विशाल संख्या में पधारे हुए माताएं, बहनें, भाइयो और नौजवान मित्रों।
आज 8 मार्च, पूरा विश्व 100 साल से भी अधिक समय से अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में इससे जुड़ा हुआ है। लेकिन आज पूरा हिन्दुस्तान झुंझुनु के साथ जुड़ गया है। देश के हर कोने में टेक्नोलॉजी की मदद से ये झुंझुंनु का भव्य दृश्य पूरे देश के कोने-कोने में पहुंच रहा है।
मैं झुंझुनु ऐसे ही नहीं आया हूं, सोच-विचार करके आया हूं; और आया क्या आपने मुझे खींच लिया है। आपने मुझे आने के लिए मजबूर कर दिया है। और मजबूरी इस बात की थी कि आपने- बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ- इस अभियान को इस जिले ने जिस शानदार तरीके से आगे बढ़ाया, यहां के हर परिवार ने एक बहुत बड़ा उम्दा काम किया, तो स्वाभाविक मेरा मन कर गया कि चलो झुंझुनु की मिट्टी को माथे पर चढ़ा के आ जाते हैं।
अभी वसुंधरा जी वर्णन कर रही थीं कि कैसे ये वीरों की भूमि है, इस भूमि की क्या ताकत रही है, और इसलिए चाहे समाज सेवा का काम हो, चाहे शिक्षा का काम हो, चाहे दान-पुण्य का काम हो, चाहे देश के लिए मर-मिटने की बात हो; ये जिले ने ये सिद्ध कर दिया है- युद्ध हो या अकाल हो, झुंझुनु झुकना नहीं जानता, झुंझुनु जूझना जानता है। और इसलिए झुंझुनु की धरती से आज जिस कार्य को आगे बढ़ाया जा रहा है, देश को झुंझुनु से भी प्रेरणा मिलेगी, देश को यहां से भी एक नई ताकत मिलेगी।
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ- अगर सफलता मिलती है तो मन को एक संतोष होता है, लगता है कि चलो भाई कुछ स्थिति में सुधार आया। लेकिन कभी-कभी मन को बहुत बड़ी पीड़ा होती है। पीड़ा इस बात की होती है कि जिस देश की महान संस्कृति, जिस देश की महान परम्पराएं, शास्त्रों में उत्तम से उत्तम बातें, वेद से विवेकानंद तक- सही दिशा में प्रबोधन, लेकिन क्या कारण है वो कौन सी बुराई घर कर गई कि आज हमें अपने ही घर में बेटी बचाने के लिए हाथ-पैर जोड़ने पड़ रहे हैं, समझाना पड़ रहा है; उसके लिए बजट से धन खर्च करना पड़ रहा है।
मैं समझता हूं किसी भी समाज के लिए इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं हो सकती। और कई दशकों से एक विकृत मानसिकता के कारण, एक गलत सोच के कारण, सामाजिक बुराइयों के कारण हमने बेटियों को ही बलि चढ़ाने का रास्ता चुन लिया। जब ये सुनते हैं कि हजार बेटों के सामने कहीं 800 बच्चियां हैं, 850 बच्चियां हैं, कहीं 900 बच्चियां हैं- ये समाज की क्या दुर्दशा होगी, कल्पना कर सकते हैं। स्त्री और पुरुष की समानता से ही ये समाज का चक्र चलता है, समाज की गतिविधि बढ़ती है।
कई दशकों से बेटियों को नकारते रहे, नकारते रहे; मारते रहे। उसी का नतीजा है कि समाज में एक असंतुलन पैदा हुआ। मैं जानता हूं एकाध पीढ़ी में ये सुधार नहीं होता है। चार-चार, पांच-पांच पीढ़ियों की बुराइयां आज इकट्ठा हुई हैं। पुराना जो घाटा है, वो घाटा दूर करने में समय लगेगा, वो हर कोई समझता है। लेकिन अब तो हम तय करें कि जितने बेटे पैदा होंगे उतनी ही बेटियां भी पैदा होंगी। जितने बेटे पलेंगे उतने ही बेटियां पलेंगी। बेटा-बेटी, दोनों एक समान; इस भाव को ले करके अगर चलेंगे तो चार-पांच-छह पीढ़ी में बुरा हुआ है, वो शायद हम दो या तीन पीढ़ी में ठीक कर सकते हैं। लेकिन उसकी पहली शर्त है- अभी जो बच्चे पैदा होंगे, उसमें कोई असंतुलन नहीं होना चाहिए।
