मेरे अटल जी

Published By : Admin | August 17, 2018 | 09:09 IST

अटल जी अब नहीं रहे। मन नहीं मानता। अटल जी, मेरी आंखों के सामने हैं, स्थिर हैं। जो हाथ मेरी पीठ पर धौल जमाते थे, जो स्नेह से, मुस्कराते हुए मुझे अंकवार में भर लेते थे, वे स्थिर हैं। अटल जी की ये स्थिरता मुझे झकझोर रही है, अस्थिर कर रही है। एक जलन सी है आंखों में, कुछ कहना है, बहुत कुछ कहना है लेकिन कह नहीं पा रहा। मैं खुद को बार-बार यकीन दिला रहा हूं कि अटल जी अब नहीं हैं, लेकिन ये विचार आते ही खुद को इस विचार से दूर कर रहा हूं। क्या अटल जी वाकई नहीं हैं? नहीं। मैं उनकी आवाज अपने भीतर गूंजते हुए महसूस कर रहा हूं, कैसे कह दूं, कैसे मान लूं, वे अब नहीं हैं।

वे पंचतत्व हैं। वे आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सबमें व्याप्त हैं, वेअटल हैं, वे अब भी हैं। जब उनसे पहली बार मिला था, उसकी स्मृति ऐसी है जैसे कल की ही बात हो। इतने बड़े नेता, इतने बड़े विद्वान। लगता था जैसे शीशे के उस पार की दुनिया से निकलकर कोई सामने आ गया है। जिसका इतना नाम सुना था, जिसको इतना पढ़ा था, जिससे बिना मिले, इतना कुछ सीखा था, वो मेरे सामने था। जब पहली बार उनके मुंह से मेरा नाम निकला तो लगा, पाने के लिए बस इतना ही बहुत है। बहुत दिनों तक मेरा नाम लेती हुई उनकी वह आवाज मेरे कानों से टकराती रही। मैं कैसे मान लूं कि वह आवाज अब चली गई है। 

कभी सोचा नहीं था, कि अटल जी के बारे में ऐसा लिखने के लिए कलम उठानी पड़ेगी। देश और दुनिया अटल जी को एक स्टेट्समैन, धारा प्रवाह वक्ता, संवेदनशील कवि, विचारवान लेखक, धारदार पत्रकार और विजनरी जननेता के तौर पर जानती है। लेकिन मेरे लिए उनका स्थान इससे भी ऊपर का था। सिर्फ इसलिए नहीं कि मुझे उनके साथ बरसों तक काम करने का अवसर मिला, बल्कि मेरे जीवन, मेरी सोच, मेरे आदर्शों-मूल्यों पर जो छाप उन्होंने छोड़ी, जो विश्वास उन्होंने मुझ पर किया, उसने मुझे गढ़ा है, हर स्थिति में अटल रहना सिखाया है।

हमारे देश में अनेक ऋषि, मुनि, संत आत्माओं ने जन्म लिया है। देश की आज़ादी से लेकर आज तक की विकास यात्रा के लिए भी असंख्य लोगों ने अपना जीवन समर्पित किया है। लेकिन स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र की रक्षा और 21वीं सदी के सशक्त, सुरक्षित भारत के लिए अटल जी ने जो किया, वह अभूतपूर्व है।

उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि था -बाकी सब का कोई महत्त्व नहीं। इंडिया फर्स्ट –भारत प्रथम, ये मंत्र वाक्य उनका जीवन ध्येय था। पोखरण देश के लिए जरूरी था तो चिंता नहीं की प्रतिबंधों और आलोचनाओं की, क्योंकि देश प्रथम था।सुपर कंप्यूटर नहीं मिले, क्रायोजेनिक इंजन नहीं मिले तो परवाह नहीं, हम खुद बनाएंगे, हम खुद अपने दम पर अपनी प्रतिभा और वैज्ञानिक कुशलता के बल पर असंभव दिखने वाले कार्य संभव कर दिखाएंगे। और ऐसा किया भी।दुनिया को चकित किया। सिर्फ एक ताकत उनके भीतर काम करती थी- देश प्रथम की जिद।   

