उठा सकते है।
आज भी हमारे देश में लाखों लोगों के पास छत नहीं है, रहने के लिए। हमारी कल्पना है कि भारत जब आजादी के 75 साल मनाए तो कम से कम देश में बिना छत के कोई परिवार न हो। क्या यह काम करना है तो बहुत गति से मकानों का निर्माण कैसे हो ? जो मकान बनें वे सस्टेन करने की दृष्टि से बहुत अच्छा बने। मैटिरियल भी बेस्ट से बेस्ट उपयोग करने की आदत कैसे बने, इन सारी चीजों को लेकर के, क्या आईआईटी की तरफ से मॉडल आ सकते हैं क्या। डिजाइंस आ सकते हैं क्या? मैटिरियल, उसका स्ट्रक्चर, सारी चीजें आ सकती है। हम समस्याओं को खोजने का प्रयास करे।
दुनिया में जैसे हम आईआईटी के लिए गर्व कर सकते हैं, भारत एक बात पर गर्व कर सकता है, लेकिन पता नहीं कि हमने उसको पर्दें के पीछे डालकर रखा हुआ है। और वे है हमारी रेलवे। हम दुनिया के सामने अकेले हमारे रेलवे की ब्रांडिंग एवं मार्केटिंग कर सकते हैं। अकेला इतना बड़ा नाम है, इतना बड़ा नेटवर्क, इतना डेली लोगों का आना-जाना, इतने टेलेंट का, मैं मानता हूं कि सामान्य से सामान्य व्यक्ति से हाईली क्वालिफाईड इंसान, सबका सिंक्रोनाइज एक्टिविटी है। लेकिन हमने उस रूप में देखा नहीं है। इसी रेलवे को अति आधुनिक, एक्जिस्टिंग व्यवस्था को, बुलट ट्रेन वगैरह तो जब होगी, तब होगी लेकिन एक्जिस्टिंग व्यवस्था यूजर फ्रेंडली कैसे बने, सारी व्यवस्था को हम विकसित कैसे करें, टेक्नोलॉजी इनपुट कैसे दें, उन्हीं व्यवस्थाओं को कैसे हम बढ़ाएं ?
छोटी-छोटी चीजें हैं, हम बदलाव कर सकते हैं।, आज हमारा रेलवे ट्रैक पर जो डिब्बा होता है, 16 टन का होता है। उसका अपना ही बियरिंग कैपिसिटी है। क्या आईआईटियन उसको छह टन का बना सकते हैं? फिर भी सेफ्टी हो आप कल्पना करके बता सकते हैं, कैपेसिटी कितनी बढ़ जाएगी। नई रेल की बजाए इसकी कैपेसिटी बढ़ जाएगी। मेरे कहने का तात्पर्य है कि हम भारत की आवश्यकताओं को सिर्फ किताबी बात नहीं आईआईटी से निकलने वाला और समाज को एक साथ कुछ न कुछ देकर जाएगा। इस विश्वास के साथ हम कुछ कर सकते हैं।
मैं मानता हूं कि हमारे देश में दो चीजों पर हम कैसे बढ रहे हैं और जो सामान्य मानविकी जीवन में भी है, एक साइंस ऑफ थिकिंग और एक आर्ट ऑफ लिविंग। यह कम्बीनेशन देखिए, इवन आईआईटी के स्टूडेंट को भी पूछना, प्रवोक करना है।
एक घटना सुनिए, बड़ी घटना है। एक साइंटिस्ट एक यूनिवर्सिटी में गए। स्टूडेंट्स भी बड़े उनसे अभिभूत थे, बहुत ही ओवर क्राउडेड रूम हो गया था। उन्होंने पूछा, भाई, हमें अगर आगे बढ़ना है, तो आब्जर्ब करने की आदत बढ़ना चाहिए। तो समझा रहे थे, हम देखते हैं, लेकिन आब्जर्ब नहीं करते और साइंटिफिक टेंपर वहीं से आता है। तो उसने कहा कि ऐसा करो भाई, एक टेस्ट ट्यूब