मेरे अटल जी

Published By : Admin | August 17, 2018 | 09:09 IST

अटल जी अब नहीं रहे। मन नहीं मानता। अटल जी, मेरी आंखों के सामने हैं, स्थिर हैं। जो हाथ मेरी पीठ पर धौल जमाते थे, जो स्नेह से, मुस्कराते हुए मुझे अंकवार में भर लेते थे, वे स्थिर हैं। अटल जी की ये स्थिरता मुझे झकझोर रही है, अस्थिर कर रही है। एक जलन सी है आंखों में, कुछ कहना है, बहुत कुछ कहना है लेकिन कह नहीं पा रहा। मैं खुद को बार-बार यकीन दिला रहा हूं कि अटल जी अब नहीं हैं, लेकिन ये विचार आते ही खुद को इस विचार से दूर कर रहा हूं। क्या अटल जी वाकई नहीं हैं? नहीं। मैं उनकी आवाज अपने भीतर गूंजते हुए महसूस कर रहा हूं, कैसे कह दूं, कैसे मान लूं, वे अब नहीं हैं।

वे पंचतत्व हैं। वे आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सबमें व्याप्त हैं, वेअटल हैं, वे अब भी हैं। जब उनसे पहली बार मिला था, उसकी स्मृति ऐसी है जैसे कल की ही बात हो। इतने बड़े नेता, इतने बड़े विद्वान। लगता था जैसे शीशे के उस पार की दुनिया से निकलकर कोई सामने आ गया है। जिसका इतना नाम सुना था, जिसको इतना पढ़ा था, जिससे बिना मिले, इतना कुछ सीखा था, वो मेरे सामने था। जब पहली बार उनके मुंह से मेरा नाम निकला तो लगा, पाने के लिए बस इतना ही बहुत है। बहुत दिनों तक मेरा नाम लेती हुई उनकी वह आवाज मेरे कानों से टकराती रही। मैं कैसे मान लूं कि वह आवाज अब चली गई है। 

कभी सोचा नहीं था, कि अटल जी के बारे में ऐसा लिखने के लिए कलम उठानी पड़ेगी। देश और दुनिया अटल जी को एक स्टेट्समैन, धारा प्रवाह वक्ता, संवेदनशील कवि, विचारवान लेखक, धारदार पत्रकार और विजनरी जननेता के तौर पर जानती है। लेकिन मेरे लिए उनका स्थान इससे भी ऊपर का था। सिर्फ इसलिए नहीं कि मुझे उनके साथ बरसों तक काम करने का अवसर मिला, बल्कि मेरे जीवन, मेरी सोच, मेरे आदर्शों-मूल्यों पर जो छाप उन्होंने छोड़ी, जो विश्वास उन्होंने मुझ पर किया, उसने मुझे गढ़ा है, हर स्थिति में अटल रहना सिखाया है।

हमारे देश में अनेक ऋषि, मुनि, संत आत्माओं ने जन्म लिया है। देश की आज़ादी से लेकर आज तक की विकास यात्रा के लिए भी असंख्य लोगों ने अपना जीवन समर्पित किया है। लेकिन स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र की रक्षा और 21वीं सदी के सशक्त, सुरक्षित भारत के लिए अटल जी ने जो किया, वह अभूतपूर्व है।

उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि था -बाकी सब का कोई महत्त्व नहीं। इंडिया फर्स्ट –भारत प्रथम, ये मंत्र वाक्य उनका जीवन ध्येय था। पोखरण देश के लिए जरूरी था तो चिंता नहीं की प्रतिबंधों और आलोचनाओं की, क्योंकि देश प्रथम था।सुपर कंप्यूटर नहीं मिले, क्रायोजेनिक इंजन नहीं मिले तो परवाह नहीं, हम खुद बनाएंगे, हम खुद अपने दम पर अपनी प्रतिभा और वैज्ञानिक कुशलता के बल पर असंभव दिखने वाले कार्य संभव कर दिखाएंगे। और ऐसा किया भी।दुनिया को चकित किया। सिर्फ एक ताकत उनके भीतर काम करती थी- देश प्रथम की जिद।   

काल के कपाल पर लिखने और मिटाने की ताकत, हिम्मत और चुनौतियों के बादलों में विजय का सूरज उगाने का चमत्कार उनके सीने में था तो इसलिए क्योंकि वह सीना देश प्रथम के लिए धड़कता था। इसलिए हार और जीत उनके मन पर असर नहीं करती थी। सरकार बनी तो भी, सरकार एक वोट से गिरा दी गयी तो भी, उनके स्वरों में पराजय को भी विजय के ऐसे गगन भेदी विश्वास में बदलने की ताकत थी कि जीतने वाला ही हार मान बैठे।  

अटल जी कभी लीक पर नहीं चले। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में नए रास्ते बनाए और तय किए। आंधियों में भी दीये जलाने की क्षमता उनमें थी। पूरी बेबाकी से वे जो कुछ भी बोलते थे, सीधा जनमानस के हृदय में उतर जाता था। अपनी बात को कैसे रखना है, कितना कहना है और कितना अनकहा छोड़ देना है, इसमें उन्हें महारत हासिल थी।

राष्ट्र की जो उन्होंने सेवा की, विश्व में मां भारती के मान सम्मान को उन्होंने जो बुलंदी दी, इसके लिए उन्हें अनेक सम्मान भी मिले। देशवासियों ने उन्हें भारत रत्न देकर अपना मान भी बढ़ाया। लेकिन वे किसी भी विशेषण, किसी भी सम्मान से ऊपर थे।

जीवन कैसे जीया जाए, राष्ट्र के काम कैसे आया जाए, यह उन्होंने अपने जीवन से दूसरों को सिखाया। वे कहते थे, “हम केवल अपने लिए ना जीएं, औरों के लिए भी जीएं...हम राष्ट्र के लिए अधिकाधिक त्याग करें। अगर भारत की दशा दयनीय है तो दुनिया में हमारा सम्मान नहीं हो सकता। किंतु यदि हम सभी दृष्टियों से सुसंपन्न हैं तो दुनिया हमारा सम्मान करेगी” 

