गत वर्ष भी मुझे उन छात्रों को मिलने का मौका मिला था जो परीक्षा के लिए तैयारी कर रहे थे। इस बार भी मुझे मौका मिला है, मैं शिक्षा विभाग का आभारी हूं कि मुझे आप लोगों से मिलने का मौका दिया। आज खुशी की बात ये है कि करीब-करीब हिन्दुस्तान के सभी राज्यों के विद्यार्थी आज यहां मौजूद हैं। एक प्रकार से लघु भारत मेरे सामने है। लेकिन दूसरे प्रकार से भावी भारत भी मेरे सामने है।
आप लोगों से संवाद करने से पहले आज सुबह ही हमारे देश के पूर्व रक्षा मंत्री श्रीमान जॉर्ज फर्नांडीज, उनका निधन हो गया। वे एक जुझारू नेता थे; जन्म भूमि कहीं, कर्म भूमि कहीं, जन प्रतिनिधित्व कहीं; एक प्रकार से पूरे भारत में रचे-बसे थे वो। आपातकाल में, इमरजेंसी में लोकतंत्र की स्थापना के लिए बहुत बड़ा संघर्ष किया था उन्होंने। लेकिन गत कई वर्षों से वो बीमार थे, unconscious थे, सालों तक बिस्तर पर रहे; आज वो में छोड़कर चले गए। मैं आदरपूर्वक जॉर्ज साहब को श्रद्धासुमन अर्पित करता हूं।
साथियो, ये परीक्षा पे चर्चा पिछली बार और इस बार, में अनुभव के आधार पर भी बदलाव आए हैं। दुनिया के कई देशों से भी लोगों की मांग थी तो वो भी जुट रहे हैं। उसी प्रकार से भारत के भी सभी राज्यों से प्रतिनिधित्व हो, वहां के विद्यार्थियों से बात हो। इसमें senior students भी हैं, junior students भी हैं। और ये बात अधूरी रहती अगर इसमें अभिभावक न होते, parents न होते, teachers न होते; और इसलिए कोशिश ये की गई है कि एक प्रकार से विद्यार्थी के जीवन में जो सीधे संपर्क में आते हैं, उन सबसे संवाद करने का ये अवसर बने।
अभी जो एक नृत्य प्रस्तुति हुई, मैं समझता हूं कि उसमें जो बातें बताई गई हैं, उसके बाद मेरे कोई भाषण की आवश्यकता नहीं है। वो सारी बातें उसमें समाहित हैं। अगर हम उसको ही आज का संदेश मान लें तो मेरे समेत यहां उपस्थित और देश में इस कार्यक्रम को देखने वाले हर किसी के लिए एक नया विश्वास पैदा करने वाली, नई आशा पैदा करने वाली वो एक नृत्य प्रस्तुति थी। मैं उन सबको बहुत बधाई देता हूं और उस पूरे कार्यक्रम में रीना ने जो कमाल दिखाया है; दो हाथ नहीं, एक पैर नहीं; फिर भी जिंदगी का जज्बा कुछ और है।
अभी हम देख रहे थे वीडियो पुराना, उसमें भी मैंने बताया था, यहां आप ये भूल जाइए कि आप किसी समारोह में बैठे हैं। आप ऐसा ही मानिए कि आप अपने परिवार में बैठे हैं और परिवार में ही गप-गोष्ठी कर रहे हैं और अपने ही परिवार का कोई चिर-परिचित चेहरा हमसे गप्पें मार रहा है। अगर ये हल्का-फुलका वातावरण रहेगा तो शायद मुझे भी बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
मेरे लिए ये कार्यक्रम किसी को उपदेश देने के लिए नहीं है। न मुझे अभिभावकों को कोई उपदेश देना है, न teachers को कोई उपदेश देना है और न ही विद्यार्थियों को देना है। मैं यहां आपके बीच खुद को अपने जैसा, आपके जैसा, आपकी स्थिति-मन:स्थिति वाला, कुछ पल मैं जीना चाहता हूं- जैसे आप जीते हैं।
आइए शुरू करते हैं- कहां से शुरू करेंगे?
प्रस्तुतकर्ता – माननीय, इस बार students भी हैं teacher भी हैं और parents भी हैं और वो भी देश से भी हैं विदेश से भी हैं। सबसे पहले रोलीदत्ता, जो कि कोलकाता से हैं, एक टीचर हैं और वो आपसे सवाल पूछना चाहती हैं।
प्रश्नकर्ता – नमस्कार सर, My name is Ruli Datta and I teach biology at केन्द्रीय विद्यालय कोलकाता। My question to you sir, is, As a teacher हमें उन parents को क्या कहना चाहिए, जो ये समझते हैं कि एग्जाम से उनके बच्चों का भविष्य या तो बन सकता है या बिगड़ सकता है?
प्रस्तुतकर्ता – माननीय, इसी से मिलता-जुलता एक और सवाल है जो हमारे बीच में इस वक्त बैठे हैं रोहित श्री, जो कि basically Kerala से हैं लेकिन दिल्ली में रहकर civil services की तैयारी कर रहे हैं। आपसे कुछ पूछना चाहते हैं।
प्रश्नकर्ता – माननीय प्रधानमंत्री जी नमस्कार, मेरा नाम रोहितश्री है, मैं केरला का रहने वाला हूं और मैं अभी दिल्ली में UPSC की तैयारी कर रहा हूं। महोदय हमारे parents और हमारे टीचर्स की हमारे ऊपर कुछ ज्यादा ही उम्मीद रहती है, जिसकी वजह से हमारे ऊपर बहुत प्रेशर भी रहता है। महोदय, मुझे लगता है आपका भी हाल कुछ हमारे जैसा है। देशवासियों को आपसे कुछ अधिक ही अपेक्षाएं हैं। प्रधानमंत्री जी आप हमें बताइए आप इस expectations के साथ कैसे deal करते हैं, और हम इसके साथ कैसे deal करें? धन्यवाद।
प्रस्तुतकर्ता – माननीय, आपसे निवेदन है कि कृपया इन्हें प्रेरणा दें।
मोदीजी – आप केरल से हैं लेकिन मुझसे भी ज्यादा अच्छी हिन्दी बोल रहे हैं। आपमें से बहुतों को जब 10वीं या 12वीं कक्षा में जाते होंगे या final exam होगा, किसी को दिन में दस बार सुनना पड़ता है, समझ नहीं आता है, दोस्तों के साथ टेलीफोन पर बैठे रहते हो, चलो कम्प्यूटर छोड़ो, कुछ पढ़ाई करो। क्या कर रहे हो? ऐसा ही होता है ना? सच बताइए ना?
दरअसल परीक्षा का महत्व तो है, उससे इंकार नहीं कर सकते। और मैं ये तो नहीं कह सकता हूं कि परवाह मत करो यार, जो होगा सो होगा, देखा जाएगा- ऐसा तो नहीं कह सकता। लेकिन, क्या ये परीक्षा जिंदगी की परीक्षा है क्या, कि उस क्लास की परीक्षा है? अगर एक बार मन में तय करें भई exam 10वीं कक्षा का है या exam 12वीं कक्षा का है, ये मेरी जिंदगी की कसौटी नहीं है। अगर इतना सा हम सोच लें तो हमारा जो भार है, बोझ है; वो भी कम हो जाएगा शायद उस एक काम के लिए हमारा फोकस बढ़ जाएगा। अभी नहीं तो कभी नहीं- ये जो कुछ कहते हैं ना भई अब 10वीं में गया तो सब बेकार, जिंदगी पूरी; ऐसा कुछ नहीं है। परीक्षा के गलियारे से ही निकली हुई जिंदगी होती है, ऐसा नहीं है; उसके बाहर भी बहुत बड़ी दुनिया होती है।
बहुत पहले मैंने एक कविता पढ़ी थी, उसमें एक बढ़िया वाक्य था। उसमें लिखा था- पूरी कविता तो मुझे याद नहीं है आज-
’कुछ खिलौने के टूटने से बचपन नहीं मरा करता’
में समझता हूं इसमें बहुत बड़ा संदेश है- कुछ खिलौने के टूटने से बचपन नहीं मरा करता है। एकाध exam में कुछ इधर-उधर हो जाए तो जिंदगी ठहर नहीं जाती। लेकिन जीवन में हर पल कसौटी होना बहुत जरूरी है। कसौटी हमें कसती है, कसौटी से हम एक नई ऊर्जा प्राप्त करते हैं, हमारे जो भीतर की उत्तम से उत्तम वि़द्या है, वो प्रकट होने का अवसर होता है। अगर हम अपने-आपको कसौटी के तराजू पर झोंकेंगे नहीं, तब तो जिंदगी में ठहराव आ जाएगा और ठहराव जिंदगी नहीं हो सकती। जिंदगी का मतलब ही होता है गति, जिंदगी का मतलब ही होता है सपने, जिंदगी का मतलब ही होता है जी-जान से उसको achieve करने के लिए लगे रहना, वरना उस जिंदगी का क्या मतलब है? और दूसरी बात है pressure. कभी-कभी तो हम बालकों की मन:स्थिति ऐसी होती है कि एक अवस्था में हम पहुंच जाते हैं कि मां, मम्मी-पापा कुछ भी कहें तो हमें लगता है ये मुझे बिगाड़ रहे हैं। मैं कुछ भी कर रहा हूं ये सही है, इनको कुछ समझ नहीं आती है। ऐसा ही होता है ना? ये कुछ समझते ही नहीं हैं। ऐसा होता है ना?