काल के कपाल पर लिखने और मिटाने की ताकत, हिम्मत और चुनौतियों के बादलों में विजय का सूरज उगाने का चमत्कार उनके सीने में था तो इसलिए क्योंकि वह सीना देश प्रथम के लिए धड़कता था। इसलिए हार और जीत उनके मन पर असर नहीं करती थी। सरकार बनी तो भी, सरकार एक वोट से गिरा दी गयी तो भी, उनके स्वरों में पराजय को भी विजय के ऐसे गगन भेदी विश्वास में बदलने की ताकत थी कि जीतने वाला ही हार मान बैठे।  

अटल जी कभी लीक पर नहीं चले। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में नए रास्ते बनाए और तय किए। आंधियों में भी दीये जलाने की क्षमता उनमें थी। पूरी बेबाकी से वे जो कुछ भी बोलते थे, सीधा जनमानस के हृदय में उतर जाता था। अपनी बात को कैसे रखना है, कितना कहना है और कितना अनकहा छोड़ देना है, इसमें उन्हें महारत हासिल थी।

राष्ट्र की जो उन्होंने सेवा की, विश्व में मां भारती के मान सम्मान को उन्होंने जो बुलंदी दी, इसके लिए उन्हें अनेक सम्मान भी मिले। देशवासियों ने उन्हें भारत रत्न देकर अपना मान भी बढ़ाया। लेकिन वे किसी भी विशेषण, किसी भी सम्मान से ऊपर थे।

जीवन कैसे जीया जाए, राष्ट्र के काम कैसे आया जाए, यह उन्होंने अपने जीवन से दूसरों को सिखाया। वे कहते थे, “हम केवल अपने लिए ना जीएं, औरों के लिए भी जीएं...हम राष्ट्र के लिए अधिकाधिक त्याग करें। अगर भारत की दशा दयनीय है तो दुनिया में हमारा सम्मान नहीं हो सकता। किंतु यदि हम सभी दृष्टियों से सुसंपन्न हैं तो दुनिया हमारा सम्मान करेगी” 

देश के गरीब, वंचित, शोषित के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए वे जीवनभर प्रयास करते रहे। वेकहते थे गरीबी, दरिद्रता गरिमा का विषय नहीं है, बल्कि यह विवशता है, मजबूरी हैऔर विवशता का नाम संतोष नहीं हो सकता”। करोड़ों देशवासियों को इस विवशता से बाहर निकालने के लिए उन्होंने हर संभव प्रयास किए। गरीब को अधिकार दिलाने के लिए देश में आधार जैसी व्यवस्था, प्रक्रियाओं का ज्यादा से ज्यादा सरलीकरण, हर गांव तक सड़क, स्वर्णिम चतुर्भुज, देश में विश्व स्तरीय इंफ्रास्ट्रक्चर, राष्ट्र निर्माण के उनके संकल्पों से जुड़ा था।

आज भारत जिस टेक्नोलॉजी के शिखर पर खड़ा है उसकी आधारशिला अटल जी ने ही रखी थी। वे अपने समय से बहुत दूर तक देख सकते थे - स्वप्न दृष्टा थे लेकिन कर्म वीर भी थे।कवि हृदय, भावुक मन के थे तो पराक्रमी सैनिक मन वाले भी थे। उन्होंने विदेश की यात्राएं कीं। जहाँ-जहाँ भी गए, स्थाई मित्र बनाये और भारत के हितों की स्थाई आधारशिला रखते गए। वे भारत की विजय और विकास के स्वर थे।