देश के गरीब, वंचित, शोषित के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए वे जीवनभर प्रयास करते रहे। वेकहते थे गरीबी, दरिद्रता गरिमा का विषय नहीं है, बल्कि यह विवशता है, मजबूरी हैऔर विवशता का नाम संतोष नहीं हो सकता”। करोड़ों देशवासियों को इस विवशता से बाहर निकालने के लिए उन्होंने हर संभव प्रयास किए। गरीब को अधिकार दिलाने के लिए देश में आधार जैसी व्यवस्था, प्रक्रियाओं का ज्यादा से ज्यादा सरलीकरण, हर गांव तक सड़क, स्वर्णिम चतुर्भुज, देश में विश्व स्तरीय इंफ्रास्ट्रक्चर, राष्ट्र निर्माण के उनके संकल्पों से जुड़ा था।

आज भारत जिस टेक्नोलॉजी के शिखर पर खड़ा है उसकी आधारशिला अटल जी ने ही रखी थी। वे अपने समय से बहुत दूर तक देख सकते थे - स्वप्न दृष्टा थे लेकिन कर्म वीर भी थे।कवि हृदय, भावुक मन के थे तो पराक्रमी सैनिक मन वाले भी थे। उन्होंने विदेश की यात्राएं कीं। जहाँ-जहाँ भी गए, स्थाई मित्र बनाये और भारत के हितों की स्थाई आधारशिला रखते गए। वे भारत की विजय और विकास के स्वर थे।

अटल जी का प्रखर राष्ट्रवाद और राष्ट्र के लिए समर्पण करोड़ों देशवासियों को हमेशा से प्रेरित करता रहा है। राष्ट्रवाद उनके लिए सिर्फ एक नारा नहीं था बल्कि जीवन शैली थी। वे देश को सिर्फ एक भूखंड, ज़मीन का टुकड़ा भर नहीं मानते थे, बल्कि एक जीवंत, संवेदनशील इकाई के रूप में देखते थे। “भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष हैयह सिर्फ भाव नहीं, बल्कि उनका संकल्प था, जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन न्योछावर कर दिया। दशकों का सार्वजनिक जीवन उन्होंने अपनी इसी सोच को जीने में, धरातल पर उतारने में लगा दिया। आपातकाल ने हमारे लोकतंत्र पर जो दाग लगाया था उसको मिटाने के लिए अटल जी के प्रयास को देश हमेशा याद रखेगा।

 

राष्ट्रभक्ति की भावना, जनसेवा की प्रेरणा उनके नाम के ही अनुकूल अटल रही। भारत उनके मन में रहा, भारतीयता तन में। उन्होंने देश की जनता को ही अपना आराध्य माना। भारत के कण-कण, कंकर-कंकर, भारत की बूंद-बूंद को, पवित्र और पूजनीय माना।

जितना सम्मान, जितनी ऊंचाई अटल जी को मिली उतना ही अधिक वह ज़मीन से जुड़ते गए। अपनी सफलता को कभी भी उन्होंने अपने मस्तिष्क पर प्रभावी नहीं होने दिया। प्रभु से यश, कीर्ति की कामना अनेक व्यक्ति करते हैं, लेकिन ये अटल जी ही थे जिन्होंने कहा,

हे प्रभु! मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना।

गैरों को गले ना लगा सकूं, इतनी रुखाई कभी मत देना

अपने देशवासियों से इतनी सहजता औरसरलता से जुड़े रहने की यह कामना ही उनको सामाजिक जीवन के एक अलग पायदान पर खड़ा करती है।

वेपीड़ा सहते थे, वेदना को चुपचाप अपने भीतर समाये रहते थे, पर सबको अमृत देते रहे- जीवन भर। जब उन्हें कष्ट हुआ तो कहने लगे- “देह धरण को दंड है, सब काहू को होये, ज्ञानी भुगते ज्ञान से मूरख भुगते रोए। उन्होंने ज्ञान मार्ग से अत्यंत गहरी वेदनाएं भी सहन कीं और वीतरागी भाव से विदा ले गए।  

यदि भारत उनके रोम रोम में था तो विश्व की वेदना उनके मर्म को भेदती थी। इसी वजह से हिरोशिमा जैसी कविताओं का जन्म हुआ। वे विश्व नायक थे। मां भारतीके सच्चे वैश्विक नायक। भारत की सीमाओं के परे भारत की कीर्ति और करुणा का संदेश स्थापित करने वाले आधुनिक बुद्ध। 

कुछ वर्ष पहले लोकसभा में जब उन्हें वर्ष के सर्वश्रेष्ठ सांसद के सम्मान से सम्मानित किया गया था तब उन्होंने कहा था, “यह देश बड़ा अद्भुत है, अनूठा है। किसी भी पत्थर को सिंदूर लगाकर अभिवादन किया जा रहा है, अभिनंदन किया जा सकता है।”

अपने पुरुषार्थ को, अपनी कर्तव्यनिष्ठा को राष्ट्र के लिए समर्पित करना उनके व्यक्तित्व की महानता को प्रतिबिंबित करता है। यही सवा सौ करोड़ देशवासियों के लिए उनका सबसे बड़ा और प्रखर संदेश है। देश के साधनों, संसाधनों पर पूरा भरोसा करते हुए, हमें अब अटल जी के सपनों को पूरा करना है, उनके सपनों का भारत बनाना है।

नए भारत का यही संकल्प, यही भावलिए मैं अपनी तरफ से और सवा सौ करोड़ देशवासियों की तरफ से अटल जी को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं, उन्हें नमन करता हूं।

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ਏਕਤਾ ਦਾ ਮਹਾਕੁੰਭ, ਯੁੱਗ ਪਰਿਵਰਤਨ ਦੀ ਧੁਨ
February 27, 2025

ਮਹਾਕੁੰਭ ਸੰਪੰਨ ਹੋਇਆ... ਏਕਤਾ ਦਾ ਮਹਾਨ ਯੱਗ ਸੰਪੰਨ ਹੋਇਆ। ਜਦੋਂ ਕਿਸੇ ਰਾਸ਼ਟਰ ਦੀ ਚੇਤਨਾ ਜਾਗਦੀ ਹੈ, ਜਦੋਂ ਉਹ ਸਦੀਆਂ ਦੀ ਗੁਲਾਮੀ ਦੀ ਮਾਨਸਿਕਤਾ ਦੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਬੇੜੀਆਂ ਤੋੜ ਦਿੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਨਵੀਂ ਚੇਤਨਾ ਨਾਲ ਹਵਾ ਵਿੱਚ ਸਾਹ ਲੈਣ ਲਗਦੀ ਹੈ, ਤਾਂ ਇੱਕ ਅਜਿਹਾ ਹੀ ਦ੍ਰਿਸ਼ ਦਿਖਾਈ ਦਿੰਦਾ ਹੈ, ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਅਸੀਂ 13 ਜਨਵਰੀ ਤੋਂ ਪ੍ਰਯਾਗਰਾਜ ਵਿੱਚ ਏਕਤਾ ਦੇ ਮਹਾਕੁੰਭ ਵਿੱਚ ਦੇਖਿਆ ਸੀ।

