The first thing we remember about Deendayal ji was his simplicity: PM Modi
In a short span of time, 1 party completed the journey from 'Vipaksh' to 'Vikalp' & this was due to foundations laid by Deendayal Ji: PM
Organisation based political parties is a contribution of Deendayal Ji: PM Modi
Deendayal Ji gave impetus to 'Karyakarta Nirman.’ The Karyakarta inspired by him are party centric and the party is nation centric: PM

परम आदरणीय भैया जी जोशी, श्री अमित शाह, डॉ महेश चंद्र शर्मा, श्री राम बहादुर राय, श्रीमान जवाहर लाल कौल, श्रीमान अच्युतानंद मिश्र जी, प्रभात जी, अतुल जी और उपस्थित सभी वरिष्ठ महानुभाव, भाईयों और बहनों... पूरा देश नवरात्रि का त्यौहार शक्ति पर्व के रूप में मना रहा है। विचार अपने आप में एक बहुत बड़ी शक्ति होता है और उस विचार यात्रा का संपुट आज हमें प्रसाद के रूप में मिला है। मैं आप सबका हृदय से बहुत आभारी हूं इस प्रसाद के लिए। हम आने वाले दिनों में विजयादशमी मनाने वाले हैं, ये विजयादशमी देश के लिए बहुत ख़ास है। विजयादशमी के लिए मेरी सभी देश वासियों के लिए बहुत-बहुत शुभ कामनाएं हैं। आज हम... सबसे पहले तो मैं महेश जी को बहुत बधाई देना चाहता हूं, उनकी टीम को बधाई देना चाहता हूं। सामान्य रूप से सार्वजनिक जीवन में कोई व्यक्ति हो तो उनके विषय में कुछ लिखना सरल होता है क्योंकि चीज़ें उपलब्ध होती हैं। लेकिन ऐसा व्यक्ति...जिसका जीवन सार्वजनिक रहा हो, लेकिन ट्रेन के डिब्बे में बगल में बैठा हुआ भी पहचानता नहीं था कि ये इंसान कौन है। ऐसा स्वयं को पूर्णतया समर्पित जीवन जीना जिसने अपनी कोई पहचान कहीं छोड़नी नहीं... इस भूमिका से जीना और ऐसे व्यक्ति के संबंध में तीस साल तक लगातार उनके हर साथी से पूछते-पूछते कि भैया कुछ तो बताओ तुम भी तो दीन दयाल जी के साथ थे, कैसे थे, क्या करते थे, क्या बोलते थे, कहीं लिखा हुआ है क्या, चिट्ठी है क्या? मैं मानता हूं एक बड़ा भगीरथ काम किया है आप लोगों ने, भगीरथ काम किया है। और इसलिए और जब ये पंद्रह खंड और जीवन का कालखंड बड़ा नहीं था। बहुत छोटा था पचास साल के आयु का... लेकिन इतने छोटे से कालखंड में हमें इतना बड़ा वैचारिक अधिष्ठान देकर के दीनदयाल जी गये, ये पंद्रह ग्रंथ एक प्रकार से पंडित जी की जीवन यात्रा, पंडित जी की विचार यात्रा, और पंडित जी की संकल्प यात्रा की त्रिवेणी है। और आज का ये पल इस त्रिवेणी यात्रा को चरणामृत लेने का पर्व है, ये अवसर है। पंडित जी के जीवन में सादगी...मैं समझता हूं कि कोई भी पंडित की बात करेगा तो सबसे पहले सादगी की छवि उभर कर के आती है। मुझे तो पंडित जी के दर्शन करने का सौभाग्य नहीं मिला। जब उनकी हत्या हुई तो अख़बार के हेडलाइन पर थी। हम स्कूल में पढ़ते थे उस समय पहली बार ध्यान गया था इस महापुरुष की तरफ। लेकिन यहां बहुत लोग बैठे हैं जिनको पंडित जी को निकट से देखने का, सुनने का, बात करने का साथ में काम करने का सौभाग्य मिला है। अब कल्पना कर सकता है कोई, इतने कम समय में, राजनीतिक जीवन में एक राजनीतिक विचार, एक राजनीतिक व्यवस्था, एक राजनीतिक दल, विपक्ष से लेकर विकल्प तक की यात्रा को पार का ले। ये छोटी सिद्धी नहीं है। और ये विपक्ष से विकल्प तक की यात्रा संभव इसलिए बनी है कि पंडित जी ने जिस विचार ब्रिज से फाउंडेशन तैयार किया था जो नींव डाली थी उसी का परिपाक है कि आज विपक्ष से यात्रा विकल्प तक हम विश्व के सामने प्रस्तुत कर पाए। हमारे देश में राजनीतिक दलों के रूप-रंग भली-भांति हम जानते हैं।