अटल जी का प्रखर राष्ट्रवाद और राष्ट्र के लिए समर्पण करोड़ों देशवासियों को हमेशा से प्रेरित करता रहा है। राष्ट्रवाद उनके लिए सिर्फ एक नारा नहीं था बल्कि जीवन शैली थी। वे देश को सिर्फ एक भूखंड, ज़मीन का टुकड़ा भर नहीं मानते थे, बल्कि एक जीवंत, संवेदनशील इकाई के रूप में देखते थे। “भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष हैयह सिर्फ भाव नहीं, बल्कि उनका संकल्प था, जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन न्योछावर कर दिया। दशकों का सार्वजनिक जीवन उन्होंने अपनी इसी सोच को जीने में, धरातल पर उतारने में लगा दिया। आपातकाल ने हमारे लोकतंत्र पर जो दाग लगाया था उसको मिटाने के लिए अटल जी के प्रयास को देश हमेशा याद रखेगा।

 

राष्ट्रभक्ति की भावना, जनसेवा की प्रेरणा उनके नाम के ही अनुकूल अटल रही। भारत उनके मन में रहा, भारतीयता तन में। उन्होंने देश की जनता को ही अपना आराध्य माना। भारत के कण-कण, कंकर-कंकर, भारत की बूंद-बूंद को, पवित्र और पूजनीय माना।

जितना सम्मान, जितनी ऊंचाई अटल जी को मिली उतना ही अधिक वह ज़मीन से जुड़ते गए। अपनी सफलता को कभी भी उन्होंने अपने मस्तिष्क पर प्रभावी नहीं होने दिया। प्रभु से यश, कीर्ति की कामना अनेक व्यक्ति करते हैं, लेकिन ये अटल जी ही थे जिन्होंने कहा,

हे प्रभु! मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना।

गैरों को गले ना लगा सकूं, इतनी रुखाई कभी मत देना

अपने देशवासियों से इतनी सहजता औरसरलता से जुड़े रहने की यह कामना ही उनको सामाजिक जीवन के एक अलग पायदान पर खड़ा करती है।

वेपीड़ा सहते थे, वेदना को चुपचाप अपने भीतर समाये रहते थे, पर सबको अमृत देते रहे- जीवन भर। जब उन्हें कष्ट हुआ तो कहने लगे- “देह धरण को दंड है, सब काहू को होये, ज्ञानी भुगते ज्ञान से मूरख भुगते रोए। उन्होंने ज्ञान मार्ग से अत्यंत गहरी वेदनाएं भी सहन कीं और वीतरागी भाव से विदा ले गए।  

यदि भारत उनके रोम रोम में था तो विश्व की वेदना उनके मर्म को भेदती थी। इसी वजह से हिरोशिमा जैसी कविताओं का जन्म हुआ। वे विश्व नायक थे। मां भारतीके सच्चे वैश्विक नायक। भारत की सीमाओं के परे भारत की कीर्ति और करुणा का संदेश स्थापित करने वाले आधुनिक बुद्ध। 

कुछ वर्ष पहले लोकसभा में जब उन्हें वर्ष के सर्वश्रेष्ठ सांसद के सम्मान से सम्मानित किया गया था तब उन्होंने कहा था, “यह देश बड़ा अद्भुत है, अनूठा है। किसी भी पत्थर को सिंदूर लगाकर अभिवादन किया जा रहा है, अभिनंदन किया जा सकता है।”

अपने पुरुषार्थ को, अपनी कर्तव्यनिष्ठा को राष्ट्र के लिए समर्पित करना उनके व्यक्तित्व की महानता को प्रतिबिंबित करता है। यही सवा सौ करोड़ देशवासियों के लिए उनका सबसे बड़ा और प्रखर संदेश है। देश के साधनों, संसाधनों पर पूरा भरोसा करते हुए, हमें अब अटल जी के सपनों को पूरा करना है, उनके सपनों का भारत बनाना है।

नए भारत का यही संकल्प, यही भावलिए मैं अपनी तरफ से और सवा सौ करोड़ देशवासियों की तरफ से अटल जी को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं, उन्हें नमन करता हूं।

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एकतेचा महाकुंभ- नव्या युगाची पहाट
February 27, 2025