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22 ਜਨਵਰੀ, 2024 ਨੂੰ ਅਯੋਧਿਆ ਵਿੱਚ ਰਾਮ ਮੰਦਿਰ ਦੇ ਪ੍ਰਾਣ ਪ੍ਰਤਿਸ਼ਠਾ ਸਮਾਰੋਹ ਵਿੱਚ, ਮੈਂ ਦੇਵ ਭਗਤੀ ਤੋਂ ਦੇਸ਼ ਭਗਤੀ ਬਾਰੇ ਗੱਲ ਕੀਤੀ ਸੀ। ਪ੍ਰਯਾਗਰਾਜ ਵਿੱਚ ਮਹਾਕੁੰਭ ਦੌਰਾਨ, ਸਾਰੇ ਦੇਵੀ-ਦੇਵਤੇ ਜੁਟੇ, ਸੰਤ ਅਤੇ ਮਹਾਤਮਾ ਜੁਟੇ, ਬੱਚੇ ਅਤੇ ਬਜ਼ੁਰਗ ਜੁਟੇ, ਮਹਿਲਾਵਾਂ ਅਤੇ ਨੌਜਵਾਨ ਜੁਟੇ ਅਤੇ ਅਸੀਂ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਜਾਗਦੀ ਚੇਤਨਾ ਨੂੰ ਪ੍ਰਤੱਖ ਦੇਖਿਆ। ਇਹ ਮਹਾਕੁੰਭ ਏਕਤਾ ਦਾ ਮਹਾਕੁੰਭ ਸੀ, ਜਿੱਥੇ 140 ਕਰੋੜ ਦੇਸ਼ ਵਾਸੀਆਂ ਦੀ ਆਸਥਾ ਇੱਕ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ ਇਸ ਪਰਵ ਨਾਲ ਆ ਕੇ ਜੁੜੀ ਸੀ।

ਤੀਰਥਰਾਜ ਪ੍ਰਯਾਗ ਦੇ ਇਸੇ ਖੇਤਰ ਵਿੱਚ, ਏਕਤਾ, ਸਦਭਾਵਨਾ ਅਤੇ ਪਿਆਰ ਦਾ ਇੱਕ ਪਵਿੱਤਰ ਖੇਤਰ, ਸ਼੍ਰੀਂਗਵੇਰਪੁਰ ਵੀ ਹੈ, ਜਿੱਥੇ ਭਗਵਾਨ ਸ਼੍ਰੀ ਰਾਮ ਅਤੇ ਨਿਸ਼ਾਦਰਾਜ ਦੀ ਮਿਲਣੀ ਹੋਈ ਸੀ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਮੁਲਾਕਾਤ ਦੀ ਉਹ ਘਟਨਾ ਵੀ ਸਾਡੇ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿੱਚ ਸ਼ਰਧਾ ਅਤੇ ਸਦਭਾਵਨਾ ਦੇ ਸੰਗਮ ਵਰਗੀ ਹੈ। ਪ੍ਰਯਾਗਰਾਜ ਦਾ ਇਹ ਤੀਰਥ ਸਥਾਨ ਅੱਜ ਵੀ ਸਾਨੂੰ ਏਕਤਾ ਅਤੇ ਸਦਭਾਵਨਾ ਦੀ ਪ੍ਰੇਰਣਾ ਦਿੰਦਾ ਹੈ।

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ਪਿਛਲੇ 45 ਦਿਨਾਂ ਤੋਂ, ਹਰ ਰੋਜ਼, ਮੈਂ ਦੇਖਿਆ ਹੈ ਕਿ ਕਿਵੇਂ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਹਰ ਕੋਨੇ ਤੋਂ ਲੱਖਾਂ ਲੋਕ ਸੰਗਮ ਤੱਟਾਂ ਵੱਲ ਵਧ ਰਹੇ ਹਨ। ਸੰਗਮ ਵਿੱਚ ਇਸ਼ਨਾਨ ਕਰਨ ਦੀ ਭਾਵਨਾ ਦੀ ਲਹਿਰ ਲਗਾਤਾਰ ਵਧ ਰਹੀ ਹੈ। ਹਰ ਸ਼ਰਧਾਲੂ ਸਿਰਫ਼ ਇੱਕ ਹੀ ਕੰਮ ਵਿੱਚ ਰੁੱਝਿਆ ਹੋਇਆ ਸੀ - ਸੰਗਮ ਵਿੱਚ ਇਸ਼ਨਾਨ ਕਰਨ ਵਿੱਚ। ਮਾਂ ਗੰਗਾ, ਯਮੁਨਾ ਅਤੇ ਸਰਸਵਤੀ ਦਾ ਸੰਗਮ ਹਰ ਸ਼ਰਧਾਲੂ ਨੂੰ ਉਤਸ਼ਾਹ, ਊਰਜਾ ਅਤੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨਾਲ ਭਰ ਰਿਹਾ ਸੀ।

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ਪ੍ਰਯਾਗਰਾਜ ਵਿੱਚ ਆਯੋਜਿਤ ਇਹ ਮਹਾਕੁੰਭ ਸਮਾਗਮ ਆਧੁਨਿਕ ਯੁੱਗ ਦੇ ਪ੍ਰਬੰਧਨ ਪੇਸ਼ੇਵਰਾਂ, ਯੋਜਨਾਬੰਦੀ ਅਤੇ ਨੀਤੀ ਮਾਹਿਰਾਂ ਲਈ ਅਧਿਐਨ ਦਾ ਇੱਕ ਨਵਾਂ ਵਿਸ਼ਾ ਬਣ ਗਿਆ ਹੈ। ਅੱਜ, ਪੂਰੀ ਦੁਨੀਆ ਵਿੱਚ ਇੰਨੀ ਵੱਡੀ ਘਟਨਾ ਦੀ ਕੋਈ ਤੁਲਨਾ ਨਹੀਂ ਹੈ; ਇਸ ਵਰਗੀ ਕੋਈ ਹੋਰ ਉਦਾਹਰਣ ਨਹੀਂ ਹੈ।

