अहमदाबाद
दि. २१/१२/२०११
सार्वजनिक अनुशासन के कार्यक्रम में विलंब से आया इसके बदले मैं आप सब से क्षमा चाहता हूँ और भाई राजीव गुप्ता को विश्वास दिलाता हूँ कि आपके पुस्तक के प्रकाशन के समाचार कल जरूर छ्पेंगे और प्रकाशक को भी विश्वास देता हूँ कि आपको किसी भी तरह के निजी खर्च के बग़ैर पब्लिसिटी मिलेगी। कारण, पुस्तक सार्वजनिक शिस्त का हो और मुख्यमंत्री ही अशिस्त करे तो वह चौखटा बने ही और सम्भव है कि विनोदभाई को अगले सप्ताह कुछ मसाला मिल जाए। मित्रों, मैं सुबह बिल्कुल अनुशासित ढंग में शुरु करता हूँ लेकिन मिलने आने वाले, काम लेकर आने वाले, महज दो-चार मिनट भी ज़्यादा लें तो शाम होते होते समय का पालन करना मुश्किल हो जाता है। इसके परिणाम आप सबको इंतज़ार करना पडा और कारण कितने भी हों लेकिन सच्चाई यही है कि मैं देरी से आया।
कई बार एक विचार मेरे मन में आता है कि भाई, एक विषय में, वेस्टर्न वर्ल्ड और हमारे लोगों में कहाँ फर्क पाया जाता है? उदा. हाइजीन, पर्सनल हाइजीन और सोशल हाइजीन। हमारे यहाँ ऐसे संस्कार हैं और ऐसी परम्पराएं रही हैं कि व्यक्तिगत और स्वास्थ्य के मामलों में बहुत जागरूकता हमारे सामाजिक जीवन के भीतर पडी हैं। कुछ चीज़ों को छूने का नहीं, कुछ चीज़ों को लेने का नहीं, भोजन के समय ऐसा करने का... इतने सारे नियमों को घर के अंदर हम सबने देखे हैं। पानी के उपयोग की बाबत में भी नियम देखे हैं, बर्तन के उपयोग के संबंध में... हर घर में इस प्रकार के नियम होते ही हैं और सदियों से यह परम्पराएं विकसित हुई हैं। स्नान करने का, रेग्युलर करने का... यह सारी चीज़ों का आग्रह, पर्सनल हाइजीन के मामलों में, हमारे यहाँ बिलकुल जन्मगत है। लेकिन सोशल हाइजीन के मामले में? कचरा कहीं भी फेंकना... उसमें हम जागरूक नहीं हैं। जब कि वेस्टर्न वर्ल्ड में? ज़रूरी नहीं है कि ऑफिस नहाकर जाना चाहिए और ज्यादातर लोग वहाँ शाम को आकर स्नान करते हैं। हमारे यहाँ स्नान, पूजा-पाठ करके कोई पवित्र काम करने जाना हो ऐसे तैयार होते हैं। मैं यहाँ कोई पश्चिम की आलोचना करने नहीं आया हूँ, बात को समझने के लिए उपयोग कर रहा हूँ। लेकिन सोशल हाइजीन में, सब नियमों का पालन करते हैं और इसके कारण यह स्वच्छता, कुछ बाबतों और इनके नॉर्म्स हमें सीखने जैसे लगें। अब अगर इन दोनों का कॉम्बिनेशन हो तो पर्सनल हाइजीन और सोशल हाइजीन दोनों की सुरक्षा बनी रहे।
जैसे यह एक बाबत है, वैसे ही यह शिस्त की बाबत है। हमारे यहाँ व्यक्तिगत जीवन के अंदर कितनी ही शिस्त क्यों न हो, लेकिन समूह में हम बिल्कुल अलग होते हैं। अभी मैं दो दिन पहले सूरत में था, मेरा सदभावना मिशन का कार्यक्रम चल रहा था। वहाँ सामने एक दूसरा कार्यक्रम चल रहा था। उनका यह रिवाज है, आज भी कुछ पैरेलल किसी पुस्तक का विमोचन हो रहा होगा... विजय, आपको कहता हूँ, लेकिन शायद किसी ने नहीं रखा होगा। वहाँ एक मंत्रीश्री के जन्मदिन की कुछ ४७ किलो की केक थी और उसकी लूट-मार के द्रश्य देखे टी.