for creating a policy framework”
society”
traditional mode of teaching”
opportunities of personal and professional growth as they give us an opportunity to
learn, unlearn and relearn”
new National Education Policy has been formulated keeping that in mind”
also improve the lives of teachers”
and the students”
lives of young students”
गुजरात के लोकप्रिय मुख्यमंत्री श्री भूपेन्द्र भाई पटेल, केंद्र में मंत्रिपरिषद के मेरे साथी और जो जीवन भर अपने आपको शिक्षक के रूप में ही परिचय करवाते हैं, ऐसे पुरुषोत्तम रुपाला जी, पिछले चुनाव में भारत की संसद में, देश में, पूरे देश में सबसे अधिक वोट पाकर के जीतने वाले श्रीमान सी आर पाटिल जी, गुजरात सरकार के मंत्रिगण, अखिल भारतीय प्राइमरी शिक्षक संघ के सभी सदस्यगण, देश के कोने-कोने से आए सम्मानित शिक्षकगण, देवियों और सज्जनों!
आपने इतने स्नेह के साथ मुझे अखिल भारतीय प्राइमरी शिक्षक संघ के इस राष्ट्रीय अधिवेशन में बुलाया, इसके लिए मैं आपका आभारी हूं। आजादी के अमृतकाल में, जब भारत विकसित होने के संकल्प के साथ आगे बढ़ रहा है, तो आप सभी शिक्षकों की भूमिका बहुत बड़ी है। गुजरात में रहते हुए, मेरा प्राथमिक शिक्षकों के साथ मिलकर के राज्य की पूरी शिक्षा व्यवस्था को बदलने का अनुभव रहा है। एक जमाने में गुजरात में ड्रॉपआउट रेट जैसा मुख्यमंत्री जी ने बताया करीब-करीब 40 परसेंट के आस-पास हुआ करता था। और आज ये जैसा मुख्यमंत्री जी ने बताया 3 परसेंट से भी कम रह गया है। ये गुजरात के शिक्षकों के सहयोग से ही संभव हुआ है। गुजरात में शिक्षकों के साथ मेरे जो अनुभव रहे, उसने राष्ट्रीय स्तर पर भी नीतियां बनाने में, पॉलिसी फ्रैमवर्क में हमारी काफी मदद की है। अब जैसे रुपाला जी बता रहे थे, स्कूलों में शौचालय न होने के कारण बड़ी संख्या में बेटियाँ स्कूल छोड़ देती थीं। इसलिए हमने विशेष अभियान चलाकर स्कूलों में बेटियों के लिए अलग शौचालय बनवाए। यहां गुजरात में तो एक जमाने में पूरी आदिवासी बेल्ट में, गुजरात का पूरा पूर्वी छोर जो है वो हमारे आदिवासी बंधुओं का बसेरा है, एक प्रकार से, उस पूरे इलाके में उमरगाम से अंबा जी साइंस स्ट्रीम की पढ़ाई ही नहीं होती थी। आज शिक्षक ना केवल वहां साइंस पढ़ा रहे हैं, बल्कि मेरे आदिवासी नौजवान बेटे –बेटियां बच्चे डॉक्टर और इंजीनियर भी बन रहे हैं। मै कई बार प्रधानमंत्री के बाद जब भी मुझे विदेश जाने का एक दायित्व रहता है जब भी जाता हूं, विदेश में इन नेताओं से जब मिलता हूं और वो जो बातें बताते हैं। यहां बैठा हुआ और इस बात को सुनने वाला हर शिक्षक गर्व अनुभव करेगा। मैं अपने अनुभव बताता हूं आपको। आमतौर पर विदेशों के नेताओं से जब मिलता हूं तब उनके जीवन में भारतीय शिक्षकों का कितना बड़ा योगदान रहा है, बड़े गर्व के साथ वो वर्णन करते थे। मैं प्रधानमंत्री बनने के बाद मेरे पहली विदेश यात्रा भूटान में हुई। और भूटान के राजपरिवार के साथ जब मैं बैठा था, तो वो गर्व से बताते थे, जो उनके सिनियर किंग हैं वो बता रहे थे कि मेरे पीढ़ी के जितने लोग भूटान में हैं। उन सबको कोई न कोई हिन्दुस्तान के शिक्षक ने पढ़ाया लिखाया है। और वो बड़े गर्व से कहते थे। ऐसे ही मैं जब सउदी अरब गया, वहां के किंग बहुत वरिष्ठ और सम्मानीय महापुरुष हैं। मुझ पर उनका प्रेम भी बहुत है। लेकिन उनसे जब मैं बैठा तो बोले मैं तुझे बहुत प्यार करता हूं। फिर उन्होंने मुझसे पूछा क्यों मालूम है। मैंने कहा आप बताइये, ये आपकी कृपा है। उन्होंने कहा देखो भाई मैं भले राजा हूं, जो भी हूं, लेकिन बचपन में मेरा शिक्षक तुम्हारे देश का था और तुम्हारे गुजरात का था और उसने मुझे पढ़ाया है। यानि इतने बड़े संपन्न देश के महापुरुष बातचीत में भारत के प्रधानमंत्री से बात करते समय एक शिक्षक के योगदान की बात करना इसका गौरव अनुभव कर रहे थे।
