१९७५ के आपातकाल के खिलाफ जनशक्ति की महान विजय का स्मरण

प्रिय मित्रों,

ठीक ३८ वर्ष पूर्व आज ही के दिन, गणतंत्र भारत को अपने हालिया इतिहास की सबसे मुश्किल कसौटी का सामना करना पड़ा था। अहंकार और सत्ता के मद में चूर हो चुके कई राजनीतिज्ञों को जब लगा कि अब सत्ता को बचाए रखना उनके बस की बात नहीं है, तो बजाए इस्तीफा देने के उन्होंने देश के लोकतांत्रिक ढांचे को ही ध्वस्त करने की कवायद शुरू कर दी। २६ जून, १९७५ की मध्यरात को देश में आपातकाल लागू कर दिया गया और भारतीय इतिहास का एक ऐसा दौर शुरू हुआ जो कालिमा से भरपूर था।

आपातकाल से जुड़ी अनेक यादें मेरे मन में अंकित हैं। उस वक्त मैं २५ वर्षीय नौजवान था, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-आरएसएस के साथ काम करना शुरू ही किया था। लेकिन उन काले दिनों में जो कुछ भी मैंने देखा वह आजीवन मेरे मन में अंकित रहेगा। लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को क्रूरता के साथ कूचल दिया गया, यह कौन भूल सकता है? राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने के लिए मीसा कानून के सरेआम दुरुपयोग को कौन भूला सकता है? प्रचार माध्यमों की तालेबंदी को कोई कैसे भूल सकता है? १९ महीने तक देश भर में लाखों लोगों ने जो संघर्ष किया, उसे हम किस तरह भूल सकते हैं? स्वयं पर मंडराते खतरे को भूलकर, देश में लोकतंत्र की पुनःस्थापना के लिए अनेक लोगों ने अपना जीवन समर्पित कर दिया।

आपातकाल ने मुझ जैसे नौजवानों को एक ही लक्ष्य के लिए आंदोलनरत कई नेताओं और संस्थाओं के साथ कार्य करने का उत्तम अवसर प्रदान किया। जिन संस्थाओं के साथ जुड़कर हम बड़े हुए थे, उनकी सीमाओं से परे जाकर साथ मिलकर काम करने के हम काबिल बनें। हमारे परिवार के दिग्गज नेताओं अटल जी, आडवाणी जी, स्व. श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी, स्व. श्री नानाजी देशमुख से लेकर श्री जॉर्ज फर्नांडीस जैसे समाजवादी और श्री मोरारजी देसाई के करीबी श्री रवीन्द्र वर्मा जैसे कांग्रेसी नेता भी आपातकाल लागू होने से खफा थे। विभिन्न विचारधारा वाले इन नेताओं से हम प्रभावित हुए। इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूं कि मुझे गुजरात विद्यापीठ के पूर्व कुलपति धीरुभाई देसाई, मानवतावादी श्री सी.टी. दरु और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री श्री बाबूभाई जसभाई पटेल एवं श्री चिमनभाई पटेल सहित अग्रणी मुस्लिम नेता श्री हबीब-उर-रहमान जैसी शख्सियतों से काफी कुछ सीखने को मिला। स्व. श्री मोरारजीभाई देसाई, जिन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कांग्रेस की तानाशाही का प्रतिकार किया और इसे लेकर पार्टी तक को छोड़ दिया, उनका संघर्ष और संकल्प आज भी मेरी आंखों के सामने तैर रहा है।

एक विशाल हित की खातिर विविध विचारधाराओं का मानों जीवंत संगम हो रहा था। जात-पात और धर्म-संप्रदाय के भेद से ऊपर उठकर हम सभी देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को बरकरार रखने के समान ध्येय के लिए संघर्षरत थे। दिसंबर, १९७५ में हमने विरोधी दलों के सभी सांसदों की एक अहम बैठक गांधीनगर में आयोजित की थी। इस बैठक में स्व. पुरुषोत्तम मावलंकर, श्री उमाशंकर जोशी और श्री कृष्णकांत जैसे सांसद भी मौजूद थे।