पहले हम, खास करके मैं students से कहना चाहूंगा, कि हम अपने मां-बाप जो कहते हैं उसको immediate react न करें, गौर से सुनें। सुनते समय भी उनको लगना चाहिए कि आप attentive हैं। आपको अच्छा लग रहा है। बहुत चाव से सुन रहे हैं। एकाध बार पूछे- अरे मम्मा, ये समझ नहीं आया, जरा क्या कह रहीं थीं? एक बार इतना कर लीजिए, शाम होते-होते मम्मा कहेगी कि बेटा सुबह मैंने बहुत कह दिया तुझे। आपको मम्मा को समझाना नहीं पड़ेगा। वो अपने-आप समझ जाएगी।
इसलिए छोटी चीजें व्यवहार की होती हैं। और फिर कभी जब मम्मी-पापा अच्छे मूड में हों, तो आप भी अपना दृष्टिकोण- कि मैंने बड़ा सोचा- आपने उस दिन कहा था ना Monday को- बहुत अच्छी बात बताई थी, मैंने कोशिश भी की, फिर भी कम पड़ गया। मुझे बताइए ना कैसे करूं? आपका exam पूरा, उनका exam शुरू। घंटे भर उनको समझ नहीं आएगा क्या जवाब दें। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं आपके मां-बाप की बोलती बंद करना सिखाता हूं, लेकिन कभी-कभी न सुनने से टकराव पैदा होता है। बाद में मां-बाप से देखिए एक मित्र भाव से आपका संवाद शुरू होगा, वे आपके helping hand हो जाएंगे।
मेरा अभिभावकों से भी आग्रह है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि आपने बचपन में सोचा था डॉक्टर बनना है, अब क्लर्क बन गए तो सारी सजा बच्चों को दे रहे हो। वो मां-बाप विफल हैं जो अपने जीवन की अधूरी चीजें अपने बच्चों पर थोप करके उनसे करवाने की कोशिश करते हैं, उन्होंने नहीं करना चाहिए। उसके भीतर जो potential है, जो सामर्थ्य है, उसको जानने-पहचानने का प्रयास करना चाहिए। अच्छा, ऐसा नहीं है कि किसी मां-बाप को इसके लिए ट्रेनिंग की जरूरत होती है। आपने देखा होगा- घर में छोटा बच्चा होता है वो उठ करके चलना सीखता है- तो मां क्या करती है- वो उठता है, एक-दो कदम चलके गिर जाता है, तो डांटती है क्या? ताली बजाती है। ताली बजाती है- उस बच्चे को लगता है, गिरना बुरा नहीं है। अब किसी मां को किसी प्रधानमंत्री ने लैक्चर दिया था क्या कि बच्चा गिर जाए तो ताली बजाना? किसी किताब में पढ़ा था क्या? लेकिन उसको मालूम है कि बच्चे का हौसला बढ़ाना है। फिर क्या करेगी- तीन-चार कदम चलना सीखेगा तो मां उसकी कोई प्रिय चीज ले करके दूर खड़ी रहेगी और कहेगी- आओ, आओ, आओ- हैं, हटती जाएगी, ऐसा करती है ना? और बच्चे को भी लगता है कि मैं जरा दौड़ करके ले आऊं। उसका हौसला बुलंद करते हैं मां-बाप। लेकिन ये सब ज्ञान होने के बाद, बचपन में सब किया होने के बाद भी एक स्थिति आने के बाद मां का मन हो जाता है, बाप का मन हो जाता है, बस अब तो वो तैयार हो गया, मुझे कुछ करने की जरूरत नहीं है। गलती वहीं से शुरू होती है। मां-बाप ने जीवन भर बच्चे को उसी रूप में देखना चाहिए, पुचकारना चाहिए, प्रोत्साहित करना चाहिए अगर गिर भी जाता है तो हौसला बुलंद करना चाहिए। उसको नीचे गिरता हुआ देख करके उसको डांटते रहने से कोई परिवर्तन नहीं आएगा।
जहां तक अपेक्षाओं का सवाल है, एक प्रकार से अपेक्षाएं अच्छी चीज हैं। मैंने कहा ना- बालक को मां दूर रह करके दौड़ाती है, वो अपेक्षा है कि तुम भई अब दस कदम दौड़ कर मेरे पास आओ। अपेक्षा आवश्यक होती है। अपेक्षाओं के कारण हमें भी कुछ ज्यादा करने की इच्छा जागती है। अगर अपेक्षाएं ही नहीं होंगी तो आप मुझे बताइए- एक पेशेंट हो, जिसमें जीने की इच्छा ही न हो, अब ठीक होने का मन ही न करता हो, ऐसे ही छोड़छाड़ कर मृत्यु का इंतजार कर रहा है, कितने ही बढ़िया से बढ़िया डॉक्टर ला दो, कितना ही बढ़िया से बढ़िया अस्पताल ला दीजिए, वो पेशेंट ठीक हो सकता है क्या? हो सकता है क्या? तो निराशा की गर्त में डूबा हुआ समाज या व्यक्ति या परिवार कभी किसी का भला कर सकता है? और इसलिए आशा और अपेक्षा उर्ध्व गति के लिए अनिवार्य होती है। और मैं- जैसे आपने प्रश्न पूछा, क्योंकि आप आईएएस बनना चाहते हैं तो आपके मन में ये सवाल स्वाभाविक था। ये बहुत स्वाभाविक है कि समाज में अपेक्षाएं हों, निराशा नहीं होनी चाहिए। वरना ये छोड़ो यार, मोदी तो ऐसे ही हैं, कुछ होने वाला नहीं है, चलो यार अपना काम करें। जी नहीं, वो कहता है मोदीजी आप हो और ये नहीं होता है, ये तो विश्वास है। मैं तो चाहता हूं- लोग कहते हैं कि मोदी ने बहुतaspirations जगा दिए, मैं तो चाहता हूं सवा सौ करोड़ देशवासियों के सवा सौ करोड़ aspirations होने चाहिए, उसको उजागर करना चाहिए; देश तभी चलता है। अपेक्षाओं के बोझ में दबना नहीं चाहिए, हमें अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने-आपको सज्य करना चाहिए। चलिए- लंबा हो गया जवाब आपका।
प्रस्तुतकर्ता – सर, जम्मू से हमारे साथ जुड़ रहे हैं कृष्ण कुमार शर्मा, जो कि अभिभावक हैं। इनकी एक परेशानी है जो वो आपसे शेयर करना चाहते हैं।
प्रश्नकर्ता- नमस्कार साहब, मेरा नाम कृष्ण कुमार शर्मा है। मैं रूपनगर, जम्मू का रहने वाला हूं। आजकल बच्चों पर ही नहीं, हम parents पर भी हमारे साथियों का दबाव होता है, किसका बच्चा कितने अच्छे अंक लाता है। इस tension से बाहर कैसे निकला जाए ? धन्यवाद सर।
प्रस्तुतकर्ता – माननीय ऐसा ही एक सवाल है नॉर्थ-ईस्ट यानी इम्फाल से नीलाकुमारी ने पूछा है- ये भी एक अभिभावक हैं।
प्रश्नकर्ता I am Neela Kumari from Imphal, Manipur. As a parent and a working woman, I would like to know how can I destress myself during examination of my children? Thank You Sir.
प्रस्तुतकर्ता – अभिभावक के रूप में मेरे बच्चों के exams के वक्त मैं तनाव मुक्त कैसे रहूं? माननीय, बैंगलौर से एक सवाल पूछ रही हैं लावण्या, ये एक स्टूडेंट हैं।
प्रश्नकर्ता- Good morning, I am Lavanya. I am studying in St. Mary’s Public School, Queens Road, Bangaluru. My question is to Honorable Prime Minister. Good Morning Sir, Today my question is how can we students overcome the fear created by our parents, teachers and all our loved ones?
प्रस्तुतकर्ता – हम students हमारे parents, teachers तथा हमारे प्रियजनों के द्वारा बनाए गए दबाव का डर मन से कैसे निकालें। सर, बच्चों, parents, दोनों के ही तनाव की बात हो रही है। हम सब उत्सुक हैं आपका जवाब सुनने के लिए।
मोदीजी- अभिभावकों के लिए मेरा यही आग्रह होगा कि आपके सपने भी होने चाहिए, अपेक्षाएं भी होनी चाहिए लेकिन pressure से परिस्थिति बिगड़ जाती है। जब भी आप बच्चों को कभी, बहुत बढ़िया खाना बनाया मानो आपने। वो अपने मन से खा रहा है, लेकिन चूंकि आपने अच्छा बनाया है, आपको बहुत पसंद है- फिर बच्चों को कहो, खाओ, खाओ खाओ- वो खड़ा हो करके चला जाता है। होता है कि नहीं होता है? Pressure से reaction आता है। ऐसा न हो, इसका हमें पूरा ध्यान रखना चाहिए। लेकिन मां-बाप ऐसा क्यों करते हैं? उसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक कारण है। और मनोवैज्ञानिक कारण ये है कि वे कभी-कभी अपने यार-दोस्तों या family function में या social function में जाते हैं तो अपने बच्चे का रिपोर्ट कार्ड अपना visiting card बना करके ले जाते हैं। ये सबसे बड़ी समस्या की जड़ है कि उनको सोसायटी में- मेरा बेटा ये किया, मेरे बेटे ने ये किया, मेरे बेटे, बस इसी को लेकर घूमते रहते हैं। और इसके लिए वो आपको घर में आ करके, अच्छा आप ठीक न करें तो घर में ही डांटते हैं- मैं कैसे जाऊंगा उसकी शादी में? तू क्या रिजल्ट लाया है? वो जब पूछेंगे तो मैं क्या करूंगा? ऐसा ही करते हैं ना? यानी आपकी सफलता या विफलता उनकी सोशल लाइफ पर जैसे, पता नहीं बहुत बड़ा पहाड़ गिर जाता है और उसके कारण वे हमेशा कोशिश करते हैं कि उनका समाज में एक स्थान बना रहे। इसलिए मां-बाप की बच्चों पर ये pressure डालने की आदत बन जाती है। इरादा नहीं है उनका, उनके साथ हमें अन्याय नहीं करना चाहिए, लेकिन अगर वो भी सही तरीके से इसको करें। हकीकत में मां-बाप ने एक उम्र के बाद बच्चे से नाता तोड़ दिया होता है।
