उपस्थित सभी महानुभाव,
मैं अपने आप में गौरव महसूस कर रहा हूं क्योंकि जब हम छोटे थे, तो ज्ञानपीठ पुरस्कार की खबर आती थी तो बड़े ध्यान से उसको पढ़ते थे कि ये पुरस्कार किसको मिल रहा है, जिसको मिला है उसका Background क्या है। बड़ी उत्सुकता रहती थी और जिसके मन की अवस्था यह रही हो, उसको यहां आ करके बैठने का अवलर मिले, इससे बड़ी बात क्या हो सकती है।
आज का दिवस मन को विचलित करने वाला दिन है। भयंकर भूकंप ने मानव मन को बड़ा परेशान किया हुआ है और पता नही कि कितना नुकसान हुआ होगा क्योंकि अभी तो जानकारी आ रही हैं। नेपाल की पीड़ा भी हमारी ही पीड़ा है। मैंने नेपाल के प्रधानमंत्री जी से, राष्ट्रपति जी से बात की और विश्वास दिलाया है कि सवा सौ करोड़ देशवासी आपकी इस मुसीबत में आपके साथ हैं। ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि इस भयंकर हादसे को सहने की परमात्मा ताकत दे। जिन परिवारजनों पर आफत आई है, उनको शक्ति दे। भारत में भी कम-अधिक कुछ-न-कुछ प्रभाव हुआ है। उनके प्रति भी मेरी संवेदना है।
ये Golden Jubilee का अवसर है। 50वां समारोह है। समाज जीवन में तकनीकी विकास कितना ही क्यों न हुआ हो, वैज्ञानिक विकास कितना ही क्यों न हुआ हो लेकिन उसके साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं का भी अगर विस्तार नहीं होता है, ऊंचाइयों को छूने का प्रयास नहीं होता है, तो पता नहीं मानव जाति का क्या होगा? और इसलिए विज्ञान और Technology के युग में साहित्यिक साधना मानवीय संवेदनाओं को उजागर करने के लिए, मानवीय संवेदनाओं को संजोने के लिए एक बहुत बड़ी औषधि के रूप में काम करता है और जो साहित्यिक साहित्य रचना करता है। आजकल आप Computer के लिए Software बना दें और Software के अंदर Programming के साथ एक-दो हजार शब्द डाल दें और Computer को कह दें कि भई उसमें से कुछ बनाकर के निकाल दो, तो शायद वो बना देता है। लेकिन वो Production होगा, वो Assemble करेगा, Creation नहीं कर सकता है और ये creativity जो है, वो अनुभूति की अभिव्यक्ति होती है। वह एक दर्शन के रूप में प्रवाहित होती है और तब जाकर के पीढ़ियों तक सामान्य मानव के जीवन को स्पर्श करती रहती है। हमारे यहां परंपरा से निकली हुई कहावतें हैं। सदियों के प्रभाव से, अनुभव से, संजो-संजो करके बनी हुई होती हैं और हमने देखा होगा कि एक कहावत जीवन की कितना दिशा-दर्शक बन जाती है। एक कहावत कितना बड़ी उपदेश दे जाती है। पता तक नहीं है ये कहावत का रचयिता कौन था, नियंता कौन था, किस कालखंड में निर्माण हुआ था, कुछ पता नहीं है। लेकिन आज भी और समाज के अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति से लेकर के वैश्विक ज्ञान संपादन करने का जिसको अवसर मिला है, उनको भी वो एक ही कहावत जोड़ पाती है। यानि हम कल्पना कर सकते हैं कि कितना सामर्थ्य होगा कि जो नीचे से लेकर आसमान तक की अवस्था को स्पष्ट कर सकता है, जोड़ सकता है।