विविध संस्थाओं और पार्टियों के लोग, जिन्होंने पहले शायद कभी एक-दूसरे को देखा भी नहीं होगा, देशहित के एक विचार को लेकर एक-दूसरे के निकट आए। मसलन, इस इकलौते उद्देश्य के लिए भारतीय मजदूर संघ-बीएमएस वामपंथी मजदूर संगठनों के साथ मिलकर काम कर रहा था। हमें अलग-अलग पार्टियों के विद्यार्थी संगठनों के साथ करीब से काम करने का मौका मिला। ये विद्यार्थी संगठन स्कूल-विश्वविद्यालयों में शायद एक-दूसरे के साथ राजनीतिक लड़ाई लड़ते रहे होंगे, लेकिन जब देश के लोकतंत्र की रक्षा का सवाल उठा तब वे सब एकजुट हो गए थे। कई संस्थाएं और लोग उसी आरएसएस के साथ मिलकर काम कर रहे थे, जिसे पहले कई लोग राजनीतिक तौर पर अछूत मानते थे। मानों १९७४ का गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन और बिहार के जेपी आंदोलन के दौर का जोश राष्ट्रीय स्तर पर पुनः जीवंत हो रहा था।

आपातकाल की वजह से विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं और नेताओं के अलावा गैर सरकारी सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ने का अवसर भी मुझे मिला। देश में जो कुछ भी चल रहा था, उससे ये सभी व्यथित थे। गांधीवादी लोगों और सर्वोदय आंदोलन से जुड़े लोगों के साथ मेरा अनुभव अत्यंत उपयोगी रहा। ऐसे ही एक गांधीवादी श्री प्रभुदास पटवारी के घर जुलाई, १९७५ की एक शाम मुझे श्री जॉर्ज फर्नांडीस से मिलने का अवसर मिला। मुझे भली-भांति याद है कि उस शाम जॉर्ज साहब पीले रंग की फिएट कार में आए थे। बढ़ी हुई दाढ़ी और उनका ट्रेड मार्क बन चुका बिना प्रेस वाला कुर्ता पहने जॉर्ज साहब ने हरे कपड़े से अपना सिर ढंक रखा था। श्री नानाजी देशमुख के साथ उनकी मुलाकात कराने का अवसर मुझे मिला। ये दो ऐसी शख्सियतें थीं, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री को भय से थरथराने का माद्दा रखते थे।

जब मैं पीछे मुड़कर आपातकाल के उस दौर को देखता हूं, तब तानाशाही राजनीति को १९७७ में उदित होते ही ठुकरा देने की भारत के लोगों की दूरदर्शिता को सलाम किए बिना नहीं रह सकता। प्रिंट मीडिया और रेडियो को सेंसर से होकर गुजरना पड़ता और महज सरकार समर्थित बातें ही प्रस्तुत की जा सकती थीं, बावजूद इसके लोगों में आक्रोश की ऐसी आंधी उठी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो अभी शैशवावस्था में ही था और सोशल मीडिया का तो अस्तित्व ही नहीं था। मन में यह विचार आ रहा है कि उस जमाने में भी यदि सोशल मीडिया होता तो क्या प्रधानमंत्री आपातकाल लागू कर सकती थीं? क्या आपातकाल इतने समय तक रह पाता?

यहां मैं अपनी पुस्तक ‘आपातकाल में गुजरात’ रख रहा हूं, जिसमें मैंने आपातकाल के दिनों के मेरे संस्मरण लिखे हैं। विशेषकर पेज नं. २०० पढ़िएगा, जहां यह बात कही है कि, किस तरह अलग-अलग राजनीतिक संस्थाएं एक-दूसरे के निकट आकर आपसी समझ को विकसित कर सकीं। उसका एक हिस्सा यहां पेश हैः

“अलग-अलग राजनीतिक संस्थाओं के बीच खाई बनी हुई थी। यह खाई मुख्यतः अलग-अलग विचारधाराओं और सतही मतभेदों के कारण तथा एक-दूसरे के उद्देश्यों को नकारने की वजह से पैदा हुई थी। “यदि आप मेरे साथ नहीं हैं, तो मेरे विरोध में हैं” ऐसी मानसिकता के कारण भी यह खाई गहरी बनती थी। लेकिन परिस्थितियों ने इन संस्थाओं को राजनैतिक मतभेदों से ऊपर उठकर एक-दूसरे के प्रति समझ को और भी गहरी बनाने का मौका दिया।”