जब छोटा बालक होता है तो वही मां-बाप उसकी गलतियों का वर्णन बखूबी अपने मेहमानों के बीच करते हैं- कल इसने ऐसा कर दिया, उसने पूरी दूध की बोतल गिरा दी, उसने कल उसकी गरम चाय नीचे गिरा दी, जल गया। त्रुटियों का भी वर्णन करते हैं, क्यों, उसकी activity को नोट करते हैं। हम अपने बच्चों के- बालक अवस्था में उसकी हर बारीकी से देखते हैं लेकिन सात-आठ साल की उम्र होने के बाद में लगता ही नहीं है कि उसकी हर बारीकी को देखना चाहिए। अब उसमें क्या बदलाव आ रहा है, कौन सी रुचि ले रहा है, क्या कर रहा है, कैसे कर रहा है। करीब-करीब मा-बाप का ये नाता बच्चा सात-आठ साल का हो रहा है, तो टूटता चला जा रहा है। वो तीन महीने, छह महीने का था; तब जितनी बारीकी से observe करते थे, जब तक वो वयस्क नहीं होता है तब तक आपको उसको observe करना चाहिए। observe करने का मतलब नहीं है कि आपने सोचा इस दिशा में ढालना चाहिए। देखते रहना चाहिए, उसकी ताकत आपको ध्यान में आएगी। अगर इतना सा कर लें तो ये जो pressure का वातावरण बन जाता है, उससे मुक्ति मिल जाएगी।
प्रस्तुतकर्ता – माननीय प्रधानमंत्री जी, इस वक्त हमारे बीच में एक मां मौजूद हैं जो कि basically आसाम से हैं, पर दिल्ली में रहती हैं तो थोड़ा परेशान हैं और उनकी problem मुझे लगता है कि बहुत common problem है। कुछ कहना चाहती हैं मधुमिता सेन गुप्ता।
प्रश्नकर्ता- आदरणीय प्रधानमंत्री जी, नमस्कार। मेरा नाम मधुमिता सेन गुप्ता है। मेरा बेटा कक्षा नौंवी का छात्र है। महोदय, पहले मेरा बेटा पढ़ाई में बहुत अच्छा था। Teachers appreciate करते थे, लेकिन अभी कुछ समय से online games की तरफ उसका झुकाव कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है, जिसके कारण उसकी पढ़ाई पर फर्क पड़ रहा है। मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश की है लेकिन मुझे लगता है मैं असफल हूं। कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिए कि मैं इस स्थिति को कैसे संभालूं? धन्यवाद।
प्रस्तुतकर्ता- माननीय कृपया इस पर अपने विचार प्रकट करें।
मोदीजी- ये PUBG वाला है क्या? या तो frontline वाला होगा। ये समस्या भी है, समाधान भी है। हम ये चाहें कि हमारे बच्चे technology से दूर चले जाएं, फिर तो वो एक प्रकार से अपनी सारी जिंदगी से, एक प्रकार से पीछे की तरफ जाना शुरू होगा। और इसलिए उसको ये technology के संबंध में प्रोत्साहित करना चाहिए। लेकिन उस technology का क्या उपयोग करना है, क्या technologyउसको robot बना रही है क्या, या इंसान बना रही है? अगर मां-बाप थोड़ी रुचि लें, कभी खाना खाते समय चर्चा करें technology की, कि बताइए भई इन दिनों क्या चल रहा है, technology के क्षेत्र में क्या नया आया है? किस प्रकार के नए-नए apps आए हैं? उसमें क्या होता है? तो उस बच्चे को लगेगा कि मैं जो कर रहा हूं, मेरे मां-बाप हो सकता है मेरी मदद करेंगे। तो पहला काम तो आप किस को रोकने, मैं देख रहा हूं यहां करीब-करीब हरेक के हाथ में मोबाइल फोन है। हो सकता है कुछ लोग यहां प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में होंगे लेकिन कोशिश करते होंगे दोस्त को बताने के लिए, मैं यहां बैठा हूं। इससे क्या होता है- धीरे-धीरे हम सिकुड़ते चले जा रहे हैं, ये बड़ी narrow बन जाती है तो शायद हमें जीवन को बहुत बड़ा नुकसान होगा। technology का इस्तेमाल हमारे expanse के लिए होना चाहिए, मेरे विस्तार के लिए होना चाहिए, मेरे सामर्थ्य में बढ़ोत्तरी के लिए होना चाहिए। और इसके लिए teachers को भी बार-बार इन विषयों की चर्चा करते रहना चाहिए, तब जा करके होगा; otherwise जैसे बच्चे खेल के मैदान में नहीं हैं। कभी-कभी मां-बाप को लगता है पढ़ना बहुत अच्छा है। लेकिन परीक्षा के दिनों के कुछ दिन पहले बीमार हो जाता है तो मां-बाप का पसीना छूट जाता है। अरे भाई, पहले उसको किताब पढ़ता है, कहीं खेल के मैदान में भी तो भेजना था। आप में से कभी सोचिए, मैं कभी- मेरी कभी बच्चों के साथ बातचीत करने का मेरा ये पिछले मुख्यमंत्री था, तब से ये लगातार कार्यक्रम चल रहा है।
अब रूप, उसका रंग बदल चला गया लेकिन मैं करता रहता हूं। मैंने देखा है कि, मैं कभी बच्चों को पूछता था कि कितने बच्चे हैं जिनका दिन में चार बार मेहनत करने के कारण पसीना आया है शरीर पर। आप हैरान हो जाएंगे, गांव के बच्चे भी कहते थे, नहीं ऐसा तो नहीं होता है। अब ऐसी कैसी जिंदगी? हंसना, खेलना, खुले मैदान में; ये जीवन का हिस्सा होना चाहिए और वो ही एक नई ऊर्जा देता है और इसलिए technology का सही उपयोग कैसे हो? मैं स्वयं technology बहुत शक्तिशाली मानने वाला व्यक्ति हूं। मैं खुद इसका उपयोग, आज भी जो मैं दुनिया के इतने देशों के साथ और देश के लोगों से बात कर रहा हूं तो उसका कारण technology का उपयोग है। तो एक ही चीज के दो अच्छे पहलु होते हैं- एक किसी को बहुत सीमित कर देता है और तो दूसरे को बहुत विस्तृत कर देता है। आपकी ये चिंता सही है कि लेकिन आप उसके साथ बैठिए, उसको कभी आप काम दीजिए कि मैंने सुना है कि नॉर्थ-ईस्ट में एक ऐसा चावल पकाते हैं, देखो बेटा technology में जरा ढूंढकर मुझे बताओ कैसे बनता है वो चावल; तो उसको लगेगा, हां, मां मुझे technology की मदद से खुद को चावल पकाने की नागालैंड की पद्धति क्या है वो सीखना चाहती है, वो technology आप दोनों को जोड़ने का कारण बन सकती है और उसका भी मन technology से नई-नई चीजें जानी जा सकती हैं, सीखी जा सकती हैं, जो जीवन में काम आ सकती हैं, उस पर आप उसको धीरे-धीरे-धीरे ले जा सकते हैं। आप कभी उसको पूछ सकते हैं कि भई आज हमने सुना है कि space में ऐसा हुआ है, या आज हमने सुना है cyclone आना है, तो तुम देखो जरा ये cyclone आने की खबर कैसे देते हैं ये। तो वो ही बच्चा उस पर काम करेगा। आप उसको धीरे-धीरे-धीरे technology के सही उपयोग की तरफ ले जाइए और उसको लगना चाहिए कि वो बच्चा विकास की दिशा, तो गलत रास्ते पर जाने के बजाय, समय बर्बाद करने के बजाय खुद ही एक खेलकूद के अंदर रहने की बजाय और मैं समझता हूं जरा play station से play field में चला जाएगा वो। तो उस दिशा में हम सब प्रयास करें।
प्रस्तुतकर्ता – सर, वंश अग्रवाल फरीदाबाद से हैं। यहीं पर इस वक्त मौजूद हैं, इनका सवाल थोड़ा सा हटकर है, वंश।
प्रश्नकर्ता- नमस्कार सर। सर, मेरा नाम वंश अग्रवाल है और मैं मानव रचना इंटरनेशनल स्कूल की कक्षा, दसवीं कक्षा का छात्र हूं। सर, मेरा आपसे यह सवाल है कि हमें अपने लक्ष्य को निर्धारित कैसे करना चाहिए? हमें अपने लक्ष्य को निर्धारित करने में conservative होना चाहिए या सदैव बड़ा लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए? इसमें आपका अनुभव क्या कहता है? धन्यवाद।
प्रस्तुतकर्ता- माननीय, इस पर हम सबको कुछ बताएं।
मोदीजी – मैं आपसे एक सवाल पूछूं, जरा हाथ ऊपर करना। ऐसा कितने लोग मानते हैं कि लक्ष्य बहुत छोटा होना चाहिए? जरा हाथ ऊपर करें। जो ये मानते हैं कि लक्ष्य बहुत छोटा होना चाहिए, ऐसे कितने लोग हैं? दो-तीन लोग ही हैं। जो मानते हैं लक्ष्य बहुत बड़ा होना चाहिए, कितने हैं? तो democratic way में तो तय हो गया। हम लोग गुजरात में हैं, बचपन से एक कहावत सुनते हैं- निशान चुक माफ, नहीं माफ निचू निशान- यानी अगर निशान चूक जाते हैं तो माफ हो सकता है, लेकिन अगर निशान नीचा रखते हैं तो उसके लिए कोई माफी नहीं हो सकती। जब लक्ष्य तय करते हैं तो मेरा एक मत रहता है कि लक्ष्य ऐसा होना चाहिए जो पहुंच में हो लेकिन पकड़ में न हो। यानी लगता है भई, मान लीजिए भई यहां छूना है, मैं कोशिश कर रहा हूं नहीं छू पा रहा हूं, मेरी पकड़ में नहीं है, लेकिन एक फुट अगर जंप लगा दूं तो मैं पकड़ सकता हूं; मतलब मेरी पहुंच में है, मेरी पकड़ में नहीं है। एक बार पहुंच वाला लक्ष्य होगा, जब पकड़ में आ जाएगा तो फिर नए लक्ष्य की प्रेरणा उसी में से पैदा होगी। और इसलिए, लेकिन ऐसा भी न हो कि हम कुछ न करने के लिए बड़े-बड़े लक्ष्य की बातें करते रहें। मैंने कुछ बच्चे ऐसे देखे हैं कि graduation के बाद पूछेंगे कि क्या करते हो, तो मैंने देखा, वो कहते थे CA कर रहा हूं, तो मैं हैरान था इतने सारे लोग CA कर रहे हैं क्या, क्यों कर रहे हैं ऐसा? तो पता चला कि वो, ये मैं कोई बीस साल पहले की बात कर रहा हूं, ये CA करना, वो ऐसा क्यों कर रहे हैं? तो मैंने थोड़ा उनके परिवार, इधर-उधर बातें करते देखा तो मैंने पाया कि कुछ नहीं करता हूं, ये जवाब बड़ा भारी रहता है। अब 20-22 साल की उम्र हो गई है, रिश्ते भी आते हैं, तो मां-बाप क्या जवाब दें? तो वो भी आसानी से कहते हैं बेटा CA कर रहा है। अब ये लक्ष्य नहीं है जी। ये तो एक प्रकार से चालबाजी है अपने-आपको सुरक्षित करने की। हमें पहले अपने-आपको भली-भांति जानना चाहिए, अपने तरीके से जानना चाहिए