पिछले दिनों कोविड में आप WHO के संबंध में टीवी पर बहुत कुछ देखते होंगे। आप WHO के जो मुखिया हैं, मिस्टर टेड रॉस, उनके कई बार टीवी पर आपने उनके बयान देखे हैं। मेरी उनकी बड़ी अच्छी मित्रता है, और वो हमेशा गर्व से कहते थे। पिछले दिनों जामनगर आए थे, तब भी उन्होंने उसी गर्व के साथ दोबारा उल्लेख किया। उन्होंने कहा बचपन से मेरी जिंदगी के हर पड़ाव में किसी न किसी हिन्दुस्तानी शिक्षक का योगदान रहा है। मेरे जीवन को बनाने में भारत के शिक्षक का योगदान रहा है।
साथियों,
जैसे रूपाला जी गर्व से कह सकते हैं कि वो आजीवन शिक्षक हैं। मैं स्वयं में शिक्षक नहीं हूं। लेकिन मैं गर्व से कहता हूं कि मैं एक आजीवन विद्यार्थी हूं। मैंने आप सभी से, समाज में जो कुछ भी होता है, उसे बारिकी से Observe करना सीखा है। आज प्राथमिक शिक्षकों के इस अधिवेशन में अपने इन्हीं अनुभवों को मैं आज जरा जी भर कर के आपके सामने कुछ कहना चाहता हूं। 21वीं सदी में तेजी से बदलते हुए इस समय में, भारत की शिक्षा व्यवस्था बदल रही है, शिक्षक बदल रहे हैं, छात्र भी बदल रहे हैं। ऐसे में इन बदलती हुई परिस्थितियों में हम कैसे आगे बढ़ें, ये बहुत अहम हो जाता है। जैसे हमने देखा है, पहले के टीचर्स के सामने संसाधनों की कमी, इंफ्रास्ट्रक्चर का अभाव जैसी कई चुनौतियां होती थीं। और तब छात्रों की तरफ से कोई खास चुनौती नहीं होती थी। आज, टीचर्स के सामने से संसाधन और सुविधाओं की जो कमी थी, वो जो समस्याएं थीं। वो धीरे-धीरे दूर हो रही हैं। लेकिन, आज की पीढ़ी के बच्चे, छात्र उनकी जो जिज्ञासा है, उनका जो कौतूहल है, वे मां-बाप के साथ-साथ टीचर्स के लिए भी एक बहुत बड़ी चुनौती चैलेंज लेकर आया है। ये छात्र आत्मविश्वास से भरे हुए हैं, ये छात्र निडर हैं। और उनका स्वभाव आठ साल की उम्र का, नौ साल की उम्र का छात्र भी टीचर को चुनौती देता है। वो शिक्षा के पारंपरिक तौर-तरीकों से कुछ नई चीजें उनसे पूछता है, बात करता है। उनकी जिज्ञासा शिक्षकों को चुनौती देती है और वो पाठ्यक्रम और विषय से बाहर जाकर उनके सवालों का जवाब दें। यहां बैठे हुए वर्तमान टीचर, वर्तमान बच्चों से रोज अनुभव करते होंगे। वो ऐसे सवाल लेकर के आते होंगे, आपको भी बड़ा मुश्किल हो जाता होगा। छात्रों के पास Information के अलग-अलग स्रोत हैं। इसने भी शिक्षकों के सामने खुद को अपडेट रखने की चुनौती पेश की है। इन चुनौतियों को एक टीचर कैसे हल करता है, इसी पर हमारी शिक्षा व्यवस्था का भविष्य निर्भर करता है। और सबसे अच्छा तरीका ये है कि इन चुनौतियों को personal और professional growth के अवसर के तौर पर देखा जाए। ये चुनौतियां हमें learn, unlearn और re-learn करने का मौका देती हैं। इन्हें हल करने का एक तरीका ये है कि शिक्षण के साथ-साथ स्वयं को छात्र का guide और mentor भी बनाएं। आप भी जानते हैं कि गूगल से डेटा मिल सकता है, लेकिन decision तो खुद ही लेना पड़ता है। एक गुरु ही छात्र को गाइड कर सकता है कि वो अपनी जानकारियों का सही उपयोग कैसे करे। टेक्नोलॉजी से information मिल सकती