प्रयागराजच्या पवित्र भूमीवर महाकुंभ यशस्वीरित्या संपन्न झाला आहे. जेव्हा देशाची जाणीव जागृत होते, जेव्हा ती अधीनतेच्या शतकानुशतके जुन्या मानसिकतेच्या जोखडातून मोकळी होते, तेव्हा ती नव्या उर्जेने भरलेल्या ताज्या हवेत मोकळा श्वास घेते. याचाच परिणाम प्रयागराज येथे 13 जानेवारीपासून सुरु झालेल्या एकता का महाकुंभ म्हणजेच एकतेच्या महाकुंभमध्ये पाहायला मिळाला.

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दिनांक 22 जानेवारी, 2024 रोजी, अयोध्येत राम मंदिराच्या प्राण प्रतिष्ठेच्या वेळी मी देवभक्ती आणि देशभक्ती म्हणजेचे अनुक्रमे दैवी शक्तींची भक्ती आणि राष्ट्राची भक्ती याबाबत विचार मांडले होते. प्रयागराज येथील महाकुंभात देवी आणि देवता, संत, महिला, लहान मुले, तरुण वर्ग, ज्येष्ठ नागरिक आणि जीवनाच्या सर्व स्तरांवरील लोक एकत्र आले. देशामध्ये जागृत झालेल्या जाणिवेचे दर्शन यावेळी घडले. या पवित्र पर्वासाठी सुमारे 140 कोटी भारतीयांच्या भावना एकाच जागी, एकाच वेळी एकवटल्या होत्या, असा हा एकतेचा महाकुंभ होता.

प्रयागराजच्या या पूजनीय प्रदेशात श्रुंगवेरपूर ही एकता, सुसंवाद आणि प्रेमाने भरलेली पवित्र भूमी आहे. श्रीराम आणि निषादराज येथेच परस्परांना भेटले असे म्हणतात. त्यांची ही भेट भक्ती आणि सद्भावनेचे प्रतीक मानली जाते. आजही, प्रयागराज याच भावनेसह आपल्याला प्रेरित करते.

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या 45 दिवसांत देशाच्या प्रत्येक कानाकोपऱ्यातून कोट्यवधी लोक संगमावर येत होते. संगमाच्या जागी भावभक्तीच्या लाटा उसळत होत्या. प्रत्येक भाविक येथे एकाच उद्देशाने आला- संगमात स्नान करणे. गंगा, यमुना आणि सरस्वती यांचा हा पवित्र संगम प्रत्येक यात्रेकरुचे मन उत्सुकता, उर्जा आणि विश्वासाने भरून टाकत होता.

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प्रयागराज मधील महाकुंभ म्हणजे आधुनिक व्यवस्थापन क्षेत्रातील व्यावसायिक, नियोजन आणि धोरण क्षेत्रातील तज्ञ यांच्यासाठी एक अभ्यासाचा विषय ठरला आहे. जगात या भव्यतेशी समांतर असेल किंवा त्याचे उदाहरण ठरेल असे आयोजन कुठेही झालेले नाही.

प्रयागराज येथे नद्यांच्या संगमाच्या ठिकाणी, किनाऱ्यांवर कशा प्रकारे कोट्यवधी लोक गोळा झाले ते संपूर्ण जगाने आश्चर्यचकित होऊन पाहिले. या लोकांना कोणतेही औपचारिक निमंत्रण देण्यात आले नव्हते आणि कधी-कुठे जायचे आहे यासंदर्भात त्यांच्यात आधी कोणताही संवाद झालेला नव्हता. तरीही, कोटीच्या कोटी लोक स्वतःच्या मर्जीने महाकुंभाच्या ठिकाणी पोहोचण्यासाठी निघाले आणि त्यांनी पवित्र जलात स्नान करण्याचे भाग्य अनुभवले.

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या पवित्र स्नानानंतर अतीव आनंद आणि समाधानाने चमकणारे त्यांचे चेहरे मी विसरु शकत नाही. महिला, वयोवृध्द, आपले दिव्यांग बंधू-भगिनी अशा सर्वांनी संगमावर पोहोचण्याचा मार्ग शोधून काढला.