किसी के संदर्भ में नहीं; अपने मां-बाप के सपनों के संदर्भ में नहीं, अपने टीचर के सपनों के संदर्भ में नहीं, आपके प्रधानमंत्री के भाषण के संदर्भ में नहीं; खुद के संदर्भ में। मैंने जो तय किया था पहले, क्या हुआ उसका। उससे आपको पता चलेगा, हां, मैं इतना तो कर सकता हूं, तो तय करो यहां नहीं रुकना है, पांच कदम और जाना है। लक्ष्य अपने सामर्थ्य के साथ जुड़ा हुआ होना चाहिए और अपने सपनों की ओर ले जाने वाला होना चाहिए। ऐसा न हो कि सपने ही मरे पड़े हों तो सामर्थ्य भी मरता चला जाता है और ऐसी जिंदगी कभी नहीं होनी चाहिए और इसलिए मेरा मत रहेगा कि लक्ष्य साफ होने चाहिए। लक्ष्य दो प्रकार के भी होते हैं- एक अंतिम लक्ष्य प्राप्ति के लिए छोटे-छोटे। आपने देखा होगा कोई जो बड़ी पहाड़ी चढ़ता है तो पहले छोटी-छोटी पहाड़ियों को लक्ष्य बना करके चढ़ते-चढ़ते उसको सिद्ध करके फिर अगली चोटी पर जाता है। हमने भी कोशिश यही करनी चाहिए, तब जा करके मैं समझता हूं कि हम लक्ष्य के साथ जीवन को चला सकते हैं और उस लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। और लक्ष्य अगर प्राप्त नहीं हुआ है तो हमने एक बार introspect करना चाहिए, देखना चाहिए अंदर कि मैंने तय किया था, कहां कमी रही। मेरी मेहनत में कमी रही, मेरे प्लानिंग में कमी रही; इन छोटे-छोटे लक्ष्य का verification करते रहेंगे तो बड़े लक्ष्य तक जाने में कोई बड़ा हादसा नहीं होगा। आप उसको आसानी से correct करते जाएंगे, पार करते जाएंगे। तो लक्ष्य सिर्फ होना enough नहीं है, लक्ष्य पाने के रास्ते में आपका कितना concentration है, आप कितनी energy लगाते हैं, किस काम के लिए कितना समय लगाना चाहिए, कैसे लगाना चाहिए, इस पर अगर आप जागृत हैं; मुझे विश्वास है कि कोई लक्ष्य बेकार नहीं जाता है, वो लक्ष्य आपको भी सामर्थ्यवान बनाता है।
प्रस्तुतकर्ता- सर, तमिलनाडु से एक छात्र नरेन अपने मन की बात आपसे कहना चाहते हैं।
प्रश्नकर्ता- नमस्कार सर, I am Narendran from Tamlinadu. What motivates you? Also how to manage time? Thank you, Sir.
प्रस्तुतकर्ता- जब हमें exams या खेल या किसी प्रतियोगिता में असफलता मिलती है या मुश्किलें आती हैं तो आपके द्वारा राष्ट्र को लगातार ऊंचाइयों तक ले जाने के आपके प्रयास हमें हमेशा प्रेरणा देते हैं। 17 घंटों की आपकी व्यस्त दिनचर्या में आपको ऊर्जावान बनाए रखने और बिना थकान महसूस किए उत्साहित रखने में ऐसी क्या चीज है जो आपको हमेशा motivate करती है? हम अपने लक्ष्य को पाने के लिए proper time management schedule का पालन कैसे करें? माननीय कृपया बताएं।
मोदीजी- आपने अपने परिवार में देखा होगा, आप कभी थक जाते होंगे, आप कभी बोर हो जाते होंगे, आपका मन भी करता होगा नहीं यार ये कुछ और करें, लेकिन क्या कभी सोचा है कि हमारी मां का भी तो शरीर होता है, उसको भी कभी थकान लगती होगी? उसको भी कभी बीमारी आती होगी। उसको भी कभी मन करता होगा कि चलो आज सो जाएं, लेकिन वो हर पल कितनी ही बीमार क्यों न हो, बच्चे का स्कूल से आने का समय हुआ तो हंसते हुए चेहरे के साथ दरवाजे पर खड़ी रहती है। अगर उसको कोई सवाल पूछे कि मां तेरे में ये ऊर्जा कहां से आती है, तुम दिन में चौबीसों घंटे- 8 घंटे किचन में खड़ी रहती हो, इधर दौड़ी हो, टेलीफोन आया तो उसको उठा लेती हो, घर की घंटी बजी तो दौड़ जाती हो, मेहमान आया तो पानी पिला लेती हो, काम वाली नहीं आई तो उसको बुलाने के लिए व्यवस्था करती हो; नहीं, इतनी सारी चीजें कैसे करती हो? क्यों, परिवार मेरा है, ये सदस्य मेरे हैं; मां के मन में भाव होता है मैं नहीं करूं तो कौन करे। जब ये भाव पैदा हो जाता है अपनेपन का, तो फिर ऊर्जा अपने-आप आती है, थकान कभी घर का दरवाजा नहीं देखती है। मेरे लिए भी सवा सौ करोड़ देशवासी मेरा परिवार है। और सवा सौ करोड़ देशवासी मेरा परिवार है तो मैं थकान महसूस नहीं करता हूं। हर पल मैं सोचता हूं, रात को जब बिस्तर पर जाता हूं तो सुबह का सोच करके जाता हूं, दिनभर कितना किया-नहीं किया, बाद की बात है।
कल सुबह नए उत्साह से मैं निकलू पड़ूंगा, ये सोच करके बिस्तर पर जाता हूं और नई उमंग, नई ऊर्जा के साथ आता हूं। जहां तक time management का सवाल है, आप अगर किसी से समय मांगे और वो ये कहे कि मैं बहुत busy हूं, मेरे पास इन दिनों समय नहीं है तो आप लिखकर रखिए, वो झूठ बोलता है। मतलब उसको समय का उपयोग आता नहीं है। ऐसा कभी नहीं हो सकता है अगर आप अपने समय के संबंध में जागरूक हों। आप में से बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने सचमुच में अपने 24 घंटे की दिनचर्या का at least one week का analyze किया होगा, बहुत कम होंगे। आप एक काम कीजिए- बीते हुए एक सप्ताह में आप सुबह से शाम तक अपना याद करके लिखो- समय का क्या उपयोग किया, तो आपको ही पता नहीं होगा कि मैंने ये काम क्यों किया, यार मैंने तो बैकार में ही समय बिगाड़ दिया, देखो मैं तो यहां खाली बैठा था, मैं तो ऐसे ही बातें कर रहा था, मैं इस चीज को देखा करता था; आप तुरंत सोचेंगे नहीं, नहीं ये छह चीजें कम करूं, ये समय निकलेगा यहां उपयोग करूंगा। Time management, ये हमारे अपने हाथ की बात होती है। हम इसको बड़ी आसानी से कर सकते हैं। और इसके लिए कोई बड़े एमबीए, बहुत बड़ी कोई ऑक्सफोर्ड की किताब पढ़ना कोई जरूरी नहीं है जी।
आप simply अपने यहां घर के काम के लिए आने वाली महिला को जरा observe कीजिए। इन दिनों एक ही परिवार में घर का काम करने वाले जो लोग होते हैं, बहुत कम होते हैं। वे 10-12 घरों में काम लेते हैं और उनको पता होता है कि इनके घर में सात बजे बर्तन साफ करना है, उनके घर में नौ बजे बर्तन साफ करना होता है, उनके घर में 11 बजे कपड़े धोने होते हैं, उनके घर में 12 बजे किचन में जाना। आप देखेंगे साइकिल होगी, स्कूटी होगी, ट्रैफिक का सारा हिसाब-किताब होगा लेकिन बिल्कुल time management उनका perfect होगा। वो तीन-चार बजे तक जितने परिवारों में सेवा करती हैं या करता है, वो बिल्कुल perfect time management से करते हैं कि नहीं करते हैं? हमने observe नहीं किया उसको। यानी जिसने स्कूल देखे नहीं हैं, क्लास देखी नहीं है, लेकिन उसको भी समझ है कि मेरे समय को मैं ऐसे बांटूं और आपने देखा होगा किसी घर में अगर नहाने में देर हुई है, कपड़े धोने बाकी हैं, तो वो कह देती है कि ठीक है रखे रखो, कल साथ में धोऊंगी, आज नहीं धोऊंगी, मेरा समय तय है। होता हे कि नहीं होता है ऐसा? आपने observeही नहीं किया है, यही गड़बड़ है। आप observe कीजिए, जो सफल लोग होते हैं, जो बिल्कुल हंसते-खेलते काम कर रहे हैं, उनको समय का कोई दबाव नहीं होता है। कभी ट्रेन पकड़ने के लिए भागते नहीं हैं, कभी लंच बॉक्स कभी भूल जाते हैं, कभी चश्मा भूल जाते हैं, कभी किताब, कुछ नहीं होता है; सब perfect चलता है, क्यों? उन्होंने अपने समय की कीमत समझी है। Time is money, time is money- हम सुनते आए हैं लेकिन उसी को सबसे ज्यादा बर्बाद करने का हमारा स्वभाव है। हम तय करें- कुछ रह जाए तो रह जाए, समय बर्बाद नहीं होने दूंगा। उसी समय में से, 24 घंटे मेरे पास भी हैं, 24 घंटे आपके पास भी हैं, ईश्वर ने इसमें सामाजिक न्याय व्यवस्था की हुई है। अमीर से अमीर को भी 24 घंटे हैं, गरीब से गरीब को भी 24 घंटे हैं। और इसलिए उसका सर्वाधिक अच्छा उपयोग करने की आदत आसानी से बनाई जा सकती है।
प्रस्तुतकर्ता- सर, पठानकोट से एक student जुड़ रहे हैं, नाम है, अमित चौहान।
प्रश्नकर्ता- नमस्कार सर, How to study with interest and fun?