है लेकिन सही दृष्टिकोण तो शिक्षक ही दे सकता है। सिर्फ एक गुरु ही बच्चों को ये समझने में मदद कर सकता है कि कौन सी जानकारी उपयोगी है और कौन सी नहीं है। कोई भी टेक्नोलॉजी किसी विद्यार्थी की पारिवारिक स्थिति को नहीं समझ सकती। एक गुरु ही उसके हालात को समझकर उसे सभी मुश्किलों से बाहर निकलने के लिए प्रेरित कर सकता है। इसी तरह, दुनिया की कोई भी टेक्नोलॉजी ये नहीं सिखा सकती कि किसी विषय की गहराई में जाकर उसे कैसे समझें, Deep Learning कैसे करें।
जब information की भरमार हो, information के पहाड़ खड़े हो जाते हैं तो छात्रों के लिए ये महत्वपूर्ण हो जाता है कि वो कैसे एक चीज पर अपना ध्यान केंद्रित करें। Deep Learning और उसे logical conclusion तक पहुंचाना ये बहुत महत्वपूर्ण है। इसलिए, आज 21वीं सदी के छात्र के जीवन में टीचर की भूमिका और ज्यादा वृहद हो गई है। और मैं तो आप से भी कहना चाहूँगा, मैं आपको कोई उपदेश देने नहीं आया हूं और नहीं मैं उपदेश दे सकता हूं। लेकिन आप पल भर के लिए ये भूल जाइये कि आप टीचर हैं। पल भर के लिए सोचिये कि आप किसी संतान की माता जी हैं, किसी संतान के पिताजी हैं। आप अपने बच्चे को कैसा चाहते हैं। आपके बच्चे के लिए आप क्या चाहते हैं। पहला जवाब मिलेगा साथियों, यहां से कोई इन्कार नहीं कर सकता है। पहला जवाब मिलेगा, मैं भले टीचर हूं, हम माता-पिता दोनों भले टीचर हैं, लेकिन हमारे बच्चों को अच्छा शिक्षक मिले, अच्छी शिक्षा मिले आपके दिल में भी बच्चों के लिए पहली कामना है, आपके बच्चों को अच्छा शिक्षक, अच्छी शिक्षा मिले। जो कामना आपके दिल में है, वही कामना हिन्दुस्तान के कोटि-कोटि माता पिता के दिल में भी है। जो आप अपने बच्चों के लिए चाहते हैं वो हिन्दुस्तान का हर मां बाप अपने बच्चों के लिए चाहता है और वो आप से उम्मीद करता है।
साथियों,
इस बात को हमेशा ध्यान में रखिए कि विद्यार्थी आपसे, आपकी सोच से, आपके रोजमर्रा के व्यवहार से, आपकी बोल चाल से, आपके उठने बैठने के तरीके से वो बहुत कुछ सीखता रहता है। आप जो पढ़ा रहे हैं और छात्र जो आपसे सीख रहा है, उसमें कभी-कभी बहुत अंतर होता है। आप सोचते होंगे कि आप गणित, विज्ञान, इतिहास या कोई अन्य विषय पढ़ा रहे हैं, लेकिन छात्र आपसे सिर्फ वो विषय नहीं सीख रहा। वो ये भी सीख रहा है कि अपनी बात कैसे रखनी चाहिए। वो आपसे धैर्य रखने, दूसरों की मदद करने जैसे गुण भी सीख रहा है। आपको देखकर ही वो सीखता है कि सख्त छवि रखकर भी स्नेह कैसे जताया जा सकता है। निष्पक्ष रहने का गुण भी उसे शिक्षक से ही मिलता है। इसलिए, प्राइमरी एजुकेशन का रोल बहुत Important होता है। छोटे बच्चों के लिए टीचर, परिवार से बाहर वो पहला व्यक्ति होता है, जिसके साथ वो सबसे ज्यादा समय बिताता है। इसलिए आप सभी में इस दायित्व का एहसास, भारत की आने वाली पीढ़ियों को बहुत मजबूत करेगा।
साथियों,
अभी आप जिन स्कूलों में कार्यरत हैं, वहां नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति या तो लागू हो चुकी होगी या फिर लागू होने वाली होगी। और मुझे गर्व है कि इस बार जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनी है, देश के लाखों शिक्षकों ने उसको बनाने में contribution दिया है। शिक्षकों के परिश्रम से ये पूरी शिक्षा नीति बन पाई है। और इसके कारण सभी जगह उसका स्वागत हुआ है। आज भारत, 21वीं सदी की आधुनिक आवश्कताओं के मुताबिक नई व्यवस्थाओं का निर्माण कर रहा है। ये नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति इसी को ध्यान में रखते हुए बनाई गई है।