वी. पर, तो मुझे लगा कि अरे, यह जन्मदिन के साथ ऐसा? कारण क्या? यदि थोड़ा सा भी सार्वजनिक अनुशासन का अभाव न होता, तो वह द्रश्य कितना उत्तम होता और कितना गौरवपूर्ण होता, लेकिन वही घटना ने कैसा विचित्र रूप धारण कर लिया। हमारे यहाँ जहाँ धार्मिक मामले होते हैं वहाँ की विशेषता देखें। बहुत कम मंदिर होंगे जहाँ ‘जूते यहाँ उतारें’ ऐसा लिखा होगा, बहुत कम मंदिर होंगे। ज़माने के बदलने के साथ अब ऐसा लिखना पडता है, जैसे आज से ५० साल पहले, ‘शुद्ध घी की दुकान’ ऐसा बोर्ड मैंने तो नहीं पढ़ा था! ५० साल पहले हमारे यहाँ ऐसा नहीं था, लेकिन आज लिखना पडता है, ‘शुद्ध घी की दुकान’, क्योंकि बाजार में दूसरा अवेलेबल है। तो, ‘जूते यहाँ उतारें’ ऐसा कभी लिखना नहीं पडता था और अब स्थिति बदल चुकी है। वह जो था उसका कारण, संस्कार। कोई नोर्म्स लिखे नहीं थे। आप विचार करो कि हमारे यहाँ कुंभ का मेला होता है, उस कुंभ के मेलें में हर रोज़ गंगा के किनारे एक पूरा ऑस्ट्रेलिया इकठ्ठा होता है, आप विचार करो..! और फिर भी कोई बड़ी कैआटिक घटनाएं हमारे सुनने में नहीं आती हैं। और इसके मूल में वह जो धर्म-तत्व पड़ा है, जो कुछ उसे खींचता है, जो कुछ उसे बांधता है, उसे कहीं जोड़ता है और इसके कारण उस समग्र व्यवस्था में व्यवस्थापक कैटलिक एजेंट होते हैं, समाज स्वयं ही व्यवस्था का वहन करता है। और जहाँ व्यवस्था का वहन करने का सामर्थ्य हो, वहाँ व्यवस्था अपने आप फैलती है, अपने आप विकसित होती है। उसका स्केल कितना भी बड़ा हो, वह व्यवस्था विकसित होती जाती है, फैलती जाती है।
हमारे समाज जीवन के अंदर, कई बार हम कहते हैं कि दुनिया के अनेक देश जो हमारे बाद आजाद हुए, फिर भी आगे निकल गए। तो कारण क्या है? मुख्य कारण लगभग यही आता है कि एक समाज के रूप में उनमें डिसीप्लिन है। अभी मुझे एक मित्र मिले, वह जापान जा कर आये थे। अमीर परिवार के थे तो वहाँ की महंगी से महंगी होटेल के स्वीट में उनका बुकिंग था। लेकिन वहाँ सूचना थी कि २६ डिग्री टेम्परेचर से ज़्यादा रूम ठंडा नहीं हो सकेगा, कितना भी पेमेन्ट दो फिर भी यह नहीं होगा। क्यों? तो कहा कि सुनामी और अर्थक्वेक के बाद हमारे वहाँ पावर जनरेशन की जो समस्या खड़ी हुई है इसलिए एक राष्ट्र के रूप में हमने निर्णय लिया है कि सबको एनर्जी कन्सर्वेशन करने का। और इसके लिए २६ डिग्री से नीचे टेम्परेचर ले जाने के लिए किसी भी प्रकार से ऊर्जा का उपयोग नहीं करने का, इसलिए आपको २६ डिग्री में ही रहना होगा। और पूरा जापान इसका अमल करता है, मैं यह हाल ही की सुनामी के बाद की घटना कह रहा हूँ। हमारे यहाँ अगर गल्ती से भी ऐसा कोई निर्णय करें तो क्या हो उसकी आप कल्पना कर सकते हैं, साहब..! बाकी सारे समाचार गौण बन जाए, यही हेड्लाइन हो। काले झंडे, मोर्चे इसीके कार्यक्रम चलते