इतना ही नहीं वो बीते हुए युग को, वर्तमान को और आने वाले युग को जोड़ने का सामर्थ्य रखता है। मैंने कहावत का उल्लेख इसलिए किया कि हम भली-भांति रोजमर्रा की जिंदगी में इसका उपयोग करते हैं। साहित्य की ताकत उससे अनेकों गुना ज्यादा होती है और सर्जक जब करता है, मैं नहीं मानता हूं कि वो वाचक के लिए कुछ लिखता है, मैं नहीं मानता हूं, न ही वो इसलिए लिखता है कि उसे कुछ उपदेश देना है, न ही वो इसलिए लिखता है कि उसको कोई विवाद कर-करके अपना जगह बनानी है। वो इसलिए लिखता है, वो लिखे बिना रह नहीं सकता है। उसके भीतर एक आग होती है, उसके भीतर एक ज्वाला होती है, उसके भीतर एक तड़प होती है और तब जाकर के स्याही के सहारे वो संवेदनाएं शब्द का रूप धारण करके बहने लग जाती हैं, जो पीढ़ियों तक भिझोती रहती हैं, पथ-दर्शक बनकर के रहती हैं और तब जाकर के वो साहित्य समाज की एक शक्ति बन जाता है। कोई कल्पना कर सकता है, वेद किसने बनाएं हैं, कब बनाएं हैं, कहां पता है लेकिन आज भी मानव जाति जिन समस्याओं से उलझ रही है, उसके समाधान उसमें से मिल रहे हैं।
मैं अभी फ्रांस गया था। फ्रांस के राष्ट्रपति जी से मेरी बात हो रही थी क्योंकि COP-21 फ्रांस में होने वाला है और Environment को लेकर के दुनिया बड़ी चिंतित है। मैंने कहा जब प्रकृति पर कोई संकट नहीं था, सारी पृथ्वी लबालब प्रकृति से भरी हुई थी। किसी ने उस प्रकृति का exploitation कभी नहीं किया था उस युग में, उस युग में वेद की रचना करने वालों ने प्रकृति की रचना कैसे करनी चाहिए, क्यों करनी चाहिए, मनुष्य जीवन और प्रकृति का नाता कैसा होना चाहिए इसका इतना विद्वत्तापूर्ण वर्णन किया है। मैंने कहा ये हैं दुनिया को रास्ता दिखा सकते हैं कि हां, global warming से बचना है तो कैसे बचा जा सकता है? Environment protection करना है तो कैसे किया जा सकता है और पूरी तरह वैज्ञानिक कसौटी से कसी हुई चीजें सिर्फ उपदेशात्मक नही हैं, सिर्फ भावात्मक नहीं हैं, सिर्फ संस्कृत के श्लोकों का भंडार नहीं है। इसका मतलब हुआ कि युगों पहले किसी ने कल्पना की होगी कि जमीन के सामने क्या संभव होने वाला है और उसका रास्ता अभी से उन मर्यादाओं का पालन करेंगे तो होगा लेकिन कोई रचना करने वाला उस जमाने का कोई नेमाड़े तो ही होगा। हो सकता है उस समय ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं होगा, कहने का तात्पर्य यह है कि ये युगों तक चलने वाली साधना है।
मैं नेमाड़े जी के जीवन की तरफ जब देखता हूं, मैं comparison नहीं करता हैं, मुझे क्षमा करें, न ही मैं वो नेमाड़े जी की ऊंचाई को पकड़ सकता हूं और जिनका उल्लेख करने जा रहा हूं उनकी भी नहीं पकड़ सकता हूं। लेकिन श्री अरविंद जी के जीवन की तरफ देखें और नेमाड़े जी की बातों को सुनें तो बहुत निकटता महसूस होती है। उनका भी लालन-पालन, पठन सब अंग्रेजियत से रहा लेकिन जिस प्रकार से ये back to basic और जीवन के मूल को पकड़ कर के हिंदुस्तान की आत्मा को उन्होंने झंझोरने का जो प्रयास किया था। ये देश का दुर्भाग्य है कि वो बातें