हम इतने वर्षों से स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर अपने बच्चों को केवल किताबी ज्ञान दे रहे थे। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति उस पुरानी अप्रासंगिक व्यवस्था को परिवर्तित कर रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति practical पर आधारित है। अब जैसे आपको और टीचिंग और लर्निंग, अब कहा जाता है टीचिंग का कालखंड पूरा हो गया। अब लर्निंग के ही द्वारा शिक्षा को आगे बढ़ाना है। अब जैसे आपको मिट्टी के बारे में कुछ बताना हैं, चाक के बारे में कुछ सिखाना है, अगर आप बच्चों को लेकर कुम्हार के घर जा सकते हैं। आप कुम्हार के घर जाएंगे तो उन्हें बहुत सी चीजें देखने को मिलेंगी। किन परिस्थितियों में कुम्हार रहते हैं, कितनी मेहनत करते हैं। एक व्यक्ति गरीबी से बाहर आने के लिए कितने प्रयास कर रहा है। और इससे बच्चों में संवेदनशीलता जागेगी। मिट्टी से कैसे सुराही बनती है, मटके बनते है, घड़े बनते हैं, बच्चे ये सब देखेंगे। अलग अलग तरह की मिट्टी कैसी होती है, ये सारी चीजें प्रत्यक्ष नज़र आएँगी। ऐसी प्रैक्टिकल अप्रोच राष्ट्रीय शिक्षा नीति का बहुत प्रमुख तत्व है।
साथियों,
अनोखे प्रयोग करने वाले और Teaching और learning का डिबेट तो इन दिनों सुनने को मिलता है। लेकिन मैं अपने बचपन की एक घटना आपको बताता हूं। मुझे मेरे अपने एक शिक्षक आज याद आ रहे हैं। मेरे प्राइमरी शिक्षक, वो शाम को जब स्कूल से घर जाना होता था। तो बच्चों को कुछ न कुछ काम देते थे। और होमवर्क वाला नहीं कुछ और ही काम देते थे। जैसे वो कहते थे अच्छा भई तुम ऐसा करना कल दस चावल लेकर के आ जाना। दूसरे को कहते थे तुम 10 मूंग के दाने ले आना। तीसरे को कहते थे तूर की दाल 10 लेके आना। चौथे को कहते थे तुम 10 चने ले आना। हरेक से कुछ न कुछ ऐसा 10-10 मंगवाते थे। तो बच्चा घर जाते याद रखता था, मुझे 10 लाना है, 10 लाना है। 10 नम्बर फिक्स हो जाता था। फिर मुझे गेहूं लाना है कि चावल लाना है उसके दिमाग में, घर जाते ही पहले अपनी मां से कह देता था। मुझे कल टीचर ने कहा ये ले जाना है। सुबह तक उसके दिमाग में वो चावल और 10, चावल और 10 ये बना रहता था। लेकिन क्लास में जब हम जाते थे तो हमारे टीचर उन सबको इकट्ठा कर देते थे। और फिर सबको कहते थे अलग-अलग लोगों को, अच्छा भई तुम ऐसा करो इसमें से 5 मूंग निकालो, दूसरे से कहते थे तुम 3 चने निकालो, तीसरे को कहते थे, यानि वो चने को पहचानने लग जाता है, वो मूंग को पहचानता है, उसको नंबर याद रहे। यानि कि ऐसी उनकी प्रैक्टिकल व्यवस्था थी, हमारे लिए भी बड़ा अजीब लगता था। लेकिन वो सिखाने का उनका तरीका था। जब हम 1 साल हो पूरा हो गया अगले साल गए, तो भी वही टीचर थे, तो उन्होंने फिर से वही कहा तो मैं जरा सवाल पूछने का आदि था मैं, तो मैंने कहा साहब पिछले साल आपने ये करवाया था, दोबारा क्यों करवा रहे हो। बोले चुप रह, तुम तुम्हारा काम करो। ठीक है जो कहा हम लेकर के आ गए। लेकिन दूसरे साल उन्होंने बदल दिया। उन्होंने हरेक की आंख पर पट्टी बांध दी। और उन्होंने कहा स्पर्श से तुम तय करो मूंग कौन सा है, चना कौन सा है और स्पर्श वाली इंद्रियों की क्या सामर्थ्य है, उसकी शिक्षा उन्होंने बड़ी सरलता से दे दी थी दोस्तों। एक टीचर जब आपके अंदर involve हो जाता है तो कैसे करता है ये मैं अपना अनुभव बताता हूं। आप कल्पना कर सकते हैं, इस एक एक्टिविटी से हमें कितना लाभ होता था। हमें गिनती के बारे में पता चला, हमें दालों के बारे में पता चला, हमें रंगों के बारे में पता चला। तो वो इस तरह से हमें प्रैक्टिकल ज्ञान के साथ हमारी पढाई कराते थे। प्रैक्टिकल के साथ पढ़ाई, यही National Education Policy की मूल भावना भी है, और इसे जमीन पर उतारने की ज़िम्मेदारी आप सबको निभानी ही है।