हों। कारण? एक समाज के रूप में अनुशासन तभी आता है, जब एक समाज के रूप में जिम्मेदारी का तत्व प्रमुख होता है। सोशल रिस्पाँन्सबिलिटी के बग़ैर सोशल डिसप्लिन किसी को आवश्यक ही नहीं लगेगी और इसलिए सामाजिक जिम्मेदारी का वातावरण बनाना पडे। दुर्भाग्य से, देश आजाद होने के बाद हमारे यहाँ अधिकार के तत्व को महत्त्व ज्यादा मिला। देश आजाद हुआ तब तक पूरे देश का वातावरण था, फ़र्ज का। देशसेवा करना हमारा फ़र्ज है, स्वदेशी हमारा फ़र्ज है, शिक्षा हमारा फ़र्ज है, खादी पहनना हमारा फ़र्ज है। गांधीजी ने जब लोगों के मन में बिठा दिया था कि यह सब तो हमारे फ़र्ज का एक भाग है, हमें देश को आजाद कराना है। लेकिन, देश आजाद हो जाने के बाद हमें ऐसा लगा कि अब तो फ़र्जों का काल समाप्त हो गया है, अब तो अधिकारों का काल है। और इसके कारण हमारी पूरी सोच अधिकार के आसपास है और इसके कारण परिणाम यह हुआ है कि हर चीज़ में ‘मेरा क्या?’ हमारी पूरी रचना ही ऐसी बनी है कि कुछ भी हो, पहला सवाल उठता है मन में कि ‘मेरा क्या?’ और ‘मेरा क्या?’ का अगर पॉज़िटिव जवाब नहीं मिलता है, तो तुरंत ही मन जवाब देता है कि ‘तो फिर मुझे क्या?’। जब तक ‘मेरा क्या?’ का उत्तर मिलने वाला है, तब तक उसे धीरज है, लेकिन जिस दिन नकारात्मक उत्तर मिल गया, उसी पल उसकी आत्मा कह उठती है, “मुझे क्या? फोड़ो भाई, आपका है, करना...” और यही अशिस्त को जन्म देता है।
शिस्त कोई आपके बोलने-चालने का, डिसीप्लिन के दायरे का विषय नहीं है। शिस्त समाज की विकास यात्रा की ओर देखने के द्रष्टिकोण का एक हिस्सा है। आप पूरी इस विकास यात्रा को किस द्रष्टिकोण से देखते हैं, इसके आधार पर होता है। एक माँ-बाप अपने बच्चों को कैसे संस्कार देना चाहते हैं, उसके आधार पर तय होता है कि बच्चों को किस प्रकार की शिस्त में आप पालन करना चाहते हैं। माँ-बाप घर में हो, किसी का टेलीफोन आए, पिताजी घर में हो और पिताजी कहे कि, “ऐसा कह दो कि पापा बाहर गये हैं”, फिर पापा अपेक्षा करे कि मेरा बेटा झूठ न बोले, इम्पॉसिबल। लेकिन जब मैं यह कहता हूँ तब मेरे दिमाग में मेरा बेटा नहीं होता है, मेरे दिमाग में सामने वाले का टेलिफोन होता है और इसके कारण, एकाकी थिंकिंग होने के कारण, मैं मेरी पूरी परिस्थिति पर इसका प्रभाव क्या पड सकता है इसका अनुमान तक नहीं कर सकता। ज्यादातर लोगों को बस में जाते हमने देखे होंगे। अकेला पैसेन्जर होता है तो वह क्या करता होता है? कोई हो तो खिड़की में से प्राकृतिक सुंदरता को देखे या हरियाली... लेकिन ज्यादातर क्या करते हैं? बस की सीट में, यहाँ कोई बाकी नहीं होगा... और इसके फ़ोम में से छोटी-छोटी-छोटी कतरन बाहर निकाले। साहब, यहाँ से वडोदरा उतरे तब तक दो इंच का गड्ढा बना दे। किसी का नुकसान करना चाहता था? नहीं। उसमें कोई स्पेशल एन्टर्टेन्मेन्ट था? नहीं। लेकिन एक स्वभाव का, संस्कार का अभाव। और उसे ऐसा लगता ही नहीं