ਸਾਰੀ ਦੁਨੀਆ ਹੈਰਾਨ ਹੈ ਕਿ ਤ੍ਰਿਵੇਣੀ ਸੰਗਮ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਨਦੀ ਦੇ ਕੰਢੇ ਇੰਨੀ ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ਵਿੱਚ ਲੋਕ, ਕਰੋੜਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਵਿੱਚ, ਕਿਵੇਂ ਇਕੱਠੇ ਹੋਏ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਕਰੋੜਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਨਾ ਤਾਂ ਕੋਈ ਰਸਮੀ ਸੱਦਾ ਪੱਤਰ ਸੀ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਪਹਿਲਾਂ ਤੋਂ ਕੋਈ ਜਾਣਕਾਰੀ ਸੀ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕਦੋਂ ਆਉਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਲਈ ਲੋਕ ਮਹਾਕੁੰਭ ਲਈ ਰਵਾਨਾ ਹੋਏ... ਅਤੇ ਪਵਿੱਤਰ ਸੰਗਮ ਵਿੱਚ ਡੁਬਕੀ ਲਗਾ ਕੇ ਸੁਭਾਗ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤਾ।

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ਮੈਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਤਸਵੀਰਾਂ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਭੁੱਲ ਸਕਦਾ... ਇਸ਼ਨਾਨ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਬੇਅੰਤ ਆਨੰਦ ਅਤੇ ਸੰਤੋਖ ਨਾਲ ਭਰੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਚਿਹਰਿਆਂ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਭੁੱਲ ਸਕਦਾ। ਮਹਿਲਾਵਾਂ ਹੋਣ, ਬਜ਼ੁਰਗ ਹੋਣ ਜਾਂ ਸਾਡੇ ਦਿਵਯਾਂਗਜਨ ਹੋਣ, ਜਿਸ ਤੋਂ ਜੋ ਬਣਿਆ ਉਹ ਸਾਧਨ ਕਰਕੇ ਸੰਗਮ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚਿਆ।

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ਅਤੇ ਇਹ ਦੇਖਣਾ ਮੇਰੇ ਲਈ ਸੁਖਦ ਰਿਹਾ ਕਿ ਅੱਜ ਦੇ ਭਾਰਤ ਦੀ ਨੌਜਵਾਨ ਪੀੜ੍ਹੀ ਬਹੁਤ ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਯਾਗਰਾਜ ਪਹੁੰਚੀ। ਇਸ ਮਹਾਕੁੰਭ ਵਿੱਚ ਹਿੱਸਾ ਲੈਣ ਲਈ ਭਾਰਤ ਦੇ ਨੌਜਵਾਨਾਂ ਦਾ ਅੱਗੇ ਆਉਣਾ ਇੱਕ ਬਹੁਤ ਵੱਡਾ ਸੰਦੇਸ਼ ਹੈ। ਇਹ ਇਸ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨੂੰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕਰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਭਾਰਤ ਦੀ ਨੌਜਵਾਨ ਪੀੜ੍ਹੀ ਸਾਡੀਆਂ ਪਰੰਪਰਾਵਾਂ ਅਤੇ ਸੱਭਿਆਚਾਰ ਦੀ ਵਾਹਕ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਵਧਾਉਣ ਦੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਨੂੰ ਸਮਝਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਦੇ ਪ੍ਰਤੀ ਦ੍ਰਿੜ ਅਤੇ ਸਮਰਪਿਤ ਵੀ ਹੈ।

ਇਸ ਮਹਾਕੁੰਭ ਲਈ ਪ੍ਰਯਾਗਰਾਜ ਪਹੁੰਚਣ ਵਾਲੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਨੇ ਯਕੀਨੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਇੱਕ ਨਵਾਂ ਰਿਕਾਰਡ ਬਣਾਇਆ ਹੈ। ਪਰ ਇਸ ਮਹਾਕੁੰਭ ਵਿੱਚ ਅਸੀਂ ਇਹ ਵੀ ਦੇਖਿਆ ਕਿ ਜੋ ਲੋਕ ਪ੍ਰਯਾਗ ਨਹੀਂ ਪਹੁੰਚ ਸਕੇ, ਉਹ ਵੀ ਇਸ ਸਮਾਗਮ ਨਾਲ ਸ਼ਰਧਾ ਭਾਵਨਾ ਨਾਲ ਜੁੜੇ। ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਕੁੰਭ ਤੋਂ ਵਾਪਸ ਆਉਂਦੇ ਸਮੇਂ ਤ੍ਰਿਵੇਣੀ ਤੀਰਥ ਦਾ ਜਲ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਲਿਆ ਸੀ, ਉਸ ਪਾਣੀ ਦੀਆਂ ਕੁਝ ਬੂੰਦਾਂ ਨੇ ਵੀ ਲੱਖਾਂ ਸ਼ਰਧਾਲੂਆਂ ਨੂੰ ਕੁੰਭ ਇਸ਼ਨਾਨ ਦੇ ਬਰਾਬਰ ਪੁੰਨਯ ਦਿੱਤਾ। ਕੁੰਭ ਤੋਂ ਵਾਪਸ ਆਉਣ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਹਰ ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਇੰਨੇ ਸਾਰੇ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਸਵਾਗਤ ਕੀਤਾ ਗਿਆ, ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪੂਰੇ ਸਮਾਜ ਨੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਪ੍ਰਤੀ ਸਤਿਕਾਰ ਨਾਲ ਆਪਣਾ ਸਿਰ ਝੁਕਾਇਆ, ਉਹ ਅਭੁੱਲਣਯੋਗ ਹੈ।

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ਇਹ ਅਜਿਹਾ ਕੁਝ ਹੈ ਜੋ ਪਿਛਲੇ ਕੁਝ ਦਹਾਕਿਆਂ ਵਿੱਚ ਪਹਿਲਾਂ ਕਦੇ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ। ਇਹ ਉਹ ਚੀਜ਼ ਹੈ ਜਿਸ ਨੇ ਆਉਣ ਵਾਲੀਆਂ ਕਈ ਸਦੀਆਂ ਲਈ ਨੀਂਹ ਰੱਖੀ ਹੈ।