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या सोहोळ्यात भारतातील तरुणांचा प्रचंड प्रमाणातील सहभाग बघणे माझ्यासाठी विशेष हृदयस्पर्शी होते. महाकुंभासारख्या पर्वात तरुण पिढीचा सहभाग असा गहन संदेश देतो की भारतीय युवक आपल्या वैभवशाली संस्कृती आणि वारशाचे मशालवाहक असतील. ही संस्कृती आणि वारसा जपण्याची त्यांची जबाबदारी त्यांना माहित असून ती पुढे नेण्याप्रती ते कटिबद्ध आहेत.

महाकुंभात उपस्थित राहण्यासाठी प्रयागराजला आलेल्या लोकांच्या संख्येने निःसंशयपणे नवे विक्रम रचले आहेत. मात्र, प्रत्यक्ष तेथे हजर असलेल्या लोकांबरोबरच जे प्रयागराजला पोहोचू शकले नाहीत असे कोट्यवधी लोक देखील मनाने या सोहोळ्याशी घट्टपणे बांधले गेले होते.तेथे गेलेल्या भाविकांनी आणलेले पवित्र जल लाखो लोकांसाठी अध्यात्मिक आशीर्वादाचा स्त्रोत ठरले.महाकुंभाला उपस्थित राहून परतलेल्या अनेकांचे त्यांच्या गावांमध्ये आदराने स्वागत झाले, समाजाने त्यांचा गौरव केला.

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गेल्या काही आठवड्यांत जे घडले, ते अभूतपूर्व असून, त्याने येणाऱ्या काही शतकांसाठी पाया रचला आहे.

प्रयागराजमध्ये कल्पनेपेक्षा अधिक भाविक दाखल झाले. कुंभमेळ्यातील मागील अनुभवांच्या आधारावर प्रशासनाने भाविकांच्या उपस्थितीचा अंदाज बांधला होता.

या एकतेच्या महाकुंभात अमेरिकेच्या लोकसंख्येच्या जवळजवळ दुप्पट संख्येने भाविक सहभागी झाले.

अध्यात्माच्या अभ्यासकांनी कोट्यवधी भारतीयांच्या या उत्साही सहभागाचे विश्लेषण केले, तर त्यांना असे दिसून येईल, की आपल्या वारशाचा अभिमान बाळगणारा भारत आता एका नव्या ऊर्जेने पुढे जात आहे. मला विश्वास आहे, की ही एका नवीन युगाची पहाट आहे, जी नव्या भारताचे भविष्य लिहिणार आहे.

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हजारो वर्षांपासून या महाकुंभाने भारताची राष्ट्रीय जाणीव बळकट केली आहे. प्रत्येक पूर्णकुंभात संत, अभ्यासक आणि विचारवंत आपापल्या काळातील समाजाच्या स्थितीवर चर्चा करण्यासाठी एकत्र येत होते. त्याचे प्रतिबिंब देशाला आणि समाजाला नवी दिशा देत होते. दर सहा वर्षांनी अर्धकुंभादरम्यान या कल्पनांचा आढावा घेतला जात असे. 144 वर्षांच्या 12 पूर्णकुंभ सोहळ्यानंतर, कालबाह्य परंपरांचा त्याग करण्यात आला, नवीन कल्पना आत्मसात करण्यात आल्या आणि काळा बरोबर पुढे जात नव्या परंपरा निर्माण करण्यात आल्या.

144 वर्षांनंतर यंदाच्या महाकुंभात आपल्या संतांनी पुन्हा एकदा भारताच्या विकासयात्रेसाठी नवा संदेश दिला आहे. तो संदेश म्हणजे, विकसित भारत.