था कि यह मेरी संपत्ति है और इसलिए उसे दो इंच का गड्ढा बना देने में कुछ होता नहीं था। बिल्कुल नई बस रखी हो, बढ़िया बस रखी हो तो ड्राइवर को भी ऐसे गर्व होता होगा और वह बस अच्छी तरह से चलाता हो और फिर भी शाम को जब वह डिपो में पहुँचे तब कई सीट ऐसी होती हैं जिसमें दो-दो इंच के गड्ढे बने हो। यह सहज बात है। मैं कई बार नौजवानों को कहता हूँ कि भाई, हम चिल्ला चिल्ला कर बोलते हैं, “भारत माता की जय, भारत माता की जय... वंदे मातरम...” सब करते हैं, फिर? तुरंत ही पिचकारी मारते हैं। यही भारत माता पर गुटका खा कर तुरंत ही पिचकारी मारते हैं। उसे वह पता नहीं है कि जिस भारत माता का जय-जयकार कर रहा हूँ उसी पर ही पिचकारी मार कर गन्दगी कर रहा हूँ, क्या इसकी मुझे खबर है? लेकिन अगर उसे कोई यदि इस रेन्ज में बात समझाये तो उसे लगे कि हाँ, यार! छोटी छोटी बातें होती हैं, देशभक्ति इस से भी प्रकट हो सकती है। देशभक्ति प्रकट करने के लिए कोई भगत सिंह के रास्ते ही जाना पड़े ऐसा ज़रुरी नहीं है, भाई। मैं इतनी छोटी छोटी चीज़ें करके भी देशभक्ति, समाजभक्ति, पितृभक्ति, मातृभक्ति, गुरुभक्ति सब कुछ कर सकता हूँ।कई बार नकारात्मकता... मैं एक बार एक कार्यक्रम में मुंबई गया था, दस एक साल हुए होंगे। और मेरे आश्चर्य के बीच कार्यक्रम के प्रवेशद्वार पर ही बचपन में मुझे जिन्हों ने पढ़ाया था वे मेरे शिक्षक खड़े थे और मैंने उन्हें ३५-४० साल बाद देखा होगा। मुझे बराबर याद आया कि हाँ, वही है। और सहज रूप से मैंने उन्हें प्रणाम किए,
पाँव छुए। सहज ही, यानी मुझे उसमें कुछ सोचने जैसा अवसर ही नहीं था। लेकिन उस दिन वह न्यूज़ बन गए। अब पैर छूना भी कोई न्यूज़ होता है, भाई? मेरे मन में वैसे आनंद होता है कि भाई मुख्यमंत्री की नम्रता देखो, ऐसा-वैसा, सब कुछ... लेकिन मुझे मन में प्रश्न होता है कि क्या यह न्यूज़ है, भाई? क्या इस राज्य में या इस देश में किसी भी नागरिक को उसके गुरुजन मिले तब उसके पाँव छूने के संस्कार सहज हो, लेकिन जब वह न्यूज़ बन जाते हैं तब एहसास होता है कि यह सब कैसे बंद हो गया है..! यह सहज प्रक्रियाएं, करने जैसी प्रक्रियाएं हमारे यहाँ जैसे आजकल गुनाह बन गया है। मुझे याद है हमारे गवर्नर साहब थे नवल किशोर शर्माजी, वैसे तो वे कांग्रेस के आदमी हैं, लेकिन मुझे सहज रूप से जब भी मैं जाऊं तब उनके पैर छूने का मन हो। सहज, मेरे क्रम में। लेकिन मुझे इतना सचेत रहना पडता था कि ये फोटोग्राफर बाहर जाए उसके बाद मैं मेरी विधि करुं। यह रहस्य आज खोल रहा हूँ। वरना साहब, जैसे अपराध हो गया हो..! राज्य का मुख्यमंत्री, वह इस प्रकार झुके? मित्रों, ये सारी जो बातें हैं, एक ऐसी विकृति धारण की है हमारे यहाँ जो कई बार हमारे संस्कार, हमारी शिस्त, हमारी जो परंपराएं हैं, इनके सामने संकट पैदा करने का जैसे एक योजनाबद्ध तरीके से प्रयास चालू है। और हम फिर विचलित हो जाते हैं, हमें भी डर लगने लगे। सार्वजनिक जीवन के अंदर यदि विकास की यात्रा करनी हो, व्यक्ति के जीवन में भी विकास करना हो, तो शिस्त बहुत ही काम में आती है।