प्रस्तुतकर्ता- बताएं ताकि हम पढ़ाई को fun और interest की तरह लें, तनाव की तरह नहीं। माननीय exam के stress से ही संबंधित सवाल पूछा है सुरप्रीत डेगोल ने काठमांडू से। ये एक student हैं।
प्रश्नकर्ता- Good morning Sir, I am Supreet Dangole, a student from Kathmandu. Do you think exams groom our personality or stifle it? Thank You Sir.
प्रस्तुतकर्ता- हम प्राथमिक कक्षाओं से ही examination शब्द term के साथ जीना शुरू करते हैं, ये हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है। माननीय क्या आप सोचते हैं कि exam व्यक्तित्व को निखारता है या फिर exam हमारे व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में रुकावट है? माननीय, कृपया इन दोनों ही सवालों के बारे में हम सबको कुछ बताएं।
मोदीजी- देखिए, कसौटी बुरी नहीं होती है, exam बुरा नहीं होता। हम उसके साथ किस प्रकार से उसकी तरफ देखते हैं, किस प्रकार से उसके साथ deal करते हैं, उस पर depend करता है। और मेरा तो सिद्धांत है कि कसौटी कसती है। कसौटी कोसने के लिए नहीं होती है। लोग कसौटी को ही कोसते हैं। Actually अगर हम, अब मान लीजिए किसी को ओलमिपक खेलने के लिए जाना है, अगर वो तहसील में खेला नहीं है, district में खेला नहीं है, स्टेट में खेला नहीं है, intestate नहीं खेला है, national नहीं खेला है और वो ओलम्पिक के सपने देखेगा तो कहां से होगा भाई। उसको हर पल कसौटी में कसना पड़ेगा। इसलिए हम exam को, कसौटी को अवसर मानें, ये opportunity है। अगर हम इसको opportunity मानेंगे तो आपको इसका आनंद आएगा। और जब चुनौती होती है तो ये ईश्वर ने हर व्यक्ति के अंदर एक extraordinary ताकत दी होती है। अब देखिए, आप normal आवाज में कभी बात करते हैं, लेकिन भीड़ में किसी को बुलाना है तो एक ऐसी एनर्जी आपके अंदर, आप इतनी जोर से बोलते हैं, जैसे आर्मी का कोई अफसर की भी आवाज न निकले, इतनी बड़ी आवाज निकलती है आपकी। भले ही एक पल के लिए निकलेगी, लेकिन ऊर्जा अंदर पड़ी हुई है।
एक समय था opportunity आई, आपकी ऊर्जा बाहर आई। आपके अंदर बहुत कुछ पड़ा होता है, आपको observe करना चाहिए कि इस कसौटी के समय मेरी वो कौन सी क्षमता उभर करके आई है। कभी तो आपने भी देखा होगा कि ऐसी चीज आपके मन में से आती होगी, ऐसे विचार आते होंगे, दोस्तों के साथ बातचीत में ऐसा वाक्या निकलता होगा, जो कभी आपने भी सोचा नहीं होगा। इसका मतलब ये हुआ कि आपके भीतर परमात्मा ने बहुत सामर्थ्य रखा हुआ है। लेकिन उस सामर्थ्य को परखने के लिए आपका अपना को mechanism नहीं है। ये तो exam वो आपको अवसर देता है, आपके अपने सामर्थ्य को परखने के लिए। दूसरा, हम exam के लिए जिंदगी नहीं जीते हैं। हम खुद के लिए जिंदगी जिएं, जब हम खुद के लिए जिंदगी जीते हैं, हमें लगता है कि knowledge होना चाहिए, अगर knowledge acquire करना शुरू करें, तो आप देख लीजिए marks अपने-आप follow करेंगे, आपका पीछा करते-करते आपके दरवाजे आकर खड़े रहेंगे। लेकिन गलती हम करते हैं, हम marks के पीछे भागते हैं, जिंदगी पीछे छूट जाती है। हम जिंदगी से जुड़ते चलें, knowledge acquire करते चलें, marks अपने-आप पीछे आपके दौड करके आएंगे, marks खुद आपको गले लगाने के लिए आपके पीछे दौड़ेंगे। तो इसलिए इसको देखने का तरीका, ये अगर आपका साफ-सुथरा होगा, मुझे विश्वास है कि exam कभी भी, कभी भी बोझ नहीं लगेगा। सचमुच में तो exam को एक उत्सव के रूप में, एक अवसर आया है, चलो वहां मजा आएगा, खेल देखता हूं, ये मूड चाहिए।
प्रस्तुतकर्ता – माननीय प्रधानमंत्री जी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से मोहम्मद सलीम एक स्टूडेंट हैं जो आपसे कुछ पूछना चाहते हैं।
प्रश्नकर्ता- नमस्कार सर, मेरा नाम मुहम्मद सलीम है। मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रथम वर्ष का छात्र हूं। मैं सोचता हूं बारहवीं कक्षा पास करने के बाद छात्रों के मन में सबसे प्रश्न यह होता है कि करियर का चुनाव कैसे करें। उसी प्रकार दसवीं कक्षा पास करने के बाद छात्रों के मन में ये प्रश्न उठता है कि कौन सी stream का चुनाव करें। Parents बच्चों की रुचि को न समझते हुए उन्हेंscience stream में जाने के लिए बाध्य करते हैं। कृपया हमें इस विषय पर हमारा मार्गदर्शन करें। धन्यवाद।
प्रस्तुतकर्ता- और अब बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से श्यामभवी शुक्ला जो कि एक छात्रा हैं, आपका मार्गदर्शन चाहती हैं।
प्रश्नकर्ता- नमस्कार सर, This is Shambhavi Shukla , student of BA 3rd year, Vasanta College, Rajghat, BHU Varanasi. Sir my question is, it is the time for the preparations of my Master’s entrance exam. So Sir, please guide me for acquiring better job and carrier opportunities. Thank You very much Sir.
प्रस्तुतकर्ता- सर, entrance exam की तैयारी कर रही हूं, हम bachelor students की जिंदगी का ये एक नया दौर है। बेहतर नौकरी तथा कोर्स को पाने में आने वाली चुनौतियों के बारे में कृपया हमारा मार्गदर्शन करें।
प्रश्नकर्ता- माननीय प्रधानमंत्री जी, मेरा आपसे ये सवाल है कि जैसे हर बच्चे का aptitude अलग-अलग होता है। कुछ लोग लिख सकते हैं, कुछ लोग गाना गा सकते हैं, कुछ लोग डांस कर सकते हैं, पर जरूरी नहीं है कि वो लोग maths कर सकें, science कर सकें; जो हमारे देश में बहुत बड़ी बात मानी जाती है, मैथ और साइंस करना। तो अपने मां-बाप को ये कैसे समझाएं कि अगर हम नहीं कर सकते हैं math या साइंस तो हम किसी और चीज में बहुत अच्छे हैं और इसमें कोई ऐसी बहुत बड़ी बात नहीं है कि हम किसी एक चीज में अच्छे न हों।
प्रस्तुतकर्ता- माननीय, कृपया इस बारे में हम सबको प्रेरणा दें।
मोदीजी - आपकी चिंता बहुत स्वाभाविक है कि बच्चों को proper guidance नहीं मिलता, ऐसे समय एक सही मार्ग दर्शन मिलना चाहिए, वो नहीं मिलता है। लोग अपने-अपने अनुभव की बातें बताते रहते हैं। मां एक सुझाव देगी, तो पिता जी दूसरा सुझाव देंगे, तो अंकल तीसरा सुझाव देंगे, महोल्ले के दोस्त और चौथा सुझाव देंगे और हम confuse हो जाते हैं। यह confuse होने के पीछे एक कारण यह है हमें अपने विषय में पता है क्या? मेरा अपना passion क्या है? मेरी रूचि किसमें हैं? और मैं मेरी रूचि के अनुसार इसके पहले कुछ कर पाया हूं, क्या? मेरे सपने क्या है, वो बाद की बात है। पहले मेराpassion क्या है। और उसके बाद आप मां-बाप को भी convince कर सकते हैं। देखिए, आठवीं कक्षा में मैंने ऐसा किया था, नौंवीं में मैंने ऐसा किया था। मेरे टीचर मुझे बता रहे थे। उस समय तहसील के अंदर जब competition था, तो मैं गया था, मैं यह करके आया था। मुझे लगता है कि मेरे भीतर यह ताकत है। कभी हमने अपने टीचर, जिसके प्रति हमारा लगाव है उनके साथ बातें करनी चाहिए कि साहब आप मुझे चार साल से पढ़ा रहे हो, मुझे देखते हो, आपको क्या लगता है। मुझे क्या करना चाहिए और ऐसा नहीं कि टीचर समय नहीं देते।
अगर कोई विद्यार्थी टीचर के प्रति आत्मीय भाव से जुड़ता है। तो उस टीचर को भी लगता है कि हां इस विद्यार्थी को मैं समय दूं, उसको गाइड करूं, उसको भी लगता है। लेकिन ज्यादा confusion इस बात का नहीं होता है कि कोई आपको क्या कहता है, मां-बाप क्या कहते हैं। आप खुद confuse हैं, यह समस्या है। confuse इसलिए है क्योंकि आपको पता नहीं है कि आपको क्या करना है, मुझे बराबर याद है कि मैं बहुत साल पहले बड़ोदा में एमएस यूनिवर्सिटी के होस्ट्ल्स में जाया करता था, स्टूडेंट्स से परिचय करने, यह कोई मैं 77,78,79 के कालखंड की बात कर रहा हूं। तो उनसे मिलता था, बैठता था, बात करता था, तो मैं ऐसे ही उनको कभी पूछता था आपके मन में इरादा क्या है, क्या सोचते हैं? तो ज्यादातर बच्चे जवाब देते थे एक बार graduate हो जाऊं। आगे का पता ही नहीं उसको। एक बार graduate हो जाऊं। एक बार मैं पूछ रहा था,तो एक बच्चा वहां वो गुजरात के बाहर का था, वो वहां पढ़ता था। उसने कहा I want to rule, मैंने डांटा, बोले I want to rule, तो मैंने कहा राजनीति में जाना चाहते हो क्या? नहीं बोला, राजनीति में नहीं जाना है। बोले मुझे बाबू बनना है, बाबू ही तो शासन करते हैं। राजनेता तो आते हैं, जाते हैं। मैं यह 40 साल पहले की घटना इसलिए सुना रहा हूं उस बच्चे को इतनी clarity थी कि मुझे क्या करना है और बाद में मैंने जरा जानकारी ली तो मैंने सुना वो ऐसे ही government section में ही चला गया और अच्छी position पर वो पहुंच था। उसके जो दोस्त लोग थे, उनसे मैंने सुना था।
कहने का मेरा तात्पर्य यह है कि हमारे मन में clarity होनी चाहिए। clarity of the thoughts, faith in conviction मेरा conviction में विश्वास होना चाहिए। and courage to act उसके अनुसार काम करने वाला मेरा ज़ज्बा, मेरा शरीर, मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा समय यह अगर हम develop करे तो हम आसानी से उस दिशा में जा रहे हैं। science, math उसका अपना एक महत्व है। लेकिन बाकी dreams का महत्व नहीं है, यह जो हमारे देश में सोच बनी है वो ठीक नहीं है। science और math में हमारा महत्व होने के बावजूद भी जितनी मात्रा में वहां लोग जाने चाहिए, नहीं जाते। चिंता का विषय है और उसका कारण है कि प्रारंभिक काल में उसको उस प्रकार जो motivation मिलना चाहिए। वो हमारे यहां शायद कुछ कमी है और उसके कारण कुछ टीचर्स ने, कुछ स्कूल ने, कुछ अभिभावक ने special interest ले करके इन चीजों को develop किया तो बहुत आगे निकल जाते हैं। कुछ लोग हैं, ठीक है भाई graduate के कारखाने में चले जाएंगे, उधर से कारखाने से निकलते जाएंगे। यही चलता रहता है, और इसलिए आपकी यह चिंता बहुत स्वाभाविक है। मेरी सलाह यही रहेगी कि आप दबाव में आ करके मत सोचिए। आप अपनी क्षमता के आधार पर और उसमें किसी की मदद भी लीजिए। ऐसा नहीं आपका अपना judgment गलत हो, लेकिन अगर खुलकर करके बात करोगे तो शायद आपको सही मार्गदर्शन, आपके अगल-बगल के लोगों से मिलेगा।
स्टूडेंट जैनेथ – Good Morning Sir! My name is Jenith of Class IXth from Kendriya Vidhyalaya Moscow. You gave many suggestions to our parents last year. This resulted in the change of attitude of my parents and now I interact with them about my examination tension, fear of failure etc. Their smile with a statement that you can do it, motivates me. I am really very thankful to you sir.