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या एकतेच्या महाकुंभात प्रत्येक भाविक, मग तो श्रीमंत असो वा गरीब, तरुण असो वा वृद्ध, खेड्यापाड्यातील असो वा शहरातील, भारतातील असो, अथवा परदेशी, पूर्वेकडील असो, की पश्चिमेकडील, उत्तरेकडील असो, की दक्षिणेकडील, जात, पात, विचारधारा यांचा विचार न करता या ठिकाणी सर्वजण एकत्र आले. कोट्यवधी लोकांमध्ये आत्मविश्वास जागवणाऱ्या 'एक भारत श्रेष्ठ भारत' या संकल्पनेचे हे मूर्त रूप होते. विकसित भारताच्या उद्दिष्ट पूर्तीसाठी आता आपण याच भावनेने एकत्र यायला हवे.

श्रीकृष्णाने बालपणी यशोदा मातेला आपल्या मुखात संपूर्ण विश्वाचे दर्शन घडवले होते, तो प्रसंग मला आठवतो. त्याचप्रमाणे या महाकुंभात भारताच्या सामूहिक सामर्थ्याची प्रचंड क्षमता भारतीयांनी आणि जगभरातील लोकांनी पाहिली. आपण आता याच आत्मविश्वासाने पुढे जायला हवे आणि विकसित भारताच्या उभारणीसाठी स्वत:ला समर्पित करायला हवे.

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यापूर्वी भक्ती चळवळीतील संतांनी भारतभरातील आपल्या सामूहिक संकल्पाची ताकद ओळखून त्याला प्रोत्साहन दिले होते. स्वामी विवेकानंदांपासून ते अरविंदांपर्यंत प्रत्येक थोर विचारवंताने आपल्याला सामूहिक संकल्पांच्या शक्तीची जाणीव करून दिली. स्वातंत्र्य चळवळीच्या काळात महात्मा गांधींनीही याचा अनुभव घेतला होता. स्वातंत्र्योत्तर काळात जर या सामूहिक शक्तीची ताकद ओळखली गेली असती, आणि त्याचा उपयोग सर्वांच्या कल्याणासाठी झाला असता, तर नुकतेच स्वातंत्र्य प्राप्त केलेल्या आपल्या देशासाठी ती एक मोठी ताकद ठरली असती. दुर्दैवाने, हे यापूर्वी केले गेले नाही. विकसित भारतासाठी लोकांची ही सामूहिक शक्ती ज्या प्रकारे एकत्र येत आहे, ते पाहून मला आनंद वाटत आहे.

वेदांपासून ते विवेकानंदांपर्यंत, प्राचीन धर्मग्रंथांपासून ते आधुनिक उपग्रहांपर्यंत, भारताच्या महान परंपरेने हा देश घडवला आहे. एक नागरिक म्हणून मी प्रार्थना करतो की, आपण आपल्या पूर्वजांच्या आणि संतांच्या आठवणींमधून नवी प्रेरणा घ्यावी. हा एकतेचा महाकुंभ आपल्याला नवे संकल्प घेऊन पुढे जाण्यासाठी सहाय्य करेल. आपण एकतेला आपले मार्गदर्शक तत्त्व बनवूया. राष्ट्रसेवा हीच ईश्वरसेवा आहे, या विचाराने आपण काम करूया.

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काशी इथे निवडणूक प्रचार करत असताना मी म्हटले होते, की माता गंगेने मला बोलावणे धाडले आहे. हे केवळ एक भावनात्मक विधान नव्हते, तर तो आपल्या पवित्र नद्यांच्या स्वच्छतेच्या जबाबदारीप्रती प्रतिसाद होता. प्रयागराजमध्ये, जिथे गंगा, यमुना आणि सरस्वती यांचा संगम होतो, तिथे उपस्थित असताना तर माझा हा संकल्प अधिकच दृढ झाला. आपल्या नद्यांची स्वच्छता आपल्या स्वतःच्या जगण्याशी खूपच खोलवर जोडली गेलेली आहे. मोठ्या असोत किंवा लहान, आपल्या नद्यांना जीवनदायीनी प्रमाणे जपणे हीच आपली जबाबदारी आहे. या महाकुंभने आपल्याला आपल्या नद्यांच्या स्वच्छतेसाठी सातत्याने काम करत राहण्याची प्रेरणा दिली आहे.