साथियों,
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जो एक बड़ा प्रावधान किया गया है, वो हमारे गांव-देहात और छोटे शहरों के शिक्षकों की बहुत मदद करने वाला है। ये प्रावधान है- मातृभाषा में पढ़ाई का। हमारे देश में अंग्रेजों ने ढाई सौ साल राज किया, लेकिन फिर भी अंग्रेजी भाषा एक वर्ग तक ही सीमित रही थी। दुर्भाग्य से, आजादी के बाद ऐसी व्यवस्था बनी कि, अंग्रेजी भाषा में ही शिक्षण को प्राथमिकता मिलने लगी। माता-पिता भी बच्चों को अंग्रेजी भाषा में पढ़ाने के लिए प्रेरित होने लगे। इसका नुकसान मेरे टीचर यूनियन ने कभी इस पर सोचा है कि नहीं सोचा है मुझे मालूम नहीं है। आज मैं आपको बता रहा हूं, जिस समय आप सोचेंगे इस विषय पर इस सरकार की जितनी तारीफ करेंगे उतनी कम होगी। क्या हुआ, जब ये अंग्रेजी-अंग्रेजी चलने लगा तो गांव-देहात और गरीब परिवार के हमारे उन लाखों शिक्षकों को जो मातृभाषा में पढ़कर निकल रहे थे। वो कितने ही अच्छे शिक्षक हों, लेकिन उनको अंग्रेजी सिखने का अवसर नहीं मिला था। अब उनके लिए नौकरी का खतरा मंडराने लग गया। क्योंकि अंग्रेजी का माहौल चल गया। आपकी नौकरी और आप जैसे साथियों की भविष्य में भी नौकरी निश्चित करने के लिए हमनें मातृभाषा में शिक्षा पर बल दिया है। जो मेरे शिक्षक के जीवन को बचाने वाला है। दशकों से हमारे देश में यही चलता आ रहा था। लेकिन अब राष्ट्रीय शिक्षा नीति, मातृभाषा में शिक्षण को बढ़ावा देती है। इसका बहुत बड़ा लाभ आपको मिलेगा। इसका बहुत बड़ा लाभ हमारे गांवों से आए हुए, ग़रीब परिवार से आए हुए युवाओं को मिलेगा, शिक्षकों को मिलेगा, नौकरी के लिए अवसर तैयार हो जाएंगे।
साथियों,
शिक्षकों से जुड़ी चुनौतियों के बीच, आज हमें समाज में ऐसा माहौल बनाने की भी जरुरत है जिसमें लोग शिक्षक बनने के लिए स्वेच्छा से आगे आएं। अभी जो स्थितियां हैं, उसमें हम देखते हैं कि लोग डॉक्टर बनने की बात करते हैं, इंजीनियर बनने की बात करते हैं, MBA करने की बात करते हैं, Technology को जानने की बात करते हैं, ये सारी बाते करते हैं, लेकिन बहुत कम देखने को मिलता है कोई आकर कहे कि मैं शिक्षक बनना चाहता हूं, मैं बच्चों को पढ़ाना चाहता हूं। ये स्थिति किसी भी समाज के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती होती है। ये सवाल उठना बहुत आवश्यक है कि हम नौकरी के लिए बच्चों को पढ़ा रहे हैं, तनख्वाह भी मिल रही है, लेकिन क्या हम मन से भी शिक्षक हैं क्या? हम जीवन भर शिक्षक हैं क्या? क्या सोते, जागते, उठते बैठते हमारे मन में ये भावना है कि मुझे देश के आने वाले भविष्य को गढ़ना है, बच्चों को हर रोज कुछ नया सिखाना है? मैं मानता हूं समाज को बनाने में शिक्षकों की बहुत बड़ी भूमिका होती है। लेकिन कई बार कुछ परिस्थितियाँ देखकर मुझे तकलीफ भी होती है। मैं आपको बताऊँगा आप भी मेरी तकलीफ समझ पाएंगे। मैं कभी-कभी क्योंकि मेरे मन में जैसे अभी रुपाला जी ने वर्णन किया ना। मैं मुख्यमंत्री बना तो मेरी दो इच्छाएं थीं, व्यक्तिगत दो इच्छाएं। एक बचपन