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और मुझे खुशी की बात है कि आज जिन जिलों को सम्मानित करने का अवसर मिला, उन पहले दस जिलों ने इस काम को बखूबी निभाया है। ये जो नए जन्म लेने वाले बच्चे हैं, उसमें वो बेटों की बराबरी में बेटियों को लाने में सफल हुए हैं। आज जिनको सम्मान करने का अवसर मिला उन जिलों को, उस राज्य को, उस टीम को मैं बधाई देता हूं। उन्होंने इस पवित्र कार्य को अपने जिम्मे लिया।
और मैं और भी देश के सभी अधिकारियों से, सरकार के सभी हमारे साथियों से, मैं राज्य सरकारों से भी अनुरोध करूंगा कि इसे जन-आंदोलन बनाना होगा। जब तक एक-एक परिवार जुड़ता नहीं है और जब तक Mother-in-law-सास उसका नेतृत्व नहीं संभालती है, इस काम को समय ज्यादा लगेगा। लेकिन अगर Mother-in-law इसको संभाल लेती हैं कि बेटी चाहिए और एक बार साफ कह दें कि घर में बेटी चाहिए, किसी की ताकत नहीं है कि वो बेटी के साथ कोई अन्याय कर सके। और इसलिए हमें एक सामाजिक आंदोलन खड़ा करना पडेगा, हमें जन-आंदोलन खड़ा करना पड़ेगा।
भारत सरकार ने दो वर्ष पूर्व हरियाणा- जहां पर अनुपात बहुत ही चिंताजनक था, उस चुनौती को स्वीकार करते हुए हरियाणा में कार्यक्रम किया। हरियाणा की धरती पर जा करके ये बात बताना कठिन था। मेरे अफसरों ने मुझे सुझाव दिया था कि साहब वहां तो हालत इतनी खराब हो चुकी है कि वहां जाएंगे तो और नया ही कुछ गलत हो जाएगा। मैंने कहा जहां सबसे ज्यादा तकलीफ है वहीं से शुरू करूंगा। और आज मैं हरियाणा को बधाई देता हूं, उन्होंने पिछले दो साल में परिस्थितियों में इतनी तेजी से सुधार किया है।
जन्म के समय बेटियों की संख्या में जो बढ़ोत्तरी हुई है वो अपने आप में एक नया विश्वास एक नई आशा पैदा करता है। और ये जो पिछले दो साल का अनुभव है, उसमें जो सफलता मिली है, उसे ध्यान में रख करके आज 8 मार्च, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर भारत सरकार ने अब वो योजना 160-161 districts तक ही नहीं, हिन्दुस्तान के सभी districts के साथ अब इस योजना को लागू किया जा रहा है। उसके लिए- वहां स्थिति अच्छी भी होगी, ज्यादा अच्छी कैसे हो, उसके लिए भी काम किया जाएगा।
हमें अपने-आप को पूछना पड़ेगा। ये जो पुरानी सोच रही है कि बेटी कभी-कभी लगता है बोझ होती है। आज अनुभव कहता है, हर घटनाएं बताती हैं; बेटी बोझ नहीं, बेटी ही तो पूरे परिवार की आन-बान-शान है।
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हिन्दुस्तान में देखिए आप- जब सेटेलाइट, आसमान में हम जाते हैं, सुनते हैं कि आज सेटेलाइट गया, मंगलायन हुआ, ढिकना हुआ; और जब देखते हैं तो पता चलता है कि मेरे देश की तीन महिला साइंटिस्टों ने space technology में इतनी बड़ी सिद्धि प्राप्त की है, तब पता चलता है कि बेटियों की ताकत क्या होती है। जब झुंझुंनू की ही एक बेटी फाइटर जहाज चलती है तो लगता है, हां बेटियों की ताकत क्या होती है। ओलिम्पक में जब गोल्ड मैडल ले करके कोई आते हैं, मैडल ले करके आते हैं और पता चलता है कि लाने वाली बेटियां हैं तो पूरे देश का सीना गर्व से भर जाता है कि हमारी बेटियां दुनिया में नाम रोशन कर रही हैं।