मेरे कई युवा मित्र ऐसे होंगे जिनका उस वक्त जन्म भी नहीं हुआ होगा। उनसे मैं खास तौर पर कहूंगा कि वे इस पुस्तक पर नजर डालें, इससे, आज जिसे जनसामर्थ्य के एक महान विजय के रूप में याद किया जाता है उस घटना और उसके ऐतिहासिक सन्दर्भ को लेकर आपकी समझ का दायरा और भी विकसित होगा।

 

 

 नरेन्द्र मोदी

 

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राष्ट्र निर्माण के ‘अटल’ आदर्श की शताब्दी
December 25, 2024

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं...लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं? अटल जी के ये शब्द कितने साहसी हैं...कितने गूढ़ हैं। अटल जी, कूच से नहीं डरे...उन जैसे व्यक्तित्व को किसी से डर लगता भी नहीं था। वो ये भी कहते थे... जीवन बंजारों का डेरा आज यहां, कल कहां कूच है..कौन जानता किधर सवेरा...आज अगर वो हमारे बीच होते, तो वो अपने जन्मदिन पर नया सवेरा देख रहे होते। मैं वो दिन नहीं भूलता जब उन्होंने मुझे पास बुलाकर अंकवार में भर लिया था...और जोर से पीठ में धौल जमा दी थी। वो स्नेह...वो अपनत्व...वो प्रेम...मेरे जीवन का बहुत बड़ा सौभाग्य रहा है।

आज 25 दिसंबर का ये दिन भारतीय राजनीति और भारतीय जनमानस के लिए एक तरह से सुशासन का अटल दिवस है। आज पूरा देश अपने भारत रत्न अटल को, उस आदर्श विभूति के रूप में याद कर रहा है, जिन्होंने अपनी सौम्यता, सहजता और सहृदयता से करोड़ों भारतीयों के मन में जगह बनाई। पूरा देश उनके योगदान के प्रति कृतज्ञ है। उनकी राजनीति के प्रति कृतार्थ है।

21वीं सदी को भारत की सदी बनाने के लिए उनकी एनडीए सरकार ने जो कदम उठाए, उसने देश को एक नई दिशा, नई गति दी। 1998 के जिस काल में उन्होंने पीएम पद संभाला, उस दौर में पूरा देश राजनीतिक अस्थिरता से घिरा हुआ था। 9 साल में देश ने चार बार लोकसभा के चुनाव देखे थे। लोगों को शंका थी कि ये सरकार भी उनकी उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाएगी। ऐसे समय में एक सामान्य परिवार से आने वाले अटल जी ने, देश को स्थिरता और सुशासन का मॉडल दिया। भारत को नव विकास की गारंटी दी।

वो ऐसे नेता थे, जिनका प्रभाव भी आज तक अटल है। वो भविष्य के भारत के परिकल्पना पुरुष थे। उनकी सरकार ने देश को आईटी, टेलीकम्यूनिकेशन और दूरसंचार की दुनिया में तेजी से आगे बढ़ाया। उनके शासन काल में ही, एनडीए ने टेक्नॉलजी को सामान्य मानवी की पहुंच तक लाने का काम शुरू किया। भारत के दूर-दराज के इलाकों को बड़े शहरों से जोड़ने के सफल प्रयास किये गए। वाजपेयी जी की सरकार में शुरू हुई जिस स्वर्णिम चतुर्भुज योजना ने भारत के महानगरों को एक सूत्र में जोड़ा वो आज भी लोगों की स्मृतियों पर अमिट है। लोकल कनेक्टिविटी को बढ़ाने के लिए भी एनडीए गठबंधन की सरकार ने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसे कार्यक्रम शुरू किए। उनके शासन काल में दिल्ली मेट्रो शुरू हुई, जिसका विस्तार आज हमारी सरकार एक वर्ल्ड क्लास इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के रूप में कर रही है। ऐसे ही प्रयासों से उन्होंने ना सिर्फ आर्थिक प्रगति को नई शक्ति दी, बल्कि दूर-दराज के क्षेत्रों को एक दूसरे से जोड़कर भारत की एकता को भी सशक्त किया।

जब भी सर्व शिक्षा अभियान की बात होती है, तो अटल जी की सरकार का जिक्र जरूर होता है। शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता मानने वाले वाजपेयी जी ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था, जहां हर व्यक्ति को आधुनिक और गुणवत्ता वाली शिक्षा मिले। वो चाहते थे भारत के वर्ग, यानि ओबीसी, एससी, एसटी, आदिवासी और महिला सभी के लिए शिक्षा सहज और सुलभ बने।