मला जाणीव आहे की, एवढ्या भव्य सोहळ्याचे आयोजन करणे हे काही सोप्पे काम नव्हते. मी माता गंगा, माता यमुना आणि माता सरस्वतीला प्रार्थना करतो की, आमच्या भक्तीत कोणतीही त्रुटी राहिली असेल, तर त्यांनी आम्हाला क्षमा करावी. मी जनता जनार्दनाला, लोकांना देवत्वाचे प्रतीक मानतो. त्यांची सेवा करण्याच्या प्रयत्नांमध्ये देखील जर कोणतीही उणीव राहिली असेल, तर जनतेनेही क्षमा करावी अशी मी प्रार्थना करतो.

कोट्यवधी लोक भक्तिभावाने या महाकुंभसाठी आले होते. त्यांची सेवा करणे ही एक जबाबदारी होती आणि तीही आम्ही त्याच भक्ती भावनेने पार पाडली. उत्तर प्रदेशाचे प्रतिनिधित्व करणारा संसदेतील सदस्य म्हणून मला अभिमानाने सांगावेसे वाटते की, योगीजींच्या नेतृत्वाखाली इथल्या प्रशासनाने आणि जनतेने एकत्र येऊन हा एकतेचा महाकुंभ यशस्वी केला. राज्य सरकार असो वा केंद्र सरकार, इथे कुणीही शासक किंवा प्रशासक नव्हते, तर प्रत्येक जण म्हणजे समर्पण भावनेने काम करणारे सेवकच होते. स्वच्छता कर्मचारी, पोलीस, नावाडी, वाहनचालक, अन्नदानाची सेवा देणारे लोक – अशा प्रत्येकाने अथक परिश्रम घेतले. प्रयागराजच्या जनतेने त्यांना अनेक अडचणी सहन कराव्या लागत असतानाही, ज्या उत्साहाने अंतःकरणापासून यात्रेकरूंचे स्वागत केले, ते तर विशेषत्वाने प्रेरणा देणारेच होते. याबद्दल मी त्यांचे आणि उत्तर प्रदेशातील जनतेचे मनःपूर्वक आभार मानतो आणि त्यांचे कौतुकही करतो.

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माझा आपल्या देशाच्या उज्ज्वल भविष्यावर कायमच अढळ विश्वास राहिला आहे. या महाकुंभातून मिळालेल्या अनुभवाने तर हा विश्वास आता अनेक पटींनी वाढला आहे.

140 कोटी भारतीयांनी या एकतेच्या महाकुंभला ज्या रितीने जागतिक स्तरावरील एका भव्य सोहळ्याचे स्वरुप मिळवून दिले ते खरोखरच अद्भुत आहे. आपल्या लोकांच्या समर्पण भावनेने, त्यांच्यातील भक्तीभावाने आणि प्रयत्नांनी प्रेरित होऊन मी लवकरच 12 ज्योतिर्लिंगांपैकी पहिले ज्योतिर्लिंग असलेल्या श्री सोमनाथ इथे भेट देणार आहे, तिथे मी या सामूहिक राष्ट्रीय प्रयत्नांचे फलित त्यांना अर्पण करणार आहे आणि प्रत्येक भारतीयासाठी प्रार्थनाही करणार आहे.

एक आयोजन म्हणून महाकुंभच्या या सोहळ्याचा महाशिवरात्रीला यशस्वी समारोप झाला असला, तरी देखील ज्याप्रमाणे गंगेचा प्रवाह जसा अनंत आहे, त्याचप्रमाणे या महाकुंभने जागृत केलेली आध्यात्मिक शक्ती, राष्ट्रीय जाणीवा आणि ऐक्याची भावना भावी पिढ्यांना सतत प्रेरणा देत राहणार आहे.