लेकिन ये पंडित जी का एक बहुत बड़ा योगदान रहा है कि उन्होंने...संगठन आधारित राजनीतिक दल का एक पर्याय देश में खड़ा किया है। कुछ ही मुठ्ठी भर लोगों के द्वारा चलने वाला दल नहीं, संगठन के आधार पर चलने वाला राजनीतिक दल और भारत में भारतीय जनसंघ से लेकर के भारतीय जनता पार्टी तक संगठन आधारित राजनीतिक दल...ये उसकी अपनी अलग पहचान देता है। और उसका श्रेय उस समय के मनिषी जिन्होंने इस संरचना को आगे बढ़ाया उसमें प्रमुख भूमिका पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की रही। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को तो देश और दुनिया जानती थी, उनके व्यक्तित्व से परिचित थी, पंडित नेहरू के मंत्रिपरिषद में वे अपनी अहम भूमिका निभा रहे थे लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी कहते थे, दीनदयाल जी को अपने साथ पा करके कि...अगर मेरे पास एक और दीनदयाल (दो दीनदयाल) हों तो मैं हिन्दुस्तान की राजनीति का चरित्र बदल सकता हूं। इस देश में कांग्रेस का शासन ही रहेगा.. कांग्रेस ही चलेगी यहि एक माहौल था...पंडित नेहरू थे तो तब तक तो कोई अलग विचार भी नहीं आता था और आता था तो इतना आता था कि नेहरू के बाद कौन। यही विचार चलता था देश में...नेहरू के बाद क्या...ये विचार नहीं चलता था, नेहरू के बाद कौन यही विचार चलता था देश में। उस समय हम छोटे थे, अखबारों में पढ़ते थे यही आता था कि नेहरू के बाद कौन। हिन्दुस्तान में बाईलाइन कोई राजनीतिक दल पनपे ही नहीं थे। पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक एक ही राजनीतिक दल की व्यवस्था थी। अचानक 62 से 67 के बीच एक ऐसा वैक्यूम क्रिएट होने लगा कि देश के सामने सवाल खड़ा हुआ था कि इस वैक्यूम को कौन भरेगा। कांग्रेस बहुत तेज गति से अपनी स्थिति में गिरावट अनुभव कर रही थी, अन्य राजनीतिक दलों का समूह अभी खड़ा नहीं हुआ था, एक ऑल्टरनेट तो था ही नहीं, एक बहुत बड़े वैक्यूम का वो कालखंड था। पंडित जी के राजनीतिक कौशल्य को समझने के लिए 62 से 67 का जो कालखंड है वो भली-भांति बहुत बड़ा मूल्य रखता है। क्योंकि राममनोहर लोहिया जी ने कहा था...राममनोहर लोहिया जी ने कहा था कि जब 67 में कई राज्यों में कांग्रेस ने अपना शासन खोया, जनता कांग्रेस के खिलाफ जो मिले उसे पसंद करना चाहती थी। उस समय लोहिया जी ने कहा है कि ये दीनदयाल उपाध्याय जी की विशाल दृष्टि का परिणाम था कि राजनीकित दलों का समूह एकत्र आया... संयुक्त विधायक दल बना और एक ऑल्टरनेट गवर्मेंट देने का प्रयास इस देश में हुआ। लोहिया जी कहते हैं कि पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय की ये विशाल दृष्टिकोण का परिणाम था कि देश में ये हुआ। और उसके बाद हम देख रहे हैं कि राजनीतिक मानचित्र पर अनेक दल उभरे लेकिन फिर भी लंबे अरसे तक दलों के समूह एकत्र हो करके ही देश की भलाई के लिए प्रयास करें...ये चलता रहा।