में जो मेरे साथ स्कूल में पढ़ने वाले मेरे दोस्त थे, उनको मैं सीएम के घर बुलाऊं। क्योंकि मेरा, मैं एक परिव्राजक था, मेरा नाता सबसे टूट चुका था। तीन-तीन दशक बीच में बीत गए थे, तो मेरा मन कर गया कि उन पुराने दोस्तों को याद करूं। और दूसरी मेरी इच्छा थी कि मेरे सभी टीचर्स को मैं अपने घर बुलाऊं और उनका सम्मान करूं। और मुझे खुशी है कि उस समय जब मैंने मेरे टीचर्स को बुलाया एक टीचर की उम्र 93 थी और आपको साथियों गर्व होगा मैं एक ऐसा विद्यार्थी हूं। आज भी मेरे जितने टीचर जीवित हैं। मैं उनके साथ जीवन संपर्क में हूं, आज भी। लेकिन आज कल मैं क्या देख रहा हूं अगर मैं कहीं कोई शादी का निमंत्रण देने आता है या किसी शादी ब्याह में जाता हूं। तो मैं उनको पूछता हूं, वो कितना ही बड़ा आदमी होगा मैं उससे पूछता हूं। अच्छा भाई तुम्हारी शादी हो रही है, तुम्हारी ज़िंदगी का बड़ा महत्वपूर्ण अवसर है, क्या तुमने अपने किसी टीचर को शादी में निमंत्रण दिया है क्या? 100 में से 90 परसेंट कोई मुझे कहता नहीं कि मैंने टीचर को बुलाया है। और जब मैं ये सवाल पूछता हूं लोग इधर-उधर देखने लग जाते हैं। अरे तुम्हारी जिंदगी बनाने की जिसने शुरूआत की और तुम जीवन के एक बहुत बड़े पड़ाव की ओर जा रहे हो और शादी में तुझे तेरा टीचर याद नहीं आया। ये समाज की एक सच्चाई है और ऐसा क्यों हो रहा है? ये हम सबको सोचना चाहिए। और इस सच्चाई का एक और पहलू है। जैसे मैं ऐसे लोगों को पूछता हूं, विद्यार्थीयों के बारे में तो मैं टीचर को भी पूछता हूं। मैं बहुत से शिक्षाओं के कार्यक्रम में जाना पसंद करता रहा हूं। बहुत सालों से जाता रहता हूं तो मैं उनको जरूर मिलता हूं, तो पूछता हूं, मैं छोटे-छोटे स्कूल के कार्यक्रम में भी जाता हूं और उनके टीचर्स रूम में बैठकर के उनसे पूछता हूं। मैं पूछता हूं अच्छा बताओ भाई आप 20 साल से टीचर हो, कोई 25 साल से टीचर हो, कोई 12 साल से टीचर हो। आप मुझे 10 विद्यार्थियों के नाम बताइए। अपने जीवनकाल के 10 विद्यार्थियों के नाम बताइये जिन्होंने आज जीवन में इतनी ऊंचाई प्राप्त की है कि आपको गर्व हो रहा है, कि वो आपका विद्यार्थी था और उसका जीवन सफल हुआ है। मुझे दुर्भाग्य से कहना है बहुत सारे टीचर मुझे जवाब नहीं दे पाते हैं कि मैं 20 साल टीचर तो रहा, हर दिन आया बच्चे मेरे साथ रहते थे लेकिन कौन 10 विद्यार्थी अपनी जिंदगी बना पाए और वो मुझे याद है कि नहीं, उनसे मेरा कुछ संबंध रहा है कि नहीं तो जीरो रिजल्ट आ रहा है दोस्तों। यानि डिस्कनेक्ट दोनों तरफ से है। ये विद्यार्थी और टीचर दोनों ही तरफ से हो रहा है।
औऱ साथियों,
ऐसा भी नहीं है कि सब बिखर ही गया है। हमारे खेल के मैदान में आपको स्थितियां बिल्कुल अलग मिलती हैं। हम देखते हैं कोई खिलाड़ी अगर कोई मेडल लेकर के आता है तो सबसे पहले अपने गुरू, अपने कोच को प्रणाम करता है। वो ओलंपिक जीत कर के आया होगा। बचपन में जिसने खेल सिखाया होगा, उसके बीच में 15-20 साल का फासला चला गया होगा, फिर भी जब वो मेडल प्राप्त करता है, उस गुरु को प्रणाम करता है। गुरू के सम्मान की ये भावना जीवनपर्यंत उसके मन में रहती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि गुरू या कोच, उस खिलाड़ी पर व्यक्तिगत रूप से फोकस करता है, उसकी जिंदगी के साथ जुड़कर उसको तैयार करता है। उस पर मेहनत करता है। खेल के मैदान से अलग, शिक्षकों की सामान्य दुनिया में हम ऐसा कम ही होता देखते हैं कि कोई विद्यार्थी उन्हें जीवन भर याद कर रहा है, उनके संपर्क में है। ऐसा क्यों होता है, इसके बारे में हमें जरूर सोचना चाहिए।