व्यापक रूप से हमारे सामने आई नहीं है, लेकिन जब उस तरफ ध्यान जाएगा, दुनिया का ध्यान जाने वाला है। जैसे नेमाड़े जी कह रहे हैं न कि इस back to basic की क्या ताकत है, कभी न कभी जाने वाला है और तब मानव जाति को संकटों से बचाने के रास्ते क्या हो सकते हैं, मानव को मानव के प्रति देखने का तरीका क्या हो सकता है, वो सीधा-सीधा समझ आता है और तब जाकर के छद्म जीवन की जरूरत नहीं पड़ती है, छद्मता का आश्रय लेने की जरूरत नहीं पड़ती है, भीतर से ही एक ताकत निकलती है, जो जोड़ती है।
Neil Armstrong चंद्रमा पर गए थे, वैज्ञानिक थे, technology, space science ये ही जीवन का एक प्रकार से जब जवानी के दिन शुरू हुए, वो space में खो गए, अपने-आप को उसमें समर्पित कर दिया और जब वो वापिस आते थे तो उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है, मैं समझता हूं कि वो अपने-आप में एक बहुत बड़ा संदेश है। उन्होंने लिखा, मैं गया जब तब मैं astronaut था लेकिन जब मैं आया तो मैं इंसान बन गया। देखिए जीवन में कहां से, कौन-सी चीज निकलती है और यही तो सामर्थ्य होता है। नेमाड़े जी ने अपने कलम के माध्यम से, अपने भाव जगत को आने वाली पीढ़ियों के लिए अक्षर-देह दिया हुआ है। ये अक्षर-देह आने वाली पीढ़ियों में उपकारक होगा, ऐसा मुझे पूरा विश्वास है लेकिन एक चिंता भी सता रही है।
हमारे यहां किताबें छपती हैं, बहुत कम बिकती हैं मैं जब, मराठी साहित्य का क्या हाल है, मुझे पूरी जानकारी नहीं है लेकिन गुजराती में तो ज्यादातर 1250 किताबें छपती हैं, 2250 तो मैं कभी पूछता था कि 2250 क्यों छाप रहे हो, तो बोले paper जो कभी cutting होता है, तो फिर wastage नहीं जाता है, इतने में से ही निकल जाती है। Publisher के दिमाग में paper रहता है, लेखक के दिमाग में युग रहता है, इतना अंतर है और वो भी बिकते-बिकते दस, बारह, पंद्रह साल बीत जाते हैं, उसमें भी आधी तो शायद library में जाती होगी तब जाकर के मेल बैठ जाता है।
मुझे कभी-कभी लगता है कि हम बढ़िया सा मकान जब बनाते हैं, कभी किसी architecture से बात हुआ क्या? उनको ये तो कहा होगा कि bathroom कैसा हो? उसे ये भी कहा होगा कि drawing room कैसा हो? लेकिन कितने लोग होंगे जिन्होंने करोड़ो- अरबों रुपए खर्च करके बंगला बनाते होंगे और ये भी कहा होगा कि एक कमरा, अच्छी library भी हो और कितने architecture होंगे, जिन्होंने ये कहा होगा कि भले ही कम जगह हो लेकिन एक कोना तो किताब रखने के लिए रखिए। हम आदत क्यों न डालें, हम आदत क्यों न डालें? घर में पूजा अगर होगी, जूते रखने के लिए अलग जगह होगी, सब होगा लेकिन किताब के लिए अलग जगह नहीं होगी। मैं lawyers की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि उनको तो उसी का सहारा है। लेकिन सामान्य रूप से, दूसरा एक जमाने में student को भी guide मिल जाती थी, तो text book क्यों पढ़े ? Guide से चल जाती थी गाड़ी, अब तो वो भी चिंता का विषय नहीं है, पूरी पीढ़ी Google गुरू की शिष्य है। एक शब्द डाल दिया Google गुरू को पूछ लिया, गुरूजी ढूंढकर के ले आते हैं, सारा ब्राहमांड खोज मारते हैं और इसके कारण अध्य्यन ये सिर्फ प्रवृति नहीं अध्य्यन ये वृत्ति बनना चाहिए। जब तक वो हमारा DNA नहीं बनता तब तक हम नएपन से जुड़ ही नहीं सकते, व्यापकता से जुड़ नहीं सकते, हम आने वाले कल को पहचान नहीं सकते हैं।