दीनदयाल जी की और एक विशेषता रही है, उन्होंने कार्यकर्ता के निर्माण पर बल दिया। राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक नई श्रेणी तैयार हो। जिसका कोई राजनीतिक गोत्र न हो...ऐसा एक स्वतंत्र चिंतन वाला, राष्ट्रभक्ति से प्रेरित, समाज को समर्पित, कार्यकर्ताओं का समूह, इससे बना हुआ संगठन और उस संगठन से राजनीति जीवन में पदार्पण। और इसलिए उन्होंने पूरी शक्ति...संगठन को वैचारिक अधिष्ठान देने में, कार्यकर्ता के निर्माण में, संगठन के विस्तार में अपने जीवन का अधिकतम कार्यकाल खपा दिया। और इसलिए ये एक ऐसा राजनीतिक दल जिसका कार्यकर्ता... संगठन केन्द्रीय है और जो संगठन राष्ट्र केन्द्रीय है, ऐसी एक व्यवस्था पंडितजी ने देश को दी है। और आज हम देख रहे हैं की जहां भी हम लोगों को कार्य करने का अवसर मिला है, उसका तुलनात्मक अभ्यास कोई भी कर ले, और मैं तो चाहूंगा हिंदुस्तान के जो विश्लेषक वर्ग है, उसने इस देश में पिछले 50 वर्षों में...जितने-जितने राजनैतिक दलों को शासन में आ कर के सेवा करने का मौका मिला है, उनके कार्यकाल का कोई 25-50 प्वाइंट लेकर के एवल्यूशन, हर एक का निश्चित प्वाइंट पर एवल्यूशन हो, एक कंपरेटिव स्टडी आना चाहिए देश में, कि कौन राजनीतिक दल को सत्ता में आने के बाद क्या-क्या होता है और कौन क्या-क्या करता है?

मैं बड़े विश्वास से कह सकता हूँ कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने अपने पसीने से और जीवन का अंतकाल को देखूं तो मैं कहूंगा अपने खून से...जिस दल को सींचा है, जिस विचार को पनपाया है, वो तपस्या आज भी इस कसौटी पर खरी उतरने के लिए सामर्थ्यवान है, ये विश्वास से हम कह सकते हैं।

भारत इतना बड़ा विशाल देश है। कभी-कभी जब परंपरा की बात करते हैं तो कुछ लोगों को बातें बहुत एक सीमित अर्थ में समझ में आती हैं, तब बड़ी गलती हो जाती है। पंडित जी का एक क्वोट मैं पढ़ना चाहता हूं, उससे समझ में आएगा की किस प्रकार से हम लोगों के चिंतन की धारा रही है। उन्होंने एक जगह पर लिखा है “ज्ञान, विज्ञान और संस्कृति सभी क्षेत्रों में अपने जीवन के विकास के लिए जो भी आवश्यक होगा, वह हम स्वीकार करेंगे। हम नवीनता के विरोधी नहीं और न प्राचीनता के नाम पर रूढ़ियाँ और मृत परंपराओं के हम अंध उपासक हैं।” ये हमारी मूलभूत सोच है, हम नित्य-निरंतर नवीन प्रवाह, विचार प्रवाह को स्वीकार करने वाले लोग हैं। राष्ट्र की आवश्यकता के अनुसार, समाज की आवश्यकता के अनुसार, हम अपने आप को ढालने वाले लोग हैं और तभी तो जाकर के इतने कम समय में, विपक्ष से लेकर के विकल्प तक की यात्रा में, हिंदुस्तान के सवा सौ करोड़ देशवासियों का विश्वास जीत पाए।