उनकी सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए कई बड़े आर्थिक सुधार किए। इन सुधारों के कारण भाई-भतीजावाद में फंसी देश की अर्थव्यवस्था को नई गति मिली। उस दौर की सरकार के समय में जो नीतियां बनीं, उनका मूल उद्देश्य सामान्य मानवी के जीवन को बदलना ही रहा।

उनकी सरकार के कई ऐसे अद्भुत और साहसी उदाहरण हैं, जिन्हें आज भी हम देशवासी गर्व से याद करते है। देश को अब भी 11 मई 1998 का वो गौरव दिवस याद है, एनडीए सरकार बनने के कुछ ही दिन बाद पोकरण में सफल परमाणु परीक्षण हुआ। इसे ‘ऑपरेशन शक्ति’ का नाम दिया गया। इस परीक्षण के बाद दुनियाभर में भारत के वैज्ञानिकों को लेकर चर्चा होने लगी। इस बीच कई देशों ने खुलकर नाराजगी जताई, लेकिन तब की सरकार ने किसी दबाव की परवाह नहीं की। पीछे हटने की जगह 13 मई को न्यूक्लियर टेस्ट का एक और धमाका कर दिया गया। 11 मई को हुए परीक्षण ने तो दुनिया को भारत के वैज्ञानिकों की शक्ति से परिचय कराया था। लेकिन 13 मई को हुए परीक्षण ने दुनिया को ये दिखाया कि भारत का नेतृत्व एक ऐसे नेता के हाथ में है, जो एक अलग मिट्टी से बना है।
उन्होंने पूरी दुनिया को ये संदेश दिया, ये पुराना भारत नहीं है। पूरी दुनिया जान चुकी थी, कि भारत अब दबाव में आने वाला देश नहीं है। इस परमाणु परीक्षण की वजह से देश पर प्रतिबंध भी लगे, लेकिन देश ने सबका मुकाबला किया।

वाजपेयी सरकार के शासन काल में कई बार सुरक्षा संबंधी चुनौतियां आईं। करगिल युद्ध का दौर आया। संसद पर आतंकियों ने कायरना प्रहार किया। अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले से वैश्विक स्थितियां बदलीं, लेकिन हर स्थिति में अटल जी के लिए भारत और भारत का हित सर्वोपरि रहा।

जब भी आप वाजपेयी जी के व्यक्तित्व के बारे में किसी से बात करेंगे तो वो यही कहेगा कि वो लोगों को अपनी तरफ खींच लेते थे। उनकी बोलने की कला का कोई सानी नहीं था। कविताओं और शब्दों में उनका कोई जवाब नहीं था। विरोधी भी वाजपेयी जी के भाषणों के मुरीद थे। युवा सांसदों के लिए वो चर्चाएं सीखने का माध्यम बनतीं।

कुछ सांसदों की संख्या लेकर भी, वो कांग्रेस की कुनीतियों का प्रखर विरोध करने में सफल होते। भारतीय राजनीति में वाजपेयी जी ने दिखाया, ईमानदारी और नीतिगत स्पष्टता का अर्थ क्या है।

संसद में कहा गया उनका ये वाक्य... सरकारें आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी मगर ये देश रहना चाहिए...आज भी मंत्र की तरह हम सबके मन में गूंजता रहता है।

वो भारतीय लोकतंत्र को समझते थे। वो ये भी जानते थे कि लोकतंत्र का मजबूत रहना कितना जरुरी है। आपातकाल के समय उन्होंने दमनकारी कांग्रेस सरकार का जमकर विरोध किया, यातनाएं झेली। जेल जाकर भी संविधान के हित का संकल्प दोहराया। NDA की स्थापना के साथ उन्होंने गठबंधन की राजनीति को नए सिरे से परिभाषित किया। वो अनेक दलों को साथ लाए और NDA को विकास, देश की प्रगति और क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधि बनाया।

पीएम पद पर रहते हुए उन्होंने विपक्ष की आलोचनाओं का जवाब हमेशा बेहतरीन तरीके से दिया। वो ज्यादातर समय विपक्षी दल में रहे, लेकिन नीतियों का विरोध तर्कों और शब्दों से किया। एक समय उन्हें कांग्रेस ने गद्दार तक कह दिया था, उसके बाद भी उन्होंने कभी असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया।