पिछले सप्ताह आपने हमारे पेरेंट्स को बहुत अच्छी-अच्छी सलाह दी थी, इसका नतीजा यह हुआ कि उनका नजरिया ही बदल गया। अब मैं अपने पेरेंट्स से मेरे exam तथा असफलता का डर इन सबके बारे में बातचीत करती हूं। उनका मुस्कुरना यह कहना you can do it, यानि तुम कर सकती हो, मुझे और भी ज्यादा प्रेरणा से भर देता है। इसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
मोदीजी – आपने credit मुझे दे दिया। दरअसल credit आपके मां-बाप को जाता है। क्योंकि उन्होंने सही बात को पकड़ा और पकड़ने के बाद अपनी जो भी पुरानी habit थी या ego था, उसको छोड़ करके नई तरीके से उन्होंने सोचने का विचार किया। यह बात साफ है। कि अभिभावकों का सकारात्मक रवैया बच्चे की जिंदगी की बहुत बड़ी ताकत बन जाता है। टीचर्स का भी आपने देखा होगा, कुछ टीचर्स ऐसे होते हैं जो तीन-चार बच्चों के लिए उनका लगाव होता है। वो सवाल पूछेंगे तो उनसे बात करेंगे कोई आया सवाल पूछ रहा है तो, वो हाथ उठाता है तो उसी को कहेंगे, अच्छा बोलो। उनको प्यारा लगता है, उनको लगता है वो तुरंत ठीक कर लेता है। और उसके कारण class के बाकी बच्चों के मन में उस टीचर्स के प्रति भी एक अभाव होना शुरू हो जाता है। एक जो सम्यक दृश्य का अभाव होता है। उसका परिणाम होता है। उसी प्रकार से मां-बाप भी कभी अपने यार-दोस्तों के यहां गए हो, तो आपने देखा होगा कि पता चले कि हां इनके बेटे ने यह किया, तो उसको बुलाएंगे कि ए सुन, देख इसने क्या किया। यानी 25 लोग की भरी सभा में रिश्तेदारों के बीच में मां-बाप उसको वही सीखना चाहते है देख यह मोहन भाई के बेटे में क्या किया, देख तू है जो कुछ करता नहीं है। हो गया मामला खत्म। और ऐसी आदत करीब सबको होती है। आप घर में भी जाओगे, तो सुनाएंगे कि देखो मामा का बेटा कितना आगे निकल गया। तुम कुछ सोचो। यह जो comparison है।
यह मां-बाप ने, टीचर ने कभी नहीं करनी चाहिए। उससे उसको बहुत निराशा मिलती है। उसको हतोत्साहित कर देते हैं। यह एक ऐसा मनोवैज्ञानिक परिणाम लाती है। जिसकी शायद हमने भी कल्पना नहीं की है। हमारा काम होना चाहिए उसको प्रोत्साहित करना। ठीक है weak है बच्चा, लेकिन वो weak क्यों है, क्योंकि आपने 90% वाले की तुलना करना शुरू किया, इसलिए आपको बुरा लगता है। लेकिन आप उसको यह कहो देखो बेटा पिछली बार तुम 55% लाए थे इस बार 60 ले आए, क्या कमला कर दिया तुमने। बेटा तुमने मेरा नाम रोशन कर दिया है। 55 से 60 की जो खुशी है, वो उसको 60 से 90 ले जाने की खुशी दे सकती है, लेकिन 90 क्योंकि नहीं लाया इसलिए 60 को कोसते रहोगे, तो बच्चा 60 से 40 की ओर चला जाएगा। 60 से 70 की ओर नहीं जाएगा। और यह environment बहुत आवश्यक है। हम कोसते रहेंगे, हम उसको नीचा दिखाते जाएंगे बच्चों को तो हम उसको कभी ताकतवर नहीं बना सकते हैं।
मैं सरकार में काम करता हूं अगर मुझे कोई छोटी भी बात किसी अवसर को कहनी है तो अलग से कभी मिल जाए तो बताता हूं देखो यार इसका कैसे करेंगे। लेकिन समूह में जब मिलता हूं मैं जी-जान से उनकी तारीफ करता हूं। और वो तारीफ झूठी नहीं होती है। उन्होंने भी अपने समय की जो भी शक्ति है, अनुभव है पूरा निचोड़ दिया होता है। ठीक है प्रधानमंत्री की अपेक्षा के दो कदम पीछे रह गया होगा। लेकिन उसके कारण उसकी मेहनत बेकार नहीं है जी। Team spirit के लिए यह गुण बहुत आवश्यक होते हैं। मेरा भी आपसे आग्रह रहेगा, आप अपनी तुलना, अपने पुराने रिकॉर्ड से कीजिए, आप competition अपने record से कीजिए। आप अपने record break कीजिए। आप अगर खुद के record break करेंगे, तो आपको कभी भी निराशा की गर्त में डूबने का मौका नहीं आएगा। आप अपने आगे बढ़ना और उसमें आपको पता है कि मैं तीन घंटे non stop काम कर सकता हूं। साढ़े तीन का करना है, तो तीन का पता है तो साढ़े तीन का सोच सकते हो। सामने वाला पांच का कर सकता है, तो मैं पांच नहीं कर सकता, छोड़ो यार, मैं तीन के साढ़े तीन कैसे कर लूं। यह बदलाव बहुत जरूरी है, अगर यह आपने कर लिया तो मैं नहीं मानता हूं कि किसी तनाव से आपको गुजरना पड़ेगा।
स्टूडेंट – जयप्रीत सिंह – नमस्कार सर। मेरा नाम जयप्रीत सिंह शाहपुरी है। मैं केंद्रीय विद्यालय तेहरान एंबेसी स्कूल में पढ़ता हूं। मैं तेहरान इरान से बोल रहा हूं। सर मेरा आपसे एक सवाल है। सीखते समय तारीफ मिले तो सीखने में ज्यादा मन लगता है। तो हमारे parents और teachers यह सब क्यों नहीं अपनाते। क्लास में दो-तीन बच्चों को छोड़ कर बाकी बच्चों के अच्छा करने पर भी उन्हें तारीफ नहीं मिलती। तो क्या सर आपके साथ भी ऐसा होता था? धन्यवाद।
मोदीजी – एक तो यह सब हमको क्यों नजर आता है। इस बात पर हमारा ध्यान क्यों जाता है। इसका कारण यह है कि हम over conscious और भीतर से हम weak हैं। जब तक कोई पुचकारता नहीं है, सहलाता नहीं है। तब तक मुझे मेरे किए हुए का आनंद आता नहीं है। जिसके भीतर आत्मविश्वास होता है। वो तालियों की गूंज कितनी बजी, कितनी नहीं बजी, इसकी परवाह नहीं करता है जी। उसको विश्वास होता है और मैं मानता हूं कि सबसे पहले यह बाकी चीजों के उपरांत आपके भीतर, अपने आप पर वो विश्वास होना चाहिए कि कोई हमें सराहे या न सराहे, कोई पुचकारे या न पुचकारे, हमारे लिए कोई अच्छा करे या न करे लेकिन मैं खुद एक स्थिति ऐसी पैदा करूंगा कि कभी न कभी मेरे टीचर को मुझे नोटिस करना पड़ेगा। उनको challenge नहीं करना, मन में रखना है। मैं उनको जीतकर रहूंगा। और एक बार आपने उनको जीतना तय कर लिया तो आप देखिए बच्चे में ताकत होती है, तीन महीने में टीचर को जीत लेगा।
एक और विषय भी बीच में एक सवाल आया था, मेरे मन में विचार आया देखिए कभी-कभार क्या होता है, टीचर भी उस बच्चे में विश्वास करता है या रूचि लेता है, जब टीचर को लगता है उसके परिवारजन बच्चे में interested है। ऐसे बहुत मां-बाप होंगे जिन्होंने बच्चे को सातवीं से 10वीं या 12वीं तक कौन टीचर पढ़ा रहा है, पता ही नहीं होगा। क्या कभी बच्चे के जन्मदिन पर दोस्तों के साथ मां-बाप ने टीचर को बुलाया क्या? क्या मां-बाप कभी स्कूल में जा करके किसी टीचर का जन्मदिन है, बच्चे ने कहा मेरे टीचर का जन्मदिन है। मां-बाप स्कूल चले गए, बच्चे के टीचर के जन्मदिन पर बधाई दी और कहा देखिए, मेरे पास तो घर में बच्चा तीन-चार घंटे रहता है, 5-6 घंटे आपके पास रहता है। अब उसकी तो जिंदगी आपके हाथ में है, आपको मैं शुभकामनाएं देने आया हूं। वो टीचर का मन क्या करेगा, बताइये। उसको लगेगा कि भाई, यह बच्चा तो उन्होंने मुझे सौंप दिया है। मेरी जिम्मेदारी है। लेकिन अभिभावक का यह रोल ही नहीं रहा है। टीचर को न कोई अपने घर बुलाता है, न मां-बाप जाते हैं, बच्चे ने आकर कह दिया हो कि टीचर ने मुझे डांटा बस हो गया। मां-बाप, सच क्या, झूठ क्या, बच्चा क्या कह रहा है, क्या नहीं कह रहा है, और कोई मुसीबत की बीमारी रो रहा है, क्या है, बहानेबाजी कर रहा है, कुछ नहीं। क्या समझते हो। मैं आरटीआइ करूंगा, मैं एफआईआर लिखवाऊंगा। बहुत मां-बाप होते हैं जो अपने बच्चे में कोई कमी नहीं महसूस करते, कभी नहीं करते हैं। और उसके कारण अपना तो शायद संभल जाता होगा, लेकिन बच्चे की जिंदगी के लिए समस्या पैदा हो जाती है।