शिस्त का दूसरा रूप है, ऑर्गनाइज़्ड होना। ज्यादातर लोग वैसे शिस्तबद्ध हों, लेकिन ज्यादा ऑर्गनाइज़्ड न हों और इसके कारण उनकी शिस्त हमें अक्सर ऐसे कष्ट देती है। हमारी शिस्त ऐसी नहीं होनी चाहिए कि दूसरों को कष्ट दे। आप मेले में चल रहे हो और फिर एक-दो, एक-दो करके चलो तो क्या हो? आपको तुरंत बाहर निकाले कि भाई, परेड करनी हो तो मैदान में जाओ। मेले में तो मेले की तरह ही चलना पडे आपको,
हल्के
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फुल्के होकर चलना पडे। तो मित्रों, ऑर्गनाइज़्ड होना और शिस्त का यह जो रूप पकड लिया है न वह तो इसका छोटा सा अंश है, पूर्णतया
जीवन के द्रष्टिकोण का एक हिस्सा, उस रूप में शिस्त को कैसे देखा जाता है।
मित्रों, ट्राइबल लोगों का अगर अध्ययन किया हो, बहुत प्रेरणा लेने जैसा है। आजकल बायो-फ्यूअल के लिए जैट्रोफा के उपयोग की चर्चा है न, इस विज्ञान में तो अभी अभी से जैट्रोफा की चर्चा चली है। हमारे डांग में जाओ, वहाँ आदिवासी भाईयों रात्रि गमन के दौरान जैट्रोफा का क्या अदभुत उपयोग करते हैं और कितना सिस्टमैटिक तरीके से करते हैं वह शिस्त देखने जैसी होती है और आज भी वह परंपरा है। एक तो, आदिवासी जब स्थानांतरण करते हों तब सब लाइन में ही चलते हैं। साथ साथ चले लेकिन हम जिस प्रकार गपशप करते हुए, कंधे टकराते हुए चलते हैं वैसे वे लोग नहीं चलेंगे। एक के पीछे दूसरा, दूसरे के पीछे तीसरा। मैंने उसमें से एक को पूछा था कि यह प्रणाली कैसे विकसित हुई होगी? उसका जो उत्तर था साहब, वो समझने जैसा था। सच है या झूठ उसकी कुछ मैंने जांच नहीं की है, लेकिन उसने जो उत्तर दिया वो मैं आपको कहता हूँ। उसने कहा कि साहब, हम जंगल में चल रहे हों, सांप या और कुछ हो तो पहले आदमी को ही फेस करना पडे, बाकी सब सुरक्षित रहे। अगर हम पूरी टोली चलें तो संभव है कि अनेक लोगों को नुकसान हो। यह शायद हमारी इस परंपरा में से ही विकसित हुआ होगा। जैट्रोफा का कैसे करते हैं? काँटा ले, काँटे में वह जैट्रोफा का बीज लगाए और उसे जलाए और चलें, उसकी रोशनी में चले। एक का पाँच-सात मिनट की दूरी पर ख़त्म हो तो दूसरे के हाथ में काँटा हो ही, वह तुरंत उसी से जला दे। दस लोग चलते हों, एक के बाद एक इतने डिसीप्लिन्ड तरीके से, माचिस की एक ही तीली से उनके जैट्रोफा के बीज की रोशनी में पूरी यात्रा इतने सिस्टमैटिक ढंग से पूर्ण करते हैं..! इसका अर्थ यह हुआ कि उन्होंने अपनी नीड में से एक फारमूला डेवलप की, जिसे अनुशासित किया और उसे जीवन के सालों तक चलाते रहे। कई बार इन सब बातों को हमारे समाज जीवन के रूप में कितना स्वीकार करते हैं इसके उपर निर्भर रहता है।