और जो लोग ये मानते हैं कि बेटा है तो बुढ़ापे में काम आएगा, स्थिति कुछ अलग ही है। मैंने ऐसे परिवार देखे हैं, जहां बूढ़े मां-बाप हों, चार-चार बेटे हों, बेटों को अपने बंगले हों, गाड़ियों की भरमार हो, लेकिन बाप और मां अनाथाश्रम में बुढ़ावा बिताते हों, ऐसे परिवार हमने देखे हैं; और वैसे भी परिवार देखे हैं कि बेटी, बूढ़े मां-बाप की इकलौती बेटी, मां-बाप को बुढ़ापे में तकलीफ न हो, इसलिए रोजगार करती है, धंधा-रोजगार करती है, नौकरी जाती है, मेहनत करती है, शादी तक नहीं करती है; ताकि बुढ़ापे में मां-बाप को तकलीफ न होऔर मां-बाप के लिए अपनी जिंदगी न्यौच्छावर करती है।
और इसलिए समाज में जो सोच बनी है, ये जो विकृति घर कर गई है, उस विकृति से हमें बाहर आना है। और इसको एक सामाजिक आंदोलन, ये हम सबकी जिम्मेदारी है। सफलता-विफलता को कोइ सरकार को दोष दे दे, ठीक है वो काम करने वाले करते रहें; लेकिन इसकी सफलता का आधार, हर परिवार का संकल्प ही सफलता का कारण बन सकता है, और इसलिए जब तक बेटा-बेटी एक समान, बेटी के लिए गर्व का भाव, ये हमारे जेहन में नहीं होगा; तब तक मां की गोद में ही बेटियों को मार दिया जाएगा।
18वीं शताब्दी में बेटी को दूध-पीती करने की परम्परा थी। एक बड़े बर्तन में दूध भर करके बेटी को डुबो दिया जाता था। लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है हम 21वीं सदी में होने के बावजूद भी उन 18वीं शताब्दी के लोगों से भी कभी-कभी बुरे लगते हैं। क्योंकि 18वीं शताब्दी में कम से कम उस बेटी को जन्म दिए जाने का हक रहता था, उसको अपनी मां का चेहरा देखने का सौभाग्य मिलता था, उस मां को अपनी बेटी का चेहरा देखने का सौभाग्य मिलता था, इस पृथ्वीपर उसको कुछ पल के लिए क्यों न हो- सांस लेने का अवसर मिलता था और बाद में वो महापाप कर-करके समाज की सबसे बड़ी बुराई वाला काम कर दिया जाता था।
लेकिन आज-आज तो उससे भी ज्यादा बुरा करते हैं कि मां के पेट में ही, न मां ने बेटी का मुंह देखा है न बेटी ने मां का देखा है- आधुनिक विज्ञान की मदद से मां के पेट में ही बच्ची को मार दिया जाता है। मैं समझता हूं इसस बड़ा बुरा कोई पाप नहीं होगा। जब तक हम मानेंगे नहीं कि बेटी हमारी आन-बान-शान है, तब तक ये बुराइयों का दिमाग से निकलेगा नहीं।
आज मुझे यहां जिनके परिवार में बेटी पैदा हुई है, उन माताओं से उन बच्चियों से मिलने का सौभाग्य मिला। उनके चेहरे पर इतनी खुशी थी। मैंने उनको पूछा कि क्या आपको पता है, आपको किसी ने बताया कि आज जब पैदा हुई थीं तब मिठाई बांटी गई थी? उन्होंने कहा वो तो मालूम नहीं है, लेकिन हमने बेटी पैदा हुई तो पूरे मोहल्ले में मिठाई बांटी थी और एक जश्न मनाया था।
हमें ये स्थिति बदलनी है और ये बदलने की दिशा में कई महत्वपूर्ण काम जो सरकार द्वारा हो रहे हैं, उसी के तहत आज इस योजना को पूरे देश में हम विस्तार कर रहे हैं।
