बेचराजी मतलब मां बहुचर का पवित्र यात्राधाम। बेचराजी की पवित्र भूमि ने अनेक सपूतों, दाता और देशप्रेमी दिए हैं। इस धरती के ऐसे ही सपूत स्वतन्त्रता सेनानी और समाज सेवक श्री प्रहलादजी हरगोवनदास पटेल की 115वीं जन्म जयंती के अवसर पर उनका पुण्य स्मरण करने का यह अवसर है और वह भी नवरात्रि के पावन त्यौहारों के बीच और माँ बहुचर के सान्निध्य में, विशेष तो आज हम देशवासी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, तब प्रहलादभाई जैसे देशभक्त को याद करने का निमित्त बनने का मुझे विशेष आनंद है।
प्रहलादभाई मूलतः सीतापुर गांव के थे, लेकिन बेचराजी आकर बस गए थे। और प्रहलादजी सेठ लाटीवाला के नाम से पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध हुए। वे इस प्रदेश के लिए मानो कृष्ण भगवान के शामलिया सेठ बनकर आए और समाज कल्याण के लिए निरंतर उदार मन से उन्होंने सेवा की थी। आजादी की लड़ाई के दौरान प्रहलादभाई गांधी जी की आहवाहन सुनकर अनेक युवाओं की तरह आजादी के आंदोलन में सक्रिय हुए। साबरमती और यरवडा जेल में कारावास भी सहे। ऐसे ही एक कारावास के दौरान उनके पिताजी का निधन हो गया, लेकिन अंग्रेज सरकार को माफीनामा लिख कर देने से और पैरोल पर छुटने के लिए उन्होंने स्पष्ट इनकार कर दिया। उनके माता-पिता का अंतिम संस्कार उनके चचेरे भाई ने किया। इस तरह परिवार से पहले देशहित को आगे रखकर उन्होंने ‘राष्ट्र प्रथम’ के विचार को जी कर बताया। आजादी के जंग में उन्होंने भूगर्भ प्रवृतियां भी कीं थीं और बहुत सारे सेनानियों को बेचराजी में छुपाया था। आजादी के बाद देश के छोटे-मोटे राज्यों के विलिनीकरण में सरदार साहब के निर्देश से उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और दसाडा, वणोद और जैनाबाद जैसे राज्यों को भारत से जोड़ने में सक्रिय योगदान दिया। कई बार अफसोस होता है की ऐसे राष्ट्रभक्तों का उल्लेख देश के इतिहास की किताबों में दीपक लेकर ढूंढे तो भी नहीं मिलता है।
यह हम सब का कर्तव्य है कि हम सब यह तय करें कि प्रहलाद भाई जैसे सेनानियों की वीरगाथा नई पीढ़ी को जानने के लिए मिले। उसमें से वे प्रेरणा प्राप्त करें। आजादी की लड़ाई के बाद स्वतंत्र भारत में भी वो शांति से नहीं बैठे थे। लेकिन सामाजिक कार्यो में ओत-प्रोत रहे। 1951 में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़े और अपनी मालिकाना हकवाली 200 बीघा जमीन दान में दे दी थी। एक भूमि पुत्र द्वारा अनेक भूमिहीनों के हित में लिया गया यह एक उम्दा कदम था। 1962 में मुंबई से अलग राज्य बने गुजरात के प्रथम चुनाव में चाणस्मा सीट से लड़े और जनप्रतिनिधि बनकर लोकप्रश्नो को आवाज़ दी और पूरे प्रदेश को विकास के मार्ग पर ले गए। मुझे याद है तब मैं संघ का कार्य करता था। संघ के कार्य के लिए अलग-अलग जगह जाना होता था। और जब भी बेचराजी जाना हो तब लोगों के लिए प्रहलादभाई की लाटी मानो लोककल्याण के लिए स्वयं जगह बन गई थी। ट्रस्टीशिप की भावना से काम करने वाले प्रहलादभाई गुजरात की महाजन परंपरा के कड़ी समान थे। प्रहलाद भाई का स्मरण करें और उनकी धर्मपत्नी काशी बा को याद न करें तो बात अधूरी रह जाएगी। काशी बा आदर्श गृहिणी तो थी ही, लेकिन उन्होंने कस्तूरबा की तरह नागरिक धर्म भी अदा किया और पति के साथ अपना मजबूत साथ दिया। उनकी पूरी जीवन परंपरा, कार्य परंपरा, छोटी-छोटी बातें, उस समय की परिस्थिति में कार्य करने की उनकी चाह आजादी के जंग का अमूल्य दस्तावेज है। उनके कार्य और सामाजिक योगदान का डोक्यूमेंटेशन होना चाहिए, जो आज की पीढ़ी को नई जानकारी देगा और आने वाली पीढ़ी के लिए वह प्रेरणादायी होगा। अपने जीवनकाल में तो वे लोकसेवा में अग्रसर थे, लेकिन मृत्यु के बाद भी नेत्रदान का संकल्प किया। आप सोचिए, उस जमाने में जब नेत्रदान के बारे में जागरुकता नहीं थी, तब भी उन्होंने ऐसा किया। यह संकल्प कितना बड़ा था, कितना प्रेरक था।
गुजरात की सभी यूनिवर्सिटीज़ को राज्य के कोने-कोने से ऐसे महापुरुषों को ढूंढकर, उनकी अनजानी, बीसरी हुई उनकी गाथाओं का संकलन कर के किताब के रूप में उसे प्रसिद्ध करना चाहिए। जिससे आजादी के अमृत महोत्सव की सही मायने में सार्थकता मिलेगी। श्री प्रहलादभाई देशभक्ति, कर्तव्यपरायणता और सेवा भावना के त्रिवेणी संगम समान थे। आज उनके समर्पण को याद करें और नवीन भारत, नये भारत, उसे और उन्नत करने कि दिशा में प्रेरणा लें। यही उन्हें सही मायने में सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है। मैं आदरपूर्वक प्रहलादभाई के उम्दा कार्यो को सम्मान देता हूँ, उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ और मां बहुचर के सान्निध्य में माता बहुचर को नमन करके मां भारती की सेवा करने वाले सभी के चरणों में वंदन करके मेरी बात को संपन्न कर रहा हूँ।
भारत माता की जय!
जय जय गरवी गुजरात!