आज भी हमारे यहाँ मर्यादा नाम की चीज़ की ऊंचाई कितनी है? बहुत कम लोग अंदाजा लगा सकते हैं। आप बस में चढ़ने के लिए लाइन में खड़े हो, धक्का-मुक्की चल रही हो और कोई दूसरा आदमी खिड़की में से अपना रूमाल डालके सीट पर रख दे, आप अंदर बराबर धक्का-मुक्की करके, कपडे फ़ट जाए, पसीना हुआ हो और अंदर चढ़े हों, लेकिन वह आकर कहे कि मैंने रूमाल रखा हुआ है तो आप खड़े हो जाते हो। यह आपने देखा होगा..! उसने सिर्फ खिड़की में से रूमाल डाला है, उसने कोई कसरत नहीं की है। कारण? मर्यादा के संस्कार वैसे के वैसे पड़े होते हैं। मित्रों, समाज जीवन का इस प्रकार निरीक्षण करें तो कितने अदभुत अदभुत उदाहरण देखने को मिलते हैं और इसलिए शिस्त का जितना महत्त्व है उतना ही ऑर्गनाइज़्ड होना भी सफलता के लिए बहुत ज़रुरी है।
कई लोगों की शिस्त पूरे वातावरण के लिए बोझ बन जाती है। शिस्त ऐसी हो ही नहीं सकती कि जो बोझ बढ़ाए, शिस्त हमेशा सरलता देती है। आप ऐसे धीर-गंभीर चेहरा रख कर हमेशा चौबीस घंटे रहते हो साहब, इससे कुछ शिस्त नहीं आती है। शिस्त बोझ न बन जाए, शिस्त आल्हादक बन जाए, एक उत्साह के साथ हो और इसलिए शिस्त के उस रूप को जो पकड़ता है वही टीम फॉर्म कर सकता है, वही टीम से काम ले सकता है। जो शिस्त को सख्त नियमों में बाँधता है वह कभी भी टीम बना नहीं सकता। और इसलिए सार्वजनिक जीवन को भी मर्यादाओं की आवश्यकता होती है। इसमें वैल्यू एडिशन होना चाहिए, मूल्य वृद्धि होनी चाहिए। और नैतिक अधिस्थान और मूल्य में गहनता आए तो ही मूल्य वृद्धि होती है, अन्यथा संभव नहीं होता है। और इसलिए शिस्त को इस रूप में देखना चाहिए कि भाई, नियत कार्य समय पर करता है कि नहीं, इतने तक ही सीमित नहीं है।
कई लोग ऐसे हैं कि माँ कहती हो कि बेटे, अब तुम्हें सो जाना है। बेटा कहता है कि नहीं मां, मुझे कल इम्तिहान है। माँ कहती है कि बेटे, तुम बीमार हो, ज्यादा बीमार पड़ जाओगे, कल भी जागा था... अब एक अर्थ में अशिस्त है, लेकिन दूसरे अर्थ में अपने काम के लिए उसका डिवोशन है। वो शायद शिस्त से अधिक ऊंचाई रखता है और इसलिए इन दोनों को तौल नहीं सकते कि भाई, तुमने तुम्हारी मां की बात नहीं मानी। माँ ने बहुत अच्छा खाना बनाया हो और् बेटा कहे कि मुझे खाना नहीं है। कारण? मैं खाना खाऊंगा तो रात को मुझे नींद आएगी, मुझे पढ़ना है। और इसलिए माँ के जज़्बात को ठुकराकर भी, खाने को इनकार करके भी, वह पढ़ने में मशगूल रहे वह उसकी प्रतिबद्धता है। तो शिस्त की ऊंचाई से देखें तो शायद शिस्त लाई जा सकती है लेकिन मेरी शिस्त को तुमने माना नहीं और इसलिए तू निकम्मा है ऐसा स्टैन्ड अगर मां लेती है तो शायद न तो मां को संतोष होगा, न बेटे को संतोष होगा और न ही दोनों की विकास यात्रा में एक दूसरे के पूरक बन पायेंगे। और इसलिए इस ह्यूमन साइकी को किस प्रकार से लेते हैं इसके आधार पर शिस्त को जोड़ सकते हैं। शिस्त को आप उस अर्थ में नहीं ले सकते। अभी जो बाहर का उदाहरण कहा, मुझे तो अभी याद नहीं है कि क्या हुआ था क्योंकि मुझे तो रूटीन में कई बार ऐसा करना होता होगा। लेकिन यह कुछ भुजाओं का बल नहीं है मित्रों, भुजा के बल से नहीं होता है, भावना और प्रेम के एक वातावरण से वह स्थापित होता है।