हमारे देश में पंडितजी के विचार चिंतन में उन बातों का अर्क है, जो वेद से विवेकानंद तक...हम सुनते आये है। जो सुदर्शन चक्रधारी मोहन से लेकर के चरखाधारी मोहन तक सुनते आये हैं...। उन सारे विचारों का अर्क पंडितजी ने आधुनिक सन्दर्भ में प्रस्तुत करके...नई व्यवस्थाएं क्या हों उसके लिए मार्गदर्शन किया है।

और इसलिए उनका आग्रह रहता था कि भारत की जड़ों से जुडी हुई राजनीति ही, भारत की जड़ों से जुडी हुई अर्थनीति ही, भारत के जड़ों से जुडी हुई समाजनीति ही, भारत के भाग्य को बदलने का सर्वाधिक सामर्थ्य रखे हुए है। और दुनिया में कोई भी समाज अपनी जड़ें काट कर के बड़ा हुआ हो ऐसा दुनिया में कोई उदाहरण नहीं है। आवश्यकता के अनुसार अपने मूलभूत सामर्थ्य के बीच नयी चीज़ों को स्वीकारना सरल होता है, लेकिन अगर हम दुर्बल हैं तो कितना ही अच्छा हम लेंगे, शायद पचा नहीं पाएंगे। किसी बीमार व्यक्ति को अच्छा खाना दिया जाये तो वो और बीमार हो जाता है। और इसीलिए सबसे पहली शर्त पर वो बल देते थे की हमें अपने आप को समर्थ बनाना पड़ेगा और जब वो सामर्थ्य की बात करते थे तो साफ़-साफ़ कहते थे कि व्यक्ति प्रतिभा-संपन्न हो, सामर्थ्यशाली हो, परिवार एकरस हो, परिवार सामर्थ्यमय हो। वे कहते थे...समाज समान अधिष्ठान पर विविधताओं से भरा हुआ संकल्पबद्ध होना चाहिए। वे कहते थे राष्ट्र में जो सेना है, वो सेना अत्यंत ही अत्यंत सामर्थ्यवान होनी चाहिए और तब जाकर के राष्ट्र सामर्थ्यवान बनता है। व्यक्ति से लेकर के राष्ट्र तक वे सामर्थ्यवान, बलशाली और बलशाली का मतलब किसी के लिए नहीं, किसी के विपक्ष में नहीं, हम अगर सुबह घंटा भर कोई एक्सरसाइज करता है तो पडोसी को डरने की ज़रूरत नहीं है कि भई वो मेरे लिए कर रहा है वो अपनी एक्सरसाइज अपने स्वास्थ्य के लिए करता है जी। तो हमारा यही रहा है कि भई हमारा देश सामर्थ्यवान होना चाहिए, शक्तिवान होना चाहिए। आज विश्व-स्पर्धा का युग है। कोई एक ज़माना था जब विश्व दो हिस्सों में बंटा हुआ था ये कैंप, वो कैंप, या तो आप यहाँ रहिये या वहां रहिये ज्यादा से ज्यादा आप कह सकते थे कि हम न्यूट्रल हैं। लेकिन मामला तो वही था।