लेकर के कोई नौजवान बाथरूम में जाओ, और उसमें अपना यूरिन ले कर के आओ। उन्होंने एक स्टूडेंट को भेजा, वह बाथरूम गया, टेस्ट ट्यूब में यूरिन ले कर आया। यूरिन लिया। यूरिन में अपनी अंगुली डाली, और फिर मुंह में डाली। सारे स्टूडेंट्स परेशान, यह कैसा साइंसटिस्ट है, दूसरे का यूरिन अपने मुंह में डालता है। हरेक के मुंह से – हैं ए ए ए – बड़ा निगेटिव आवाज निकली। फिर ये हंस पड़े। बोलो, आपको अच्छा नहीं लगा ना। क्यों, क्योंकि आपने आब्जर्ब नहीं किया। आपने सिर्फ देखा। मैंने टेस्ट ट्यूब में ये अंगुली डाली थी, और मुंह में ये (दूसरी अंगुली) लगाई थी। बोले, अगर आप आब्जर्ब करने की आदत नहीं डालते हैं, सिर्फ देखते हैं, तो आप शायद उस साइंटिफिक टेंपर को इवाल्व नहीं कर सकते हैं, अपने आप में। मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि इन चीजों को कैसे करें। और एक विषय है, आखिर में अपनी बात समाप्त करूंगा।
हमारे देश में बहुत से लोग होते हैं, जो स्कूल-कॉलेज कहीं नहीं गए, पर बहुत चीजें नई वो इनोवेट करते हैं। बहुत चीजें बनाते हैं। क्या हम, जिस इलाके में हमारे आईआईटी हों, कम से कम उस इलाके के 800-1000 गावों में ऐसे लोग हैं क्या? किसान भी अपने तरीके से व्यवस्था को नया डाइमेंशन दे देता है। थोड़ा सा मोडिफाई कर देता है। कभी हमारे स्टूडेंट्स को प्रोजेक्ट्स देना चाहिए, यदि हमारे किसान ने यह काम कर दिया है, तो तुम इसे साइंटिफिकली परफेक्ट कैसे कर सकते हो, फुलप्रुफ कैसे विकसित कर सकते हो ? क्योंकि बड़ी खोज की शुरूआत, एक स्पार्क् से होती है। यह स्पार्क् कोई न कोई प्रोवाइड करता है। हम अगर उनको एक प्रोजेक्ट दें, हर आईआईटी को ऐसे 25 लोगों को ढूढ़ना है जो अपने तरीके से जीवन में कुछ न कुछ करते हैं, कुछ न कुछ कर दिया है। उन 25 को कभी बुलाइए, उनके एक्सपीरियेंस स्टूडेंट़स के साथ शेयर कीजिए। वह पढ़ा लिखा नहीं है, उनको भाषा भी नहीं आती है। लेकिन वो उनको नई प्रेरणा देगा।
अहमबदाबाद आईआईएम में मिस्टर अनिल गुप्ता इस दिशा में कुछ न कुछ करते रहते हैं। लेकिन यह बहुत बड़ी मात्रा में आईआईटी स्टूडेंट के द्वारा किया जा सकता है। ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिसको लेकर के बात समझता हूं, हम करें तो माने एक अलग इाडमेंशन पर ही अपनी बातें रखने का प्रयास किया है। लेकिन कई दिशाओं पर आप चर्चा करने वाले हैं। और मुझे विश्वास है, आईआईटी ने इस देश को बहुत कुछ दिया है, और बहुत कुछ देने की क्षमता भी है। सिर्फ उसको उपयोग में कैसे लायें, इस दिशा में प्रयास करें।
मैं फिर से एक बार राष्ट्रपति जी का हृदय से अभिनंदन करता हूं, आभार व्यक्त करता हूं कि इस प्रकार का अवसर मिला।
थैंक्यू।