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दूसरा- आज कार्यक्रम एक लॉन्च हो रहा है-पोषण मिशन का, राष्ट्रीय पोषण मिशन। अब किसी को भी पीएम को गाली देनी है, पीएम की आलोचना करनी है, पीएम की बुराई करनी है तो मेरी उनको प्रार्थना है कि जितनी बार आप पीएम की बुराई करें, पीएम की आलोचना करें, अच्छाकहें, बुरा कहें, भला करें न करें, लेकिन जब भी पीएम बोले, मन में पीएम आए; तो आपको नरेन्द्र मोदी नहीं दिखना चाहिए, आपको पीएम सुनते ही पोषण मिशन दिखना चाहिए। देखिए कैसे एक दम से घर-घर फैल जाता है़।
और हमारे यहां बेटा हो या बेटी- उसका शरीर का जो विकास होना चाहिए, वो रुक जाता है। कभी जन्म के समय ही बहुत कम वजन का बच्चा पैदा होता है और उसमें भी अज्ञानता बहुत बड़ा रोल करती है। हमें इस समस्या से बाहर निकलना है। और फिर भी मैं कहता हूं ये सिर्फ सरकारी बजट से होने वाले काम नहीं हैं। ये तब होता है जब जन-आंदोलन बनता है। लोगों को शिक्षित किया जाता है, समझाया जाता है, उसके महात्मय की ओर देखा जाता है।
कुपोषण के खिलाफ पहले काम नहीं हुए, ऐसा नहीं है। हर सरकार में कोई न कोई योजनाएं बनी हैं। लेकिन देखा ये गया है कि ज्यादातर हम लोगों को लगता है कि अगर जितना कैलोरी चाहिए, उतना अगर उसके पेट में जाएगा तो फिर कुपोषण से मुक्ति हो जाएगी। लेकिन अनुभव कहता है कि सिर्फ खाना ठीक हो जाए, इतने से समस्या का समाधान नहीं होगा। ये पूरा eco system correctकरना पड़ता है। खाना अच्छा भी मिल जाए लेकिन अगर वहां पानी खराब है, कितना ही खाते जाओ- वो कुपोषण की स्थिति में फर्क नहीं आता है।
बहुत कम लोगों को मालूम होगा बाल-विवाह-Child Marriage- ये भी कुपोषित बच्चों के लिए एक बहुत बड़ा कारण सामने आया है। छोटी आयु में शादी हो जाना, बच्चे हो जाना- न मां के शरीर का विकास हुआ है, न आने वाले बच्चे के शरीर पर कोई भरोसा कर सकता है। और इसलिए सब-जीवन से जुड़े जितने पहलू हैं- अगर बीमार हैं तोसमय पर दवाई, जन्म के तुरंत बाद मां का दूध पीने का सौभाग्य,otherwise हमारे यहां तो पूरी मान्यता रही है, पुराने लोग तो कहते हैं-नहीं, नहीं जन्म के तुरंत बाद मां का दूध मत पिलाओ; गलत है, सच पूछो वो गलती है। जन्म के तुरंत बाद अगर मां का दूध बच्चे को अगर मिलता है तो पोषण के समय में बड़ा होने के समय मुसीबतें कम से कम आती हैं। मां के दूध की ये ताकत होती है, लेकिन हम उसको भी नकार देते हैं।
इसलिए मां को उसके पूर्ण रूप में, जब उसको स्वीकार करते हैं, उसकी पूजा करते हैं, उसके महात्मय को समझते है; तो मां- अगर उसकी हम रखवाली करेंगे, तो उसकी गोद से होने वाले बच्चे भी कुपोषण से मुक्त होंगे।
Nutrition की चिंता करना एक काम है। कभी-कभी सरकार के द्वाराvaccination के कई कार्यक्रम चलते हैं। लेकिन हम उस हेल्थ सेंटर की जितनी सेवाएं हैं- उपलब्ध हैं, बजट है, अफसर है, लोग हैं- लेकिन हम वहां तक जाते नहीं हैं। और उसी का परिणाम है कि वो कोई न कोई बीमारी का शिकार हो जाता है।
आपने अभी जो फिल्म दिखाई- उसमें बताया सिर्फ हाथ धोए बिना खाना, एक अनुमान है कि जो बच्चे मरते हैं- उसमें हाथ न धो करके खाने की आदत, शरीर में जो बीमारियां जाती हैं, उसमें मरने वालों में से 30-40 प्रतिशत होते हैं। अब ये आदत कौन डालेगा कि बच्चों को मां खिलाती है तो मां का भी हाथ धोना होना चाहिए और बच्चा खुद मुंह में कुछ डालता है तो उसका भी हाथ धोया होना चाहिए, ये कौन सिखाएगा?