अच्छा है Teacher, Management, students and parents इनका एक मेल होना चाहिए, interconnected होना चाहिए। वो अपने-अपने तरीके से चारों कौने में अलग काम करेंगे, नहीं होगा। यह व्यवस्था सहज रूप से विकसित हो सकती है और उसका परिणाम भी मिलता है और मैं मानता हूं कि हम लोगों की कोशिश रहनी चाहिए कि जिन शिक्षकों के पास हम पढ़ते हैं, उनके प्रति पूरे परिवार का एक आदर भाव पैदा हो। वो टीचर के पास जितना भी ज्ञान है न वो आपके लिए वो निचोड़ देगा। आप देखना, special attention करेगा।
स्टूडेंट – सारा - मैं क्लास XII की स्टूडेंट हूं, मैं इस बात को observe कर रही हूं कि परीक्षा पर पूछे गए सवालों और जिस मकसद से हम पढ़ाई कर रहे हैं, उसमें आपस में कोई तालमेल नहीं है। हमारे टीचर्स अकसर कहते हैं कि हमें एक अच्छा इंसान बनना चाहिए पर प्रश्न पत्र में यह concern जाहिर ही नहीं होता, हमारी शिक्षा व्यवस्था को एक सलाह है कि हमारी परीक्षा शिक्षा के व्यापक लक्ष्य से जुड़ी हुई होनी चाहिए और इस बात के प्रति Teachers, Students, parents board examiner सभी को सजग होना चाहिए। माननीय इस बारे में आपके विचार हम सब जानना चाहेंगे।
मोदीजी – देखिए मूलत: शिक्षा में यह सारी बातें होती है, यह शिक्षा जो है वो रातों-रात तैयार नहीं हुई है। हजारों साल से मानव विकास यात्रा के साथ नई-नई चीजें जुड़ती गई हैं। नये-नये तरीके जुड़ते गए हैं। लेकिन कठिनाई तब होती है। हमने शिक्षा को जिंदगी से काट करके exam से जोड़ दिया है। और उसी का परिणाम है कि हमको लगता है कि स्कूल में जो बताया गया, अब जैसे मान लीजिए स्कूल के अंदर आपने देखा होगा, कहीं पर टूरिस्ट प्लेस पर आप जाएंगे तो पांचवीं, छठीं, सातवीं कक्षा के बच्चे अगर वहां टूरिस्ट के रूप में कहीं स्कूल बस आया है और टीचर ने बताया कि ऐसे चलना है, तो सभी बच्चे ऐसे ही चलेंगे। ऐसा होता है न। हाथ पीछे करके, पूरा टूर देखेंगे, ऐसे ही करते है ना। अब यह शिक्षा में नहीं है। लेकिन यह उसने जो सिखाया, क्या वो जिंदगी से जुड़ा हुआ विषय नहीं है क्या? Discipline, मतलब मैं यह नहीं कहता हूं कि हाथ-पैर ऐसे करना ही मत। कहने का तात्पर्य है कि ऐसी सब चीजें होती है, हमारा उस पर ध्यान नहीं होता या तो जो टीचर बताता है, वो syllabus का तो ज्ञान देता है, लेकिन यह चीज जिंदगी में कैसे काम आती है, वो नहीं बताता है। हकीकत यह है कि शिक्षा के हर पहलू को जिंदगी के साथ relevant करके पेश करना यह टीचर्स को hobby होनी चाहिए। मैं छोटा सा बताता हूं। मैं जब छोटा था, तो हमारे एक टीचर थे, मैं सरकारी स्कूल में पढ़ा था।
Government Primary School में और मेरा जो गांव था वो गाइकवाड स्टेट था। तो गाइकवाड राजा की एक विशेषता थी कि जहां भी उनका राज्य होता था, वहां प्राइमरी स्कूल होती थी, बच्चियों की शिक्षा compulsory होती थी, पोस्ट ऑफिस होता था, तालाब होता था, library होती थी। ऐसे कुछ उनकी विशेषताएं थी। जहां-जहां उनका राज होता था, उतनी चीजें होती थी। तो मेरे गांव में भी उनका एक स्कूल था, तो सरकारी स्कूल था, मैं उसमें पढ़ता था। हमारे टीचर की विशेषता थी। वो क्या कहते थे, हम सभी स्टूडेंट को कहते थे कि चलो तुम पांच खड़े हो जाओ। तुम कल घर से तुम पांच मूंग के दाने लाओगे, तुम सात मूंग के दाने लाओगे, तुम नौ मूंग के दाने लाओगे। दूसरे को कहते थे, तुम तीन चने के दाने लाओगे। पांच चावल के दाने लाओगे। ऐसा वो अन्न के कुछ दाने, ज्यादा नहीं थोड़े ले करके आओगे। तो बच्चा क्या करता था, याद रखता था कि मुझे पांच मूंग के दाने ले जाने हैं, तो घर में किसको मूंग कहते हैं, सीख जाते थे। पकड़ करके ले आता था, संभाल करके तो मूंग फिर पढ़ाना नहीं पड़ता था, इसको मूंग कहते हैं। मैं बिल्कुल बचपन की बात बता रहा हूं। फिर टीचर क्या करते थे, सारी चीजों को mix कर देते थे। फिर बच्चों को कहते थे, अच्छा भाई पांच बच्चे आ जाओ, उनमें से एक कहेंगे कि भई पांच चना ढूंढो। तो उसको arithmetic आ गया। चना पहचान गया। दूसरे को कहते हैं चावल पांच उठाओ, दिखाओ। यानी पढ़ाने का उनका एक अपना तरीका था। अब बात छोटी है, लेकिन जिंदगी से कैसे जोड़ देते थे। मतलब कि शिक्षा में सिर्फ ऐसा है, यह नहीं है। होता सब है, गीत होता, संगीत होता है, संवेदनाएं होती है, सपने होते हैं। सब होता है, लेकिन हमने अपने आप को परिवार ने, टीचर ने, सबने ranking, ranking, ranking वही समस्या शुरू हो जाती है। जीवन को खोल दे, जीवन को हम विस्तृत कर दे। हर चीज में अपनापन सीखना शुरू कर दे। तो अपने आप देखिए खुद की जिंदगी बदलेगी, परिसर की भी जिंदगी बदलेगी।
स्टूडेंट – मोली सिंह – नमस्कार आदरणीय प्रधानमंत्री जी। मैं हूं मोली सिंह, ठाकुर तेज सिंह, आगरा से। और मेरा सवाल आपसे यह है कि बहुत सारे स्टूडेंट घर से दूर रह करके पढ़ाई करते हैं। वो नई जगह पर जल्दी adapt नहीं हो पाते, adjust नहीं हो पाते हैं। कई सारे स्टूडेंट को home sickness और depression का सामना करना पड़ता है। तो वो कैसे इस situation को handle करे और कैसे उनके parents और teachers उनकी मदद कर सकते हैं? धन्यवाद।
मोदीजी – भारत जैसे देश में यह depression वाली बात जो है, वो परेशान करने वाली बात है। भारत की मूलभूत समाज रचना है उसमें इस pressure को release करने की व्यवस्था है, सहज व्यवस्था है। लेकिन दुर्भाग्य से समाज व्यवस्था में जो परिवर्तन आए हैं, परिवर्तन तो आते रहते हैं, वो कोई बुरी चीज़ नहीं है। लेकिन कुछ ऐसी चीजें आई हैं, जिसने स्थिति पैदा की है। पहले हमारा joint family हुआ करता था। और joint family होने के कारण बच्चा दो बातें पिताजी को नहीं कर सकता था, वो दादी मां के आगे कह देता था। मन हलका हो जाता था, दो बातें दादी मां से कहता था, लेकिन लगता था कि जरा मां से पूछ लूं तो वहां जा करके, एक प्रकार से उसको एक अवसर मिलता था अपने आप को express करने का। आज स्थिति ऐसी है कि expression के लिए कम suppression के लिए ज्यादा इस तरफ हम बढ़ गए हैं। और यह जो कुकर फट जाता है, उसका मूल कारण यही है कि इस प्रकार की भांप भर जाती है, उसको बाहर निकलने के लिए जगह चाहिए। इसे बाहर निकलने के लिए जगह चाहिए। मां-बाप ने बच्चों के साथ उसकी रूचि के अनुसार खुलेपन से बातें करनी चाहिए। अगर मान लीजिए वो होस्टल भी चला गया तो उसको विश्वास है कि इन परिस्थितियों को मेरे मां-बाप को मैं बताऊंगा तो समझेंगे।