आज विश्व इन्टर-डिपेंडेंट हो गया है। किसी के साथ दस मुद्दों पर विवाद होगा तो चार मुद्दों पर सहमति होगी, चार मुद्दों पर चलते होंगे, दस मुद्दों पर चलने के लिए सोचते होंगे... ये स्थिति है। ऐसे समय में भारत ने अपने मूलभूत चिंतन के आधार पर विश्व की अपेक्षाओं को पूर्ण करने के लिए अपने आप को सामर्थ्यवान बनाना समय की मांग है और उस मांग को पूरा करने के लिए सवा सौ करोड़ देशवासियों ने कर्तव्यबोध के साथ... संकल्प के साथ उसकी परिपूर्ति के लिए प्रयास अविरत रूप से करना अनिवार्य हो गया है। पंडितजी के पूरे चिंतन में गरीब उनके केंद्र-बिंदु में था। वे किसी आर्थिक व्यवस्था में ऊपर से नीचे की तरफ जाने के प्रस्कार नहीं थे, वे हर दिन कहते थे कि अर्थव्यवस्थाओं की रचना नीचे से ऊपर की ओर होनी चाहिए। गाँव, गरीब, किसान, दलित, पीड़ित, शोषित, वंचित हमारी सारी योजनाओं के केंद्र में वही होना चाहिए और उसका कल्याण...यही हमारे केंद्र मंन होना चाहिए और तभी जाकर के हम देश में परिवर्तन ला सकते हैं। ये ठीक है कि ये अंतर्द्वंद चलता रहेगा, जिसको कुछ मिला है उसकी अधिक पाने की आस ज्यादा जगी है, लेकिन जिसको कुछ नहीं मिला है जब तक उसको मिलेगा नहीं, ये मध्यम स्थान पर खड़े हुए लोग जो अधिक पाने की आस करते हैं वहां रुकावट आ जाएगी, ठहराव आ जाएगा। उनको भी आगे जाना है तो नीचे को ऊपर लाना ही पड़ेगा तब जाकर के जो ऊपर हैं वे ज्यादा ऊपर जा पाएँगे और इसलिए हमारे विकास-यात्रा के सारे प्रवाह हमें उस दिशा में ले जाने हैं जहाँ पर हम गरीब को एम्पावर करे, उसका सशक्तिकरण करे और गरीब ही हमारी गरीबी के खिलाफ लड़ाई का एक बहुत बड़ा फौजी बन जाये हम सभी मिलकर गरीबी से मुक्त भारत बनाने की दिशा में काम कर पाएं।

और पंडितजी के जो सपने हैं और जब ये शताब्दी वर्ष है भारत सरकार ने गरीब कल्याण वर्ष के रूप में उसको मनाना तय किया है। और इसके कारण सरकार के सभी विभाग, सरकार के सभी निर्णय इस बात को भूल नहीं सकते अब कि ये गरीब कल्याण वर्ष है, आपके विचार, काम, कार्यक्रम में गरीब कहाँ है, बताओ? पूरी सरकार की सोच बदलने के लिए ये पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की जन्म-शती वर्ष सभी लोगों को गरीब-केन्द्रित योजनाएं बनाने के लिए प्रेरित करने वाला एक शुभ अवसर के रूप में हमने इसको मनाया है। समाज में हर प्रकार का सामर्थ्य पैदा हो, पंडितजी एक सप्त-जाह्नवी की चर्चा करते थे अपनी बातों में और वो कहते थे सप्त गंगा... वो कहते थे भारत के वैभव के लिए सात आदर्श...की वो वकालत करते थे। उन सात आदर्शों में वो कहते थे... एकरसता, कर्मठता, समानता, सम्पन्नता, ज्ञान, सुख और शांति। इन सप्तधाराओं से हम भारत को वैभवी बना सकते हैं। कर्मठता हम छोड़ नहीं सकते। यह देश विविधताओं से भरा हुआ है और यही उसकी खूबसूरती है। हम भाग्यवान हैं कि सौ से ज़्यादा भाषाएं हों, सत्रह सौ से ज़्यादा बोलियां हों... दुनिया का हर सम्प्रदाय यहां मौज़ूद हो... इससे बड़ा गर्व क्या हो सकता है ये इस देश की ये बहुत बड़ी अमानत है और एकरस समाज... यही तो पंडित जी का सपना था, जहां मन-मुटाव न हो, भेद-भाव न हो... शोषण की कल्पना तक न हो। ऐसे समाज की कल्पना लेकर के ही हम सबको अपना राजनीतिक चिंतन और वही राष्ट्र भक्ति है... उसको हमें आगे बढ़ाना होगा।