ਪ੍ਰਯਾਗਰਾਜ ਵਿੱਚ, ਕਲਪਨਾ ਤੋਂ ਕਿਤੇ ਜ਼ਿਆਦਾ ਗਿਣਤੀ ਵਿੱਚ ਸ਼ਰਧਾਲੂ ਪਹੁੰਚੇ। ਇਸ ਦਾ ਇੱਕ ਕਾਰਨ ਇਹ ਸੀ ਕਿ ਪ੍ਰਸ਼ਾਸਨ ਨੇ ਇਹ ਅਨੁਮਾਨ ਵੀ ਪਿਛਲੇ ਕੁੰਭ ਦੇ ਤਜ਼ਰਬਿਆਂ ਦੇ ਅਧਾਰ 'ਤੇ ਲਗਾਇਆ ਸੀ। ਪਰ ਅਮਰੀਕਾ ਦੀ ਲਗਭਗ ਦੁੱਗਣੀ ਆਬਾਦੀ ਨੇ ਏਕਤਾ ਦੇ ਇਸ ਮਹਾਨ ਕੁੰਭ ਵਿੱਚ ਹਿੱਸਾ ਲਿਆ ਅਤੇ ਡੁਬਕੀ ਲਗਾਈ।

ਅਧਿਆਤਮਿਕ ਖੇਤਰ ਵਿੱਚ ਖੋਜ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਲੋਕ ਕਰੋੜਾਂ ਭਾਰਤੀਆਂ ਦੇ ਇਸ ਉਤਸ਼ਾਹ ਦਾ ਅਧਿਐਨ ਕਰਨ, ਤਾਂ ਉਹ ਦੇਖਣਗੇ ਕਿ ਆਪਣੀ ਵਿਰਾਸਤ 'ਤੇ ਮਾਣ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਭਾਰਤ ਹੁਣ ਇੱਕ ਨਵੀਂ ਊਰਜਾ ਨਾਲ ਅੱਗੇ ਵਧ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਮੇਰਾ ਮੰਨਣਾ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਉਸ ਯੁੱਗ ਵਿੱਚ ਬਦਲਾਅ ਦੀ ਧੁਨ ਹੈ, ਜੋ ਭਾਰਤ ਲਈ ਇੱਕ ਨਵਾਂ ਭਵਿੱਖ ਲਿਖਣ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ।

ਮਹਾਕੁੰਭ ਦੀ ਇਹ ਪਰੰਪਰਾ ਨਾਲ ਹਜ਼ਾਰਾਂ ਸਾਲਾਂ ਤੋਂ ਭਾਰਤ ਦੀ ਰਾਸ਼ਟਰੀ ਚੇਤਨਾ ਨੂੰ ਮਜ਼ਬੂਤੀ ਮਿਲ ਰਹੀ ਹੈ। ਹਰ ਪੂਰਨ ਕੁੰਭ ਵਿੱਚ ਰਿਸ਼ੀ, ਸੰਤ ਅਤੇ ਵਿਦਵਾਨ 45 ਦਿਨਾਂ ਤੱਕ ਸਮਾਜ ਦੀਆਂ ਮੌਜੂਦਾ ਸਥਿਤੀਆਂ 'ਤੇ ਵਿਚਾਰ-ਵਟਾਂਦਰਾ ਕਰਦੇ ਸਨ। ਇਸ ਮੰਥਨ ਵਿੱਚ, ਦੇਸ਼ ਅਤੇ ਸਮਾਜ ਨੂੰ ਨਵੇਂ ਦਿਸ਼ਾ-ਨਿਰਦੇਸ਼ ਮਿਲਦੇ ਸਨ।

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ਇਸ ਤੋਂ ਬਾਅਦ, ਹਰ 6 ਸਾਲਾਂ ਬਾਅਦ ਅਰਧ ਕੁੰਭ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤੀਆਂ ਅਤੇ ਦਿਸ਼ਾ-ਨਿਰਦੇਸ਼ਾਂ ਦੀ ਸਮੀਖਿਆ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਸੀ। 12 ਪੂਰਨ ਕੁੰਭਾਂ ਦੇ ਸਮੇਂ ਤੱਕ, ਯਾਨੀ 144 ਸਾਲਾਂ ਦੇ ਅੰਤਰਾਲ ਤੋਂ ਬਾਅਦ, ਪੁਰਾਣੇ ਹੋ ਚੁੱਕੇ ਦਿਸ਼ਾ-ਨਿਰਦੇਸ਼ਾਂ ਅਤੇ ਪਰੰਪਰਾਵਾਂ ਨੂੰ ਤਿਆਗ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਸੀ, ਆਧੁਨਿਕਤਾ ਨੂੰ ਸਵੀਕਾਰ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਸੀ ਅਤੇ ਯੁੱਗ ਅਨੁਸਾਰ ਬਦਲਾਅ ਕਰਕੇ ਨਵੀਆਂ ਪਰੰਪਰਾਵਾਂ ਦੀ ਸਿਰਜਣਾ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਸੀ।

144 ਸਾਲਾਂ ਬਾਅਦ ਹੋਏ ਮਹਾਕੁੰਭ ਵਿੱਚ ਰਿਸ਼ੀ-ਮੁਣੀ ਲੋਕਾਂ ਦੁਆਰਾ ਉਸ ਸਮੇਂ-ਕਾਲ, ਯੁੱਗ ਅਤੇ ਹਾਲਾਤ ਨੂੰ ਧਿਆਨ ਵਿੱਚ ਰੱਖਦੇ ਹੋਏ, ਨਵੇਂ ਸੰਦੇਸ਼ ਵੀ ਦਿੱਤੇ ਜਾਂਦੇ ਸਨ। ਹੁਣ ਇਸ ਵਾਰ, 144 ਸਾਲਾਂ ਬਾਅਦ ਹੋਣ ਵਾਲੇ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ਸੰਪੂਰਨ ਮਹਾਕੁੰਭ ਨੇ ਸਾਨੂੰ ਭਾਰਤ ਦੀ ਵਿਕਾਸ ਯਾਤਰਾ ਦੇ ਇੱਕ ਨਵੇਂ ਅਧਿਆਇ ਦਾ ਸੰਦੇਸ਼ ਵੀ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। ਇਹ ਸੰਦੇਸ਼ ਹੈ-ਵਿਕਸਿਤ ਭਾਰਤ ਦਾ।