उन में सत्ता की लालसा नहीं थी। 1996 में उन्होंने जोड़-तोड़ की राजनीति ना चुनकर, इस्तीफा देने का रास्ता चुन लिया। राजनीतिक षड्यंत्रों के कारण 1999 में उन्हें सिर्फ एक वोट के अंतर के कारण पद से इस्तीफा देना पड़ा। कई लोगों ने उनसे इस तरह की अनैतिक राजनीति को चुनौती देने के लिए कहा, लेकिन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी शुचिता की राजनीति पर चले। अगले चुनाव में उन्होंने मजबूत जनादेश के साथ वापसी की।

संविधान के मूल्य संरक्षण में भी, उनके जैसा कोई नहीं था। डॉ. श्यामा प्रसाद के निधन का उनपर बहुत प्रभाव पड़ा था। वो आपात के खिलाफ लड़ाई का भी बड़ा चेहरा बने। इमरजेंसी केबाद 1977 के चुनाव से पहले उन्होंने ‘जनसंघ’ का जनता पार्टी में विलय करने पर भी सहमति जता दी। मैं जानता हूं कि ये निर्णय सहज नहीं रहा होगा, लेकिन वाजपेयी जी के लिए हर राष्ट्रभक्त कार्यकर्ता की तरह दल से बड़ा देश था, संगठन से बड़ा, संविधान था।

हम सब जानते हैं, अटल जी को भारतीय संस्कृति से भी बहुत लगाव था। भारत के विदेश मंत्री बनने के बाद जब संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषण देने का अवसर आया, तो उन्होंने अपनी हिंदी से पूरे देश को खुद से जोड़ा। पहली बार किसी ने हिंदी में संयुक्त राष्ट्र में अपनी बात कही। उन्होंने भारत की विरासत को विश्व पटल पर रखा। उन्होंने सामान्य भारतीय की भाषा को संयुक्त राष्ट्र के मंच तक पहुंचाया।

राजनीतिक जीवन में होने के बाद भी, वो साहित्य और अभिव्यक्ति से जुड़े रहे। वो एक ऐसे कवि और लेखक थे, जिनके शब्द हर विपरीत स्थिति में व्यक्ति को आशा और नव सृजन की प्रेरणा देते थे। वो हर उम्र के भारतीय के प्रिय थे। हर वर्ग के अपने थे।

मेरे जैसे भारतीय जनता पार्टी के असंख्य कार्यकर्ताओं को उनसे सीखने का, उनके साथ काम करने का, उनसे संवाद करने का अवसर मिला। अगर आज बीजेपी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है तो इसका श्रेय उस अटल आधार को है, जिसपर ये दृढ़ संगठन खड़ा है।

उन्होंने बीजेपी की नींव तब रखी, जब कांग्रेस जैसी पार्टी का विकल्प बनना आसान नहीं था। उनका नेतृत्व, उनकी राजनीतिक दक्षता, साहस और लोकतंत्र के प्रति उनके अगाध समर्पण ने बीजेपी को भारत की लोकप्रिय पार्टी के रूप में प्रशस्त किया। श्री लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों के साथ, उन्होंने पार्टी को अनेक चुनौतियों से निकालकर सफलता के सोपान तक पहुंचाया।

जब भी सत्ता और विचारधारा के बीच एक को चुनने की स्थितियां आईं, उन्होंने इस चुनाव में विचारधारा को खुले मन से चुन लिया। वो देश को ये समझाने में सफल हुए कि कांग्रेस के दृष्टिकोण से अलग एक वैकल्पिक वैश्विक दृष्टिकोण संभव है। ऐसा दृष्टिकोण वास्तव में परिणाम दे सकता है।

आज उनका रोपित बीज, एक वटवृक्ष बनकर राष्ट्र सेवा की नव पीढ़ी को रच रहा है। अटल जी की 100वीं जयंती, भारत में सुशासन के एक राष्ट्र पुरुष की जयंती है। आइए हम सब इस अवसर पर, उनके सपनों को साकार करने के लिए मिलकर काम करें। हम एक ऐसे भारत का निर्माण करें, जो सुशासन, एकता और गति के अटल सिद्धांतों का प्रतीक हो। मुझे विश्वास है, भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी के सिखाए सिद्धांत ऐसे ही, हमें भारत को नव प्रगति और समृद्धि के पथ पर प्रशस्त करनें की प्रेरणा देते रहेंगे।