कोई कल्पना कर सकता है। मैं बहुत छोटा था लेकिन मैंने सुना है गुजरात में... उस समय शायद एक स्वतंत्र पक्ष बना था और पक्ष का तर्क उन्होंने दिया था कि प फॉर ‘पटेल’ और क्ष फॉर ‘क्षत्रिय’...ऐसा करके....और बड़े-बड़े राज परिवार के लोग उसका नेतृत्व करते थे। बसाणी साहेब जैसे बड़े नेता लोग थे तो गुजरात में जनसंघ नाम की एक इकाई चलती थी तो उनके साथ चुनाव समझौते के लिए मीटिंग होती थी... तो पहले तो मीटिंग यानि की कोई पहचानता नहीं था...कि जनसंघ के तो कार्यकर्ताओं का नाम कभी अखबार में नहीं आया...दीवार.. कभी फोटो न छपी हो तो उनको कौन पहचानेगा। लेकिन वो मीटिंग में जाते थे तो उस समय गुजरात में भाई टाटा करके स्वतंत्र पार्टी के नेता थे। तो जनसंघ के लोगों ने कहा कि भई हम चुनाव में आपका साथ देने के लिए तैयार हैं, हमें इतनी सीटें दो... हम लड़ेंगे आपके साथ... तो हंस पड़े उन्होंने जनसंघ के नेताओं के सामने कहा क्या दीवारों पर दीपक पेन्ट करने से चुनाव जीत जाओगे क्या...ऐसा मज़ाक उड़ाया था यानि उस समय हम कुछ नहीं थे... कुछ नहीं थे। लेकिन ये दीनदयाल जी का सामर्थ्य देखिए जब तक विजय का विश्वास न हो और वो एक जमाना था जनसंघ के कार्यकर्ता चुनाव लड़ते थे तो जिसकी जमानत बच जाए उन पैसों से पार्टी करते थे, महफिल बनाते थे।

ये विचार के प्रति प्रतिबद्धता के बिना संभव नहीं है। पर आज के समय में भी एक-आद की यदि जमानत बच जाए तो उन पैसे से सब मिलकर के महफिल बनाएं, अपने विचार के प्रति कितनी अद्भुत श्रद्धा होगी, तब ये मिज़ाज बनता है और इसका मूल कारण था, पंडित जी कहते थे उन्होंने बहुत अच्छा वाक्य कहा था- “विजय का विश्वास है, तपस्या का निश्चय लेकर के चलें।” आज भी पंडित जी के वो शब्द हमारे लिए उतने ही मायने रखते हैं। विजय में विश्वास है लेकिन तपस्या में कमी नहीं आनी चाहिए। पंडित जी ने कहा था चरैइवेति, चरैइवेति, चरैईवेति... चलते रहो... चलते रहो... चलते रहो... ये जो पंडित जी ने हमें सिखाया है ये आज भी उतना ही सार्थक है। उसे लेकर के हमें चलना है। मैं फिर एक बार पंडित जी के श्री चरणों में प्रणाम करते हुए इस महान विचार यात्रा को आगे बढ़ाने के संकल्प के साथ हम सब परिश्रम की पराकाष्ठा करें। मां भारती की सेवा करने का हमें जहां भी जो भी अवसर मिले.. हमारा अपना खुद का सबकुछ इस मां-भारती के गरीब से गरीब के कल्याण के लिए खपा दें। इसी एक संकल्प के द्वारा इस शताब्दी के हम पर्व को मनाएं। मेरी आप सबको शुभकामनाएं। आपके बीच आने का अवसर मिला। मैं आपका बहुत-बहुत आभारी हूं।

धन्यवाद

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