लेकिन अगर आप Marks आए, क्यों देर से आए, किसके साथ गए थे, फोन पर किससे बात की। इसी में लगे रहे तो यह cut off स्टेज बहुत बड़ी समस्या पैदा करता है। दूसरा यह मां-बाप का जिम्मा है कि depression अचानक नहीं आता है। यह बहुत एक लम्बी process होती है। कुछ एक होता है जो excitement में कुछ कर दे, वो एक अलग बात है, लेकिन ज्यादातर धीरे-धीरे वो लुढ़कता जाता है। जागरूक मां-बाप देखते है कि अरे क्या बात है भाई। यह पहले तो बड़ा आग्रह करते थे कि खाता नहीं है, अचानक बैठता है, बस खाता ही रहता है। यह अचानक उसका weight बढ़ा रहा है, psychologically क्या हुआ है। तुरंत मां-बाप देखते हैं कि भई कुछ होगा, तभी यह stress में हैं, कुछ न कुछ ज्यादा खा रहा है। कभी सोता नहीं था दोपहर को, आज office से आ गया, अचानक सो गया। कमरे में चला गया तो मुंह ढक करके बैठक गया। क्य कर रहा है। अगर उसको वो जागरूक अवस्था से लेते हैं, और उसको उसी समय handle करते हैं, मां-बाप ने देखना चाहिए कि वहां किसी न किसी परिवार से उसको हम जोड़ सकते हैं क्या? बच्चो को? जान-पहचान वाले, उसके लिए थोड़ा खर्च करना पड़े तो खर्च करना चाहिए और उनसे कहना चाहिए कि जरा भई सप्ताह में एक दिन छुट्टी हो तो बच्चे को जरा घर बुला लेना, आप भी कभी हो आना। और बच्चे में अगर थोड़ा बहुत होगा तो उसको एक नया परिवार मिल जाएगा।
दूसरा, काउंसिलिंग से हमने संकोच नहीं करना चाहिए। कभी-कभी तो मां-बाप को लगता है कि कहीं लीक हो जाएगा तो, किसी को पता चलेगा तो बेटे का काउंसिलिंग चल रहा है। हम उससे इज्जत भी गंवाते हैं, बच्चा भी गंवाते हैं। कोई संकोच नहीं करना चाहिए। थोड़े से भी symptoms दिखते हैं, हमने उसको काउंसिलिंग करना चाहिए। बच्चे के साथ सही तरीके से काम करने वाले expert होते हैं, वो धीरे-धीरे उसके भीतर की जो भी बीमारियां हैं उसको निकाल देते हैं।
ये होस्टल में जो रहते हैं उनको मेरा एक छोटा सा अपना अनुभव के आधार पर मैं बताता हूं यह कर सकते हैं काम। हो सकता है कुछ घटना ने आपको परेशान कर दिया है। या कुछ आपने सुना है, आप बेचेन हैं, मन का आक्रोश, मन की वेदना प्रकट करना थोड़ा संकोच होता है। कुछ नहीं आप हो सके तो होस्टल के बाहर जाइये, किसी पेड़ के नीचे अकेले बैठिए और एक नोट बुक ले जाइये। उस कागज पर सारी घटना का वर्णन लिख दीजिए। लिखते चले जाइये। क्या हुआ, कैसे हुआ, किसने क्या कहा, खुद को क्या लगा, सारा जितना जैसे फिल्म दिखती है, ऐसे ही सारा लिखते चले जाइये। फिर उसको पढि़ये मत, वहीं पर उसको फाड़ करके जेब में टुकड़े डाल दीजिए, यह स्वच्छ भारत, कहीं और मत डालना। फिर भी मन हल्का नहीं हुआ, दोबारा लीखिए। पहले अगर आपने आठ पेज लिखा होगा, दोबारा लिखोगे तो तीन-चार पेज में वहीं बात आ जायेगी। फिर भी उसको फाड़ दीजिए, टुकड़ें जेब में डाल दीजिए। तीसरी बार लिखिए, अब देखोगे वहीं बात एक-डेढ़ पेज में आ जायेगी। भीतर का जो है, वो कागज पर टपकता जाएगा, अंदर से कम होता जाएगा। आप absolutely relax feel करेंगे। आपको यह भी डर नहीं रहेगा कि कोई पढ़ लेगा तो, किसी को बताऊंगा तो, हम बात क्यों बताते नहीं हैं। डर लगता है यार इसको बताऊंगा, वो किसी और को बताएगा तो मेरी तो बेइज्जती हो जाएगी। खुद ही अंदर, एक जगह है, खुद ही लिखे, उसको फाड़ दे, आप देख लेना घर में भी, ऐसा वातावरण बिगड़ गया हो मम्मी नाराज हो, ढिंकना हो, फलाना हो। और मान लीजिए आप लिखते हैं, आप अलग स बैठ करके लिख लीजिए, आपके भीतर के सारी जो मानवीय जो विकृतियां हैं वो कागज के सहारे से बाहर निकलेगी। यही ultimate उपाय नहीं है। छोटा सा उपाय है। यह छोटा सा उपाय भी कुछ पल के लिए तो आपका सहारा कर सकता है, कुछ दिन के लिए आपका सहारा कर सकता है। खुद को खड़े होने की ताकत दे सकता है। दूसरा कोई एक अगर होस्टल में रहते हैं तो कोई senior student हो या टीचर हो कोई एक हमने ढूंढ कर रखना चाहिए जिस पर हम भरोसा करे। उसे कभी मन की बातें बताया करें। देखो यार इस बार तो मां का फोन ही नहीं आया। चीज बढ़ी नहीं होगी। उसके सामने कह दो वो कहेगा।
वो आपसे शायद उम्र में छोटा होगा तो कहेगा, अरे चिंता मत कर यार मां काम में होगी। हमें लगता है हमारी दवाई हो गई। हमारा उपचार हो गया, क्यों। किसी ने कह दिया हां, मां काम में होगी, मेरा मन कहां चल रहा था दो घंटे से, देखो आज जन्मदिन है, आज फोन नहीं आया। हो सकता है वहां, इंटरनेट connectivity का problem हो। और हम गुस्सा मां पर निकालते हैं। technology failure हो सकता है। तो वो एक छोटा सा problem हो। अरे चिंता मत करो, चलो, चलो खा लेते हैं। चलो यार, होस्टल में चलो, खा लेते हैं। कोई बात नहीं तेरा जन्मदिन है, मां का फोन आया नहीं, चलो, हम लोग जाते हैं, मेरे पास पैसे हैं, हम लोग चॉकलेट खा लेते हैं। एक-आध दोस्त तनावपूर्ण जिंदगी को भी बहुत हल्के—फुल्के से ठीक कर देता है। मैं समझता हूं जीवन में ऐसे खुलापन हो, और मुझे तो बहुत छोटी आयु से बाहर हूं, तो मैंने जिंदगी को बहुत अलग तरीके से देखा है। अलग उतार-चढ़ाव से जिंदगी मेरी गुजरी है। उसी ने मुझे जीना सिखाया है। और मैं समझता हूं कि शायद, मेरी जैसी जिंदगी अलग थी तो सबको काम नहीं आ सकती है, लेकिन छोटा सा यह प्रयास है, लेकिन depression को light न बच्चों को लेना चाहिए, न guardian ने लेना चाहिए, न टीचर ने लेना चाहिए। यह utmost priority होना चाहिए। अगर समय के रहते सही तरीके से उनको आप communicate करेंगे, बातचीत करेंगे, समय बिताएंगे तो स्थिति को बड़ी आसानी से निकाला जा सकता है। और भारतीय समाज व्यवस्था ऐसी रही है कि जिसने हमें परिवार में ही, एक प्रकार से हमारा DNA ऐसा बना हुआ है हम ऐसी चीजों को आसानी से झेल सकते हैं। ऐसी चीजों से जूझ सकते हैं और ऐसी चीजों से जिंदगी के रास्ते खोल सकते हैं।
मुझे विश्वास है कि आप सभी भी इसकी दिशा में आगे बढ़ेंगे। मैं समझता हूं कि यह आखिरी सवाल था। मुझे बहुत अच्छा लगा आप लोगों के साथ बातचीत करके। बहुत ही अच्छे सवाल आप लोगों के थे। मुझे भी आराम से आप लोगों के साथ बात करने का मौका मिला, लेकिन मेरी अभिभावकों से आखिरी एक विनती है कि आप कभी, अगर आपका बेटा 14 साल का है, तो दिन में एक बार मां और बाप दोनों दिन में एक बार, आप जब 14 साल के थे तब क्या होता था। तब आपके मन में विचार क्या आते थे। तब आपके मां-बाप जो करते थे उससे आपको क्या होता था। एक बार याद कर लेंगे, तो आपके और आपके बच्चों के बीच का तनाव कभी नहीं बढ़ेगा। खुद एक बार याद कीजिए कि आप जब 14 साल के थे तब क्या होता था। तो 14 साल के बच्चे के साथ क्या करना है, वो आपका ही अनुभव आपको सिखा देगा। आपके मां-बाप से जो आपने सीखा है, वो सीखा देगा। लेकिन बहुत मां-बाप है, वो अगर 50 के हो गए, तो चाहते हैं कि बच्चा भी 50 के हिसाब से उनसे बातचीत करे। आवश्यकता है बेटा 14 का है, बाप 50 का है। बाप 14 का बन करके उस बेटे को समझने की कोशिश करे। काफी समस्याएं परिवार की सुलझ जाएगी। मैं फिर एक बार आप सबको बहुत-बहुत शुभकमानाएं देता हूं। यह exam उत्सव बने, आप जीवन को सफल बनाए, जिंदगी को जीते, गुण सम्पदा आपकी जिंदगी की ताकत है। पर्चें में लिखे हुए गुणांक, यह जिंदगी में ultimate नहीं होता है। हम अपने आप को educate भी करे हम अपने आपको ट्रेन भी करे। जितना महत्व education का है, उतना ही महत्व जिदंगी में training का है। यह संतुलन बना करके चले। मेरी आप सबको बहुत-बहुत शुभकमानाएं। बहुत-बहुत धन्यवाद।