ये काम हमारे उज्ज्वल भविष्य के लिए, हमारे बच्चों की जिंदगी सुधारना, ये हम सबका दायित्व है। और उसी के तहत इस योजना को एकmission mode में, और बिखरी हुई सारी योजनाओं को एक साथ जोड़ करके- चाहे -पानी की समस्या हो या दवाइयों की समस्या हो, चाहे परम्परा की कठिनाइयां हैं। अब बच्चे हैं, हमने देखा होगा कि जो स्कूल में जाते हैं- एक आयु के बाद बच्चों के मन में एकinfirmitycomplexपैदा होता है, किस बात का? अगर उस स्कूल में पांच बच्चों की ऊंचाई ज्यादा है और बाकी नाटे कद के बच्चे हैं, उन सबको लगता है कि मेरी ऊंचाई भी ऐसी होनी चाहिए। फिर वो पेड़ पर कहीं इधर-उधर लटक कर सोचता है कि मेरी ऊंचाई बढ़ी- आप में से सबने ये प्रयोग किया होगा। हर किस को लगता है यार मेरी ऊंचाई बढ़नी चाहिए। लेकिन हम वैज्ञानिक तरीकों से इन चीजों पर काम नहीं करते।
आज हमारे देश में उम्र के हिसाब से ऊंचाई होनी चाहिए, उसमें काफी कमी नजर आती है। हमारे बच्चे तंदुरूस्त हों, वजन हो, ऊंचाई हो, इन सारे विषयों पर ध्यान दे करके एक holistic approach के साथ 2022, जब हमारी आजादी के 75 साल होंगे, तब देश में पोषण के क्षेत्र में हम गर्व के साथ कह सकें दुनिया के सामने कि हमने achieve कर दिया है और हम अपने बच्चों को देखें, उनको देखते ही हमारा दिन पूरा इतना बढ़िया चला जाए, ऐसे हंसते-खेलते बच्चेहर पल नजर आएं, जहां जाएं वहां नजर आएं; ये स्थिति हमें पैदा करनी है।
करीब 9 हजार करोड़ रुपये की लागत से इस योजना को आगे बढ़ाया जाएगा। और निश्चित मानकों के साथ आशा वर्कर हो, village level के volunteers हों, उनके पास टेक्नोलॉजी की मदद रहेगी, regular base पर वो अपना datacollect करेंगे। उसमें कोई उतार-चढ़ाव आता है तो तुरंत ऊपर से intervention होगा। समस्या का समाधान कैसे हो- इन सारी बातों की ओर देखा जाएगा। कभी आठ महीने तक बच्चे का ग्रोथ ठीक हो रहा है, वजन बराबर चल रहा है; बारिश का मौसम आ गया- अचानक बीमारियों का दौर चल पड़ा। एकदम से सैंकड़ों बच्चों की हालत खराब हो जाती है, आपकी आठ महीने की मेहनत एक महीने में नीचे आ जाती है। तो ये एक बड़ा ही challenging काम होता है, लेकिन इस challenging काम को भी हमें पूरा करना है। और मुझे विश्वास है कि हम लोगों ने जो संकल्प किया है, उस संकल्प के द्वारा पूरा होगा।
मिशन इंद्रधनुष के द्वारा टीकाकरण के काम में तेजी आई है और हमारी कोशिश है कि वर्ष के अंत तक 90 प्रतिशत टीकाकरण के काम को हम achieve कर लें।
प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना के तहत 6000 रुपये की आर्थिक मदद उन माताओं को दे करके उनकी pregnancy के समय उनकी चिंता की जाए, उसके लिए भी सरकार ने और करीब 23 लाख महिलाएं स्वच्छ भारत अभियान के साथ जुड़ करके.... जो लोग वहां हैं, नीचे वाले जो डंडे हैं उनको पकड़ लें, आंधी जरा तेज है, हर कोई उसको पकड़ ले।
उसी प्रकार से घर में लकड़ी का चूल्हा जला करके घर में मां एक दिन में 400 सिगरेट का धुंआ अपने फेफड़ों में ले जाती थी। हमने उससे मुक्ति दिलाने के लिए प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत मुफ्त में गैस के कनेक्शन पहुंचाने का काम आरंभ किया है। और मुफ्त में गैस के कनेक्शन पहुंचाने के कारण आज करीब-करीब साढ़े तीन करोड़ परिवारों को उससे मुक्त कराने का काम किया है। आने वाले दिनों में भी विकास की इस यात्रा को आगे बढ़ाते हुए, आज जिन योजनाओं का आरंभ हुआ है उसको और तेजी से आगे बढ़ाते हुए हमने हमारे देश को तंदुरूस्त बनाना है। हमारे बच्चे अगर सशक्त हो गए तो हमारे देश का भविष्य भी सशक्त होगा।
इसी संकल्प के साथ आप सब इस जन-आंदोलन में जुड़िए। मैं देशवासियों को आह्वान करता हूं। ये मानवता का काम है, ये आने वाली पीढ़ी का काम है, ये भारत के भविष्य का काम है, आप सब हमारे साथ जुड़िए।
पूरी ताकत से मेरे साथ बोलिए-
भारत माता की – जय
भारत माता की – जय
भारत माता की – जय
बहुत-बहुत धन्यवाद।