मैं गुजरात में जब मुख्यमंत्री था, तो मैंने गुजरात का जब Golden jubilee मनाया तो Golden jubilee year में मैंने एक कार्यक्रम दिया था, गुजराती में उसे कहते हैं “वांचे गुजरात” यानी गुजरात पढ़े और बड़ा अभियान चलाया, मैं खुद library में जाकर के पढ़ता था ताकि लोग देखें कि किताब पढ़नी चाहिए और माहौल ऐसा बना कि library की library खाली होने लगी। पहली बार library खाली हुई होगी? वो सौभाग्य कहां है जी? Library में कई पुस्तक ऐसी होंगी, जिसकी 20-20 साल तक किसी ने हाथ तक नहीं लगाया होगा? ये स्थिति भी बदलनी चाहिए। बालक मन को अगर घर में आदत डालें क्योंकि ये एक ज्ञान का भंडार भी तो जीवन जीने के लिए बहुत बड़ी ताकत होती है और इसलिए हम लोगों का प्रयास रहना चाहिए समाज-जीवन में एक आदत बननी चाहिए।
भले हम technology से जुड़ें, Google गुरू के सहारे गुजारा कर लें, फिर भी मूलतः चीजों को और एक बार पढ़ने की आदत शुरू करेंगे न तो फिर मन लगता है। अगला पढ़ा, इसको पढ़ें, उसको पढ़ें, मन लगता है और लेखक बनने के लिए पढ़ने की जरूरत नहीं होती है, कभी-कभी अपने-आप के लिए भी दर्पण की जरूरत होती है और जिस दर्पण में चेहरा दिखता है। अगर किताब वाली दर्पण को देखें तो भीतर का इंसान नजर आता है और उस रूप में किताब वाली दर्पण और मैं मानता हूं नेमाड़े जी, उस दर्पण का काम करना है कि जो हमारे मूल जगत से हटने का क्या परिणाम होते हैं और हम विश्व के साथ जो सोच रहे हैं, हम कहां खड़े हैं? अपने आप को ठीक पाते हैं कि नहीं पाते? उसका दर्शन करा देते हैं और इसलिए मैं आज ज्ञानपीठ पुरस्कार, वैसे मैंने देखा जब नेमाड़े जी को सरस्वती देवी जी की मूर्ति मिली तो प्रसन्न दिखते थे, शॉल मिली प्रसन्न दिखते थे, नारियल मिला प्रसन्न दिखते थे, लेकिन 11 लाख का चैक आया तो वो uncomfortable थे क्यों? क्योंकि हमारे देश में सरस्वती और लक्ष्मी के मिलन की कल्पना ही नहीं है। देश को आगे बढ़ना है तो सरस्वती और लक्ष्मी का भी मिलन आवश्यक है। ईश्वर नेमाड़ें जी को बुहत शक्ति दे। अपार संपदा अभी भी बहुत भीतर पड़ी होगी। अभी तो बहुत कम निकला होगा, इतना विपुल मात्रा में है, हमें परोसते रहें, परोसते रहें ताकि आने वाली पीढ़ियां भी पुलकित हो जाएं।
मैं उनका बहुत-बहुत अभिनंदन करता हूं, हृदय से आदर करता हूं और ये जिम्मेवारी बहुत बड़ी होती है, जिस काम को नामवर सिंह जी ने निभाया है। मैं उनका भी अभिनंदन करता हूं और जैन परिवार ने 50 साल तक लगातार इस परंपरा को उत्तम तरीके से निभाया है, पुरस्कृत किया है, प्रोत्साहित किया है, उस परिवार को भी बहुत-बहुत बधाई देता हूं।
बहुत-बहुत धन्यवाद।