ਜਿਵੇਂ ਏਕਤਾ ਦੇ ਮਹਾਕੁੰਭ ਵਿੱਚ, ਹਰ ਸ਼ਰਧਾਲੂ, ਭਾਵੇਂ ਉਹ ਗਰੀਬ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਅਮੀਰ, ਬੱਚਾ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਬੁੱਢਾ, ਦੇਸ਼ ਦਾ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਵਿਦੇਸ਼ ਦਾ, ਪਿੰਡ ਦਾ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਸ਼ਹਿਰ ਦਾ, ਪੂਰਬ ਦਾ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਪੱਛਮ ਦਾ, ਉੱਤਰ ਦਾ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਦੱਖਣ ਦਾ, ਕਿਸੇ ਵੀ ਜਾਤੀ ਦਾ, ਕਿਸੇ ਵੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ ਦਾ, ਸਾਰੇ ਇੱਕ ਮਹਾਯੱਗ ਲਈ ਏਕਤਾ ਦੇ ਮਹਾਕੁੰਭ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਹੋ ਗਏ। ਏਕ ਭਾਰਤ, ਸ਼੍ਰੇਸ਼ਠ ਭਾਰਤ ਦਾ ਇਹ ਅਭੁੱਲਣਯੋਗ ਦ੍ਰਿਸ਼ ਕਰੋੜਾਂ ਦੇਸ਼ ਵਾਸੀਆਂ ਵਿੱਚ ਆਤਮਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦਾ ਇੱਕ ਮਹਾ ਪਰਵ ਬਣ ਗਿਆ। ਹੁਣ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਅਸੀਂ ਇੱਕ ਹੋ ਕੇ ਵਿਕਸਿਤ ਭਾਰਤ ਦੇ ਮਹਾ ਯੱਗ ਲਈ ਇਕਜੁੱਟ ਹੋਣਾ ਹੈ।

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ਸਾਥੀਓ,

ਅੱਜ ਮੈਨੂੰ ਉਹ ਪ੍ਰਸੰਗ ਵੀ ਯਾਦ ਆ ਰਿਹਾ ਹੈ ਜਦੋਂ ਭਗਵਾਨ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਨੇ ਬਾਲ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਮਾਂ ਯਸ਼ੋਦਾ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਮੂੰਹ ਵਿੱਚ ਬ੍ਰਹਿਮੰਡ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਵਾਏ ਸਨ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ, ਇਸ ਮਹਾਕੁੰਭ ਵਿੱਚ, ਭਾਰਤੀਆਂ ਅਤੇ ਦੁਨੀਆ ਨੇ ਭਾਰਤ ਦੀ ਸ਼ਕਤੀ ਦੇ ਵਿਸ਼ਾਲ ਸਰੂਪ ਨੂੰ ਦੇਖਿਆ ਹੈ। ਅਸੀਂ ਹੁਣ ਇਸ ਆਤਮਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨਾਲ ਇੱਕ ਮਨ ਹੋ ਕੇ ਵਿਕਸਿਤ ਭਾਰਤ ਦੇ ਸੰਕਲਪ ਨੂੰ ਪੂਰਾ ਕਰਨ ਲਈ ਅੱਗੇ ਵਧਣਾ ਹੈ।

ਇਹ ਭਾਰਤ ਦੀ ਇੱਕ ਅਜਿਹੀ ਸ਼ਕਤੀ ਹੈ, ਜਿਸ ਬਾਰੇ ਭਗਤੀ ਅੰਦੋਲਨ ਵਿੱਚ ਸਾਡੇ ਸੰਤਾਂ ਨੇ ਰਾਸ਼ਟਰ ਦੇ ਹਰ ਕੋਨੇ ਵਿੱਚ ਅਲਖ ਜਗਾਈ ਸੀ। ਵਿਵੇਕਾਨੰਦ ਹੋਣ ਜਾਂ ਸ਼੍ਰੀ ਔਰੋਬਿੰਦੋ ਹੋਣ, ਹਰ ਕਿਸੇ ਨੇ ਸਾਨੂੰ ਇਸ ਬਾਰੇ ਜਾਗਰੂਕ ਕੀਤਾ ਸੀ। ਇਸ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਗਾਂਧੀ ਜੀ ਨੇ ਵੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਅੰਦੋਲਨ ਦੇ ਸਮੇਂ ਕੀਤਾ ਸੀ। ਆਜ਼ਾਦੀ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਭਾਰਤ ਦੀ ਇਸ ਸ਼ਕਤੀ ਦੇ ਵਿਸ਼ਾਲ ਰੂਪ ਨੂੰ ਜੇਕਰ ਅਸੀਂ ਜਾਣਿਆ ਹੁੰਦਾ, ਅਤੇ ਇਸ ਸ਼ਕਤੀ ਨੂੰ ਸਰਵਜਨ ਹਿਤਾਯ, ਸਰਵਜਨ ਸੁਖਾਯ ਮੋੜਿਆ ਹੁੰਦਾ, ਤਾਂ ਇਹ ਗੁਲਾਮੀ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵਾਂ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਨਿਕਲਦੇ ਭਾਰਤ ਦੀ ਬਹੁਤ ਵੱਡੀ ਸ਼ਕਤੀ ਬਣ ਜਾਂਦੀ। ਪਰ ਅਸੀਂ ਉਦੋਂ ਇਹ ਨਹੀਂ ਕਰ ਪਾਏ। ਹੁਣ ਮੈਂ ਸੰਤੋਸ਼ ਹੈ, ਖੁਸੀ ਹੈ ਕਿ ਜਨਤਾ ਜਨਾਰਦਨ ਦੀ ਇਹ ਸ਼ਕਤੀ, ਵਿਕਸਿਤ ਭਾਰਤ ਲਈ ਇਕਜੁੱਟ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ।