साथियों,
समय के साथ, विद्यार्थियों और स्कूलों के बीच भी डिस्कनेक्ट बढ़ता जा रहा है। पढ़कर निकलने के बाद, बच्चे स्कूल को तब याद करते हैं, जब उन्हें कोई फार्म भरना होता है और वहां से कोई दाखिला लेना होता है। मैं बहुत बार लोगों से पूछता हूं कि क्या आपको मालूम है कि आपके स्कूल का स्थापना दिवस या आपके स्कूल का जन्मदिन कब होता है? जन्मदिन यानि वो कौन सा दिन था जब आपका स्कूल उस गांव में शुरु हुआ था। और मेरा जो अनुभव रहा है, कि बच्चों को या स्कूल की management को या टीचर को किसी को पता नहीं होता कि जिस स्कूल में वो नौकरी कर रहे हैं या जिस स्कूल में वो पढ़े थे, वो स्कूल कब शुरू हुआ था। ये जानकारी नहीं होती है भाई। स्कूल और स्टूडेंट के बीच डिस्कनेक्ट को दूर करने के लिए ये परंपरा शुरु की जा सकती है कि हम स्कूलों का जन्मदिन मनाएं और बड़े ठाठ से मनाएं, पूरा गांव मिलकर के मनाएं और और इसी बहाने आप उस स्कूल में से पढ़कर के गए सब पुराने-पुराने लोगों को इकट्ठा कीजिए, पुराने सब टीचर्स को इकट्ठा कीजिए, आप देखिए एक पूरा माहौल बदल जाएगा, अपनत्व की नई शुरूआत हो जाएगी। इससे एक कनेक्ट बनेगा, समाज जुड़ेगा और आपको भी पता चलेगा कि हमारे जो पढ़ाए हुए बच्चे हैं वो आज कहां-कहां पहुंचे है। आप गर्व की अनुभूति करेंगे। मैं ये भी देखता हूं कि स्कूलों को पता नहीं होता है कि उनके पढ़ाए बच्चे कहां पर पहुंच गए हैं, कितनी ऊंचाई पर हैं। कोई किसी कंपनी का CEO है, कोई डॉक्टर है, कोई इंजीनियर है, कोई सिविल सर्विसेस में आ गया है। उसके बारे में सब जानते हैं लेकिन वो जिस स्कूल में पढ़ा है, वही स्कूल वाले जानते नहीं हैं। ये मेरा पक्का विश्वास है कि कोई कितना भी बड़ा व्यक्ति क्यों ना हो, किसी भी पद पर क्यों ना हो, अगर उसको उसके पुराने स्कूल से निमंत्रण आएगा तो वो कुछ भी करके, खुशी-खुशी वो स्कूल जरूर जाएगा। इसलिए हर स्कूल को अपने स्कूल का जन्मदिन अवश्य मनाना चाहिए।
साथियों,
एक बहुत अहम विषय फिटनेस और स्वास्थ्य का भी है, हाइजीन का भी है। ये सब विषय आपस में जुड़े हुए हैं। बहुत बार मैं देखता हूं कि बच्चों का जीवन इतना शिथिल हो गया है कि पूरा-पूरा दिन निकल जाता है कोई शारीरिक एक्टिविटी नहीं होती है। या तो digitally मोबाइल पे बैठा है या tv के सामने बैठा है। मैं कभी-कभी स्कूलों में जाता था तो बच्चों को पूछता था अच्छा वे कितने बच्चे हैं जिनको दिन में 4 बार पसीना होता है बताइये। बहुत बच्चों को तो मालूम ही नहीं कि पसीना क्या होता है। बच्चों को पसीना नहीं आता, क्योंकि उनके खेलने का कोई रुटीन ही नहीं है। ऐसे में उनका सर्वांगीण विकास कैसे होगा? आप सभी जानते हैं, सरकार बच्चों के पोषण पर कितना फोकस कर रही है। सरकार, मिड-डे मील की व्यवस्था करती है। अगर भावना ये होगी कि किसी तरह खाना-पूर्ति कर देनी है, कागजों में से सब ठीक रहना है, तो पोषण को लेकर चुनौतियां आती रहेंगी। मैं उसको दूसरे तरीके से देखता हूं दोस्तों। बजट तो सरकार देती है, लेकिन हम उस देश के लोग हैं, जहां पर कोई भी अगर छोटा सा भी अन्न क्षेत्र चलाता है और वहां कोई भी व्यक्ति आता है तो उसको खाना मिल जाता है। समाज उसके प्रति बड़े गर्व से देखता है, बड़ी श्रद्धा से देखता है। आज हम लंगर की बात करें, आज लंगर के प्रति बड़ी श्रद्धा से देखा जाता है। आज हम देखें कोई भंडारा