मित्रों, शिस्त की पहली शर्त है, अपनत्व। अपनेपन का भाव ही शिस्त ला सकता है। आप जब तक अपनेपन के भाव की अनुभूति न करवाओ, तब तक आप शिस्त नहीं ही ला सकते। समाज जीवन में भी शिस्त लानी हो तो अपनेपन का भाव ज़रूरी होता है, अपनत्व का भाव ज़रूरी होता है और जहाँ अपनत्व हो वहाँ शिस्त स्वाभाविक होती है। कई बार आदमी को लक्ष्य जोड़ता है। थियेटर के अंदर शांति बनाये रखने के लिए कहना नहीं पडता, कारण? सबका इन्टरेस्ट है कि शांति रखें तो लाभ मिले और इसलिए शांति बनी रहती है और इसमें अगर कोई थोड़ी भी गड़बड़ करे तो पन्द्रह लोग ऐसे परेशानी से देखने लगे। इसका अर्थ यह हुआ कि यह जो स्वाभाविक अपेक्षाएं पड़ी होती हैं, जिसके कारण अपना हित बना रहता हो, खुद की कोई एक सीमित इच्छा भी बनी रहती हो, तो वह भी आदमी को शिस्त में बाँधती है। कैसा भी अशिस्त करने वाला इंसान हो, लेकिन इसमें उसे शिस्त बाँधती है। और इसलिए कैसे हालात हैं इसके आधार पर होता है। इसलिए मित्रों, शिस्त को किसी चौखट में देखें और उसी प्रकार से मूल्यांकन करें तो शायद वह सामर्थ्य नहीं आ सकता।
हम एक समाज के रूप में... हममें अनेक शक्तियाँ पडी हैं, अपार शक्तियों का भंडार है, मित्रों। हमारी पूरी परिवार व्यवस्था, अभी शायद इसके उपर ज्यादा अध्ययन हुए नहीं हैं, लेकिन फ़ैमिली नाम की जो इन्स्टिटूशन है, शायद उस से बड़ी अनुशासन की संरचना और कहीं नहीं होगी। अदभुत व्यवस्था है। किसी कानून में लिखी हुई व्यवस्था नहीं है, लेकिन अदभुत व्यवस्था है। हाँ, जहाँ इसका धावन हुआ होगा, वहाँ अस्त-व्यस्त भी हुआ होगा। लेकिन जहाँ थोड़ा सा भी बना रहा होगा, तो उसका आनंद भी होगा। इस फ़ैमिली इन्स्टिटूट के अंदर हमारे यहाँ जो चीज़ें हैं इनके विस्तार की ज़रूरत है। जो अनुशासन मेरे परिवार के विकास का और आनंद का कारण बना है, वह मेरे परिवार से विस्तृत होकर मेरे समाज में आए, मेरे समाज से विस्तृत होकर मेरे गाँव में आए, मेरे गाँव से विस्तृत होकर मेरे राज्य में आए और मेरे राज्य से विस्तृत होकर मेरे देश का हिस्सा बने और यदि इस क्रम को हम आगे बढ़ाएंगे तो मैं मानता हूँ कि ‘इक्कीसवीं सदी, हिंदुस्तान की सदी’, यह जो सपना लेकर हम चल रहे हैं, इसकी मूलभूत आवश्यकता पूरी करने का एक आधार बन सकता है।
भाई राजीव गुप्ता को अभिनंदन देता हूँ, जिनकी मातृभाषा गुजराती नहीं है और फिर भी पुस्तक गुजराती में लिखा है इसके लिए सबसे पहले अभिनंदन और छोटे-छोटे इनके रोज़ाना कार्यों में से उन्हों ने अनुभव लिए हैं। मैं भी आते जाते ज़रूर इसे
पढूंगा, आप भी पढ़ना। मेरे लिए नहीं कहता हूँ लेकिन प्रकाशक खुश हो गए...