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ਵੇਦ ਤੋਂ ਵਿਵੇਕਾਨੰਦ ਤੱਕ ਅਤੇ ਉਪਨਿਸ਼ਦ ਤੋਂ ਉਪਗ੍ਰਹ ਤੱਕ, ਭਾਰਤ ਦੀਆਂ ਮਹਾਨ ਪਰੰਪਰਾਵਾਂ ਨੇ ਇਸ ਰਾਸ਼ਟਰ ਨੂੰ ਆਕਾਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। ਮੇਰੀ ਕਾਮਨਾ ਹੈ, ਇੱਕ ਨਾਗਰਿਕ ਦੇ ਤੌਰ ‘ਤੇ ਪੂਰੀ ਸ਼ਰਧਾ ਨਾਲ, ਆਪਣੇ ਪੂਰਵਜਾਂ, ਆਪਣੇ ਰਿਸ਼ੀਆਂ-ਮੁਣੀਆਂ ਦਾ ਪੁੰਨਯ ਨੂੰ ਯਾਦ ਕਰਦੇ ਹੋਏ, ਏਕਤਾ ਦੇ ਇਸ ਮਹਾਕੁੰਭ ਤੋਂ ਅਸੀਂ ਨਵੀਂ ਪ੍ਰੇਰਣਾ ਲੈਂਦੇ ਹੋਏ, ਨਵੇਂ ਸੰਕਲਪਾਂ ਨੂੰ ਨਾਲ ਲੈ ਕੇ ਚੱਲੀਏ। ਅਸੀਂ ਏਕਤਾ ਦੇ ਮਹਾਮੰਤਰ ਨੂੰ ਜੀਵਨ ਮੰਤਰ ਬਣਾਈਏ; ਦੇਸ਼ ਸੇਵਾ ਵਿੱਚ ਹੀ ਦੇਵ ਸੇਵਾ, ਜੀਵ ਸੇਵਾ ਵਿੱਚ ਹੀ ਸ਼ਿਵ ਸੇਵਾ ਦੇ ਭਾਵ ਨਾਲ ਖੁਦ ਨੂੰ ਸਮਰਪਿਤ ਕਰੀਏ।

ਸਾਥੀਓ,

ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਚੋਣਾਂ ਲਈ ਕਾਸ਼ੀ ਗਿਆ ਸੀ, ਤਾਂ ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਦੀਆਂ ਭਾਵਨਾਵਾਂ ਸ਼ਬਦਾਂ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਗਟ ਹੋਈਆਂ ਸਨ, ਅਤੇ ਮੈਂ ਕਿਹਾ - ਮਾਂ ਗੰਗਾ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਬੁਲਾਇਆ ਹੈ। ਇਸ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਵੀ ਸੀ, ਸਾਡੀਆਂ ਮਾਂ ਸਰੂਪੀ ਨਦੀਆਂ ਦੀ ਸ਼ੁੱਧਤਾ ਨੂੰ ਲੈ ਕੇ, ਸਵੱਛਤਾ ਨੂੰ ਲੈ ਕੇ। ਪ੍ਰਯਾਗਰਾਜ ਵਿੱਚ ਵੀ ਗੰਗਾ-ਯਮੁਨਾ-ਸਰਸਵਤੀ ਦੇ ਸੰਗਮ 'ਤੇ ਮੇਰਾ ਇਹ ਸੰਕਲਪ ਹੋਰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਗੰਗਾ ਜੀ, ਯਮੁਨਾ ਜੀ, ਸਾਡੀਆਂ ਨਦੀਆਂ ਦੀ ਸਵੱਛਤਾ ਸਾਡੀ ਜੀਵਨ ਯਾਤਰਾ ਨਾਲ ਜੁੜੀ ਹੋਈ ਹੈ। ਸਾਡੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਬਣਦੀ ਹੈ ਕਿ ਨਦੀ ਭਾਵੇਂ ਛੋਟੀ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਵੱਡੀ, ਹਰ ਨਦੀ ਨੂੰ ਜੀਵਨਦਾਤਾ ਮਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਤੀਕ ਸਮਝਦੇ ਹੋਏ ਅਸੀਂ ਆਪਣੀ ਸਹੂਲਤ ਅਨੁਸਾਰ, ਨਦੀ ਉਤਸਵ ਜ਼ਰੂਰ ਮਨਾਈਏ। ਇਹ ਏਕਤਾ ਦਾ ਮਹਾਕੁੰਭ ਸਾਨੂੰ ਇਸ ਗੱਲ ਦੀ ਪ੍ਰੇਰਣਾ ਦੇ ਕੇ ਗਿਆ ਹੈ ਕਿ ਅਸੀਂ ਆਪਣੀਆਂ ਨਦੀਆਂ ਨੂੰ ਨਿਰੰਤਰ ਸਵੱਛ ਰੱਖੀਏ, ਇਸ ਅਭਿਯਾਨ ਨੂੰ ਨਿਰੰਤਰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕਰਦੇ ਰਹੀਏ।

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ਮੈਂ ਜਾਣਦਾ ਹਾਂ, ਇੰਨਾ ਵੱਡਾ ਸਮਾਗਮ ਦਾ ਆਯੋਜਨ ਅਸਾਨ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਮੈਂ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾ ਕਰਦਾ ਹਾਂ ਮਾਂ ਗੰਗਾ ਨੂੰ... ਮਾਂ ਯਮੁਨਾ ਨੂੰ... ਮਾਂ ਸਰਸਵਤੀ ਨੂੰ... ਹੇ ਮਾਂ, ਜੇਕਰ ਸਾਡੀ ਪੂਜਾ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਕਮੀ ਰਹਿ ਗਈ ਹੈ, ਤਾਂ ਕਿਰਪਾ ਕਰਕੇ ਮੁਆਫ਼ ਕਰ ਦਿਓ...। ਜਨਤਾ ਜਨਾਰਦਨ, ਜੋ ਮੇਰੇ ਲਈ ਈਸ਼ਵਰ ਦਾ ਹੀ ਰੂਪ ਹੈ, ਸ਼ਰਧਾਲੂਆਂ ਦੀ ਸੇਵਾ ਵਿੱਚ ਵੀ ਜੇਕਰ ਸਾਡੇ ਤੋਂ ਕੁਝ ਕਮੀ ਰਹਿ ਗਈ ਹੋਵੇ, ਤਾਂ ਮੈਂ ਜਨਤਾ ਜਨਾਰਦਨ ਤੋਂ ਵੀ ਮੁਆਫ਼ੀ ਮੰਗਦਾ ਹਾਂ।