होता है लोगों को खिलाते हैं बड़ी श्रद्धा से। क्या हमें नहीं लगता है कि हमारे स्कूल में तो रोज भंडारा चल रहा है। उन बच्चों को खिलाने का आनंद उनके मन को संस्कारित करने का आनंद और एक पवित्र भाव सिर्फ उसके पेट में कुछ खाना जाता है, वो enough नहीं है दोस्तों। हमें अनुभूति होनी चाहिए कि देखिए ये पूरा समाज तुम भूखे न रहो इसके लिए कितना कुछ कर रहा है, उन बच्चों के जीवन के साथ और मैं तो मानता हूं डेली गांव के दो वरिष्ठ लोगों को बुलाना चाहिए कि आज दोपहर को मिड-डे-मील में आइये, हमारे बच्चों को परोसिये और आप भी साथ में खाना खाइये। देखिए पूरा माहौल बदल जाएगा, यही मिड-डे-मील एक बहुत बड़ा संस्कार का कारण बन जाएगा। और उससे बच्चों को कैसे खाना, कितनी स्वच्छता से खाना, कुछ खाना खराब नहीं करना, कुछ फेंकना नहीं, सारे संस्कार उसके साथ जुड़ जाएंगे। शिक्षक के तौर पर जब हम खुद उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, तो उसका परिणाम बहुत शानदार आता है। मुझे याद है, एक बार मैं सीएम रहते हुए यहां गुजरात के एक आदिवासी बाहुल्य जिले के एक स्कूल में गया था। जब मैं वहां गया, मैंने देखा जो बच्चे थे, बड़े साफ सुथरे थे और हरेक के ऊपर एक दम जो छोटे बच्चे थे पिन से एक हैंडकरचीफ लटका हुआ था। तो और उन बच्चों को सिखाया गया था कि उसको हाथ साफ करना है, नाक साफ करना है और वो करते थे और जब स्कूल पूरा होता था तो जो टीचर थी वो सब उनसे निकाल लेती थी, घर ले जाकर के धोकर के दूसरे दिन लाकर के फिर लगा देती थी। और मैंने जब जानकारी पायी अपने यहां तो मालूम है हमारे यहां गुजरात में तो खास है कि पुराने कपड़े बेचकर के बर्तन लेते हैं, खरीदते हैं बर्तन। वो महिला गरीब थी, लेकिन अपनी साड़ी बेचती नहीं थी। वो साड़ी को काटकर के हैंडकरचीफ बनाती थी और बच्चों को लगाती थी। अब देखिए एक शिक्षिका अपनी पुरानी साड़ी के टुकड़ों से उन बच्चों को कितने संस्कार दे रही थी जो उसकी ड्यूटी का हिस्सा नहीं था। उसने sense of hygiene उस आदिवासी इलाके की मां की बात कर रहा हूं मैं।
भाइयों-बहनों
Sense of hygiene और मैं वैसे एक और स्कूल की बात मैं बताता हूं। मैं एक स्कूल में गया तो स्कूल में झोपड़ी जैसा स्कूल था, बड़ा स्कूल नहीं था, आदिवासी क्षेत्र था, तो सीसा एक लगा था, mirror लगा था, आईना 2/2 का आइना होगा। उस टीचर ने नियम बनाया था, जो भी स्कूल आएगा पहले आइने के सामने 5 सेकेंड खड़ा रहेगा, खुद को देखेगा फिर क्लास में जाएगा। उस एक मात्र प्रयोग से जो भी बच्चा आता था तुरंत उसके सामने अपने बाल ठीक करता था उसका स्वाभिमान जग जाता था। उसको लगता था मुझे ऐसे रहना चाहिए। बदलाव लाने का काम टीचर कितने अद्भुत तरीके से करते हैं। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हमारे समाने हैं।
साथियों,
आप कल्पना कर सकते हैं, आपका एक छोटा सा प्रयास, कितने बड़े परिवर्तन ला सकता है। मैं आपको कितने ही उदाहरण दे सकता हूं, जो मैंने खुद भी आप शिक्षकों के बीच रहते हुए देखे हैं, जाने हैं, सीखे हैं। लेकिन समय का अभाव है, इसलिए मैं अपनी बात को लंबा नहीं खींच रहा हूं। मैं मेरी वाणी को विराम देता हूं। मुझे विश्वास है, हमारी परंपरा ने गुरु को जो स्थान दिया है, आप सभी उस गरिमा को, उस गौरव को, उस महान परंपरा को आगे बढ़ाएँगे, नए भारत का सपना पूरा करेंगे। इसी विश्वास के साथ, आप सभी का मैं बहुत-बहुत धन्यवाद करता हूं और बहुत-बहुत शुभकामनाएं देता हूं।
नमस्कार!