ਸਾਥੀਓ,

ਸ਼ਰਧਾ ਨਾਲ ਭਰੇ ਜੋ ਕਰੋੜਾਂ ਲੋਕ ਪ੍ਰਯਾਗ ਪਹੁੰਚ ਕੇ ਇਸ ਏਕਤਾ ਦੇ ਮਹਾਕੁੰਭ ਦਾ ਹਿੱਸਾ ਬਣੇ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਸੇਵਾ ਦੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਵੀ ਸ਼ਰਧਾ ਦੇ ਸਮਰੱਥ ਨਾਲ ਹੀ ਪੂਰੀ ਹੋਈ ਹੈ। ਯੂਪੀ ਦਾ ਸਾਂਸਦ ਹੋਣ ਦੇ ਨਾਤੇ ਮੈਂ ਮਾਣ ਨਾਲ ਕਹਿ ਸਕਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਯੋਗੀ ਜੀ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਵਿੱਚ ਸਰਕਾਰ, ਪ੍ਰਸ਼ਾਸਨ ਅਤੇ ਜਨਤਾ ਨੇ ਮਿਲ ਕੇ, ਇਸ ਏਕਤਾ ਦੇ ਮਹਾਕੁੰਭ ਨੂੰ ਸਫਲ ਬਣਾਇਆ। ਕੇਂਦਰ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਰਾਜ ਹੋਵੇ, ਇੱਥੇ ਨਾ ਕੋਈ ਸ਼ਾਸਕ ਸੀ, ਨਾ ਕੋਈ ਪ੍ਰਸ਼ਾਸਕ ਸੀ, ਹਰ ਕੋਈ ਸ਼ਰਧਾ ਨਾਲ ਭਰਿਆ ਸੇਵਕ ਸੀ। ਸਾਡੇ ਸਫਾਈ ਕਰਮਚਾਰੀ, ਸਾਡੇ ਪੁਲਿਸ ਕਰਮਚਾਰੀ, ਸਾਡੇ ਨਾਵਿਕ ਸਾਥੀ, ਡਰਾਈਵਰ, ਖਾਣਾ ਬਣਾਉਣ ਵਾਲੇ, ਸਾਰਿਆਂ ਨੇ ਪੂਰੀ ਸ਼ਰਧਾ ਅਤੇ ਸੇਵਾ ਦੀ ਭਾਵਨਾ ਨਾਲ ਨਿਰੰਤਰ ਕੰਮ ਕਰਕੇ ਇਸ ਮਹਾਕੁੰਭ ਨੂੰ ਸਫਲ ਬਣਾਇਆ। ਖਾਸ ਕਰਕੇ, ਪ੍ਰਯਾਗਰਾਜ ਦੇ ਨਿਵਾਸੀਆਂ ਨੇ ਇਨ੍ਹਾਂ 45 ਦਿਨਾਂ ਵਿੱਚ ਬਹੁਤ ਸਾਰੀਆਂ ਮੁਸ਼ਕਿਲਾਂ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸ਼ਰਧਾਲੂਆਂ ਦੀ ਸੇਵਾ ਕੀਤੀ ਹੈ, ਉਹ ਬੇਮਿਸਾਲ ਹੈ। ਮੈਂ ਪ੍ਰਯਾਗਰਾਜ ਦੇ ਸਾਰੇ ਨਿਵਾਸੀਆਂ ਦਾ, ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਧੰਨਵਾਦ ਕਰਦਾ ਹਾਂ, ਅਭਿੰਨਦਨ ਕਰਦਾ ਹਾਂ।

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ਸਾਥੀਓ,

ਮਹਾਕੁੰਭ ਦੇ ਦ੍ਰਿਸ਼ਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ, ਸ਼ੁਰੂ ਤੋਂ ਹੀ ਮੇਰੇ ਮਨ ਵਿੱਚ ਜੋ ਭਾਵਨਾਵਾਂ ਉਠੀਆਂ, ਜੋ ਪਿਛਲੇ 45 ਦਿਨਾਂ ਵਿੱਚ ਹੋਰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਹੋਈਆਂ ਹਨ, ਰਾਸ਼ਟਰ ਦੇ ਉੱਜਵਲ ਭਵਿੱਖ ਨੂੰ ਲੈ ਕੇ ਮੇਰੀ ਆਸਥਾ, ਕਈ ਗੁਣਾ ਮਜ਼ਬੂਤ ਹੋ ਗਈ ਹੈ।

140 ਕਰੋੜ ਦੇਸ਼ ਵਾਸੀਆਂ ਨੇ ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪ੍ਰਯਾਗਰਾਜ ਵਿੱਚ ਏਕਤਾ ਦੇ ਮਹਾਕੁੰਭ ਨੂੰ ਅੱਜ ਦੀ ਦੁਨੀਆ ਦੀ ਇੱਕ ਮਹਾਨ ਪਹਿਚਾਣ ਬਣਾ ਦਿੱਤੀ, ਉਹ ਅਦਭੁਤ ਹੈ।

ਦੇਸ਼ ਵਾਸੀਆਂ ਦੀ ਇਸ ਮਿਹਨਤ ਨਾਲ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਯਤਨਾਂ ਨਾਲ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਸੰਕਲਪ ਤੋਂ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਮੈਂ ਜਲਦੀ ਹੀ ਦਵਾਦਸ਼ ਜਯੋਤਿਰਲਿੰਗ ਵਿੱਚੋਂ ਪਹਿਲੇ ਜਯੋਤਿਰਲਿੰਗ, ਸ਼੍ਰੀ ਸੋਮਨਾਥ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਨ ਜਾਵਾਂਗਾ ਅਤੇ ਸ਼ਰਧਾ ਰੂਪੀ ਸੰਕਲਪ ਪੁਸ਼ਪ ਨੂੰ ਸਮਰਪਿਤ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਹਰ ਭਾਰਤੀ ਦੇ ਲਈ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾ ਕਰਾਂਗਾ।

ਮਹਾਕੁੰਭ ਦਾ ਭੌਤਿਕ ਸਵਰੂਪ ਮਹਾਸ਼ਿਵਰਾਤਰੀ ਨੂੰ ਸੰਪੂਰਨਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਗਿਆ ਹੈ। ਪਰ ਮੈਨੂੰ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਹੈ, ਮਾਂ ਗੰਗਾ ਦੀ ਅਵਿਰਲ ਧਾਰਾ ਵਾਂਗ, ਮਹਾਕੁੰਭ ਦੀ ਅਧਿਆਤਮਿਕ ਚੇਤਨਾ ਦੀ ਧਾਰਾ ਅਤੇ ਏਕਤਾ ਦੀ ਧਾਰਾ ਨਿਰੰਤਰ ਵਹਿੰਦੀ ਰਹੇਗੀ।