प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार के तीन साल पूरे होने पर तरह-तरह की टिप्पणियां सामने आ रही हैं। इनमें सरकार की सफलता और कमियां दोनों की बात हो रही है। ज्यादातर लोग ऐसे हैं जिन्होंने सरकार की उपलब्धियों को उभारा है, थोड़े-बहुत लोगों ने आलोचना की है और कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने मिले-जुले तरीके का विश्लेषण किया है। लेकिन इन सबके बीच एक वर्ग ऐसा भी है जो मौजूदा सरकार के कामकाज पर अपनी राय जताने में एक अलग ही लाइन पर नजर आ रहा है। सोशल मीडिया पर और अपने आलेखों में इस वर्ग के लोग जब ना तब एक ही तरह के बोल उगलते रहते हैं। तीसरी सालगिरह पर एक बार फिर वो सरकार की आलोचना के अपने पुराने रंग में ही दिख रहे हैं। वही राग अलाप रहे हैं कि मौजूदा सरकार में कोई सुधार नहीं हुआ है, कम से कम युगांतरकारी सुधार (Big-bang reforms) तो नहीं ही हुए हैं। लेकिन सवाल है कि ये सच है या पूरी तरह से झूठ है, या फिर इन दोनों के बीच कोई सही तस्वीर कहीं छुपी है?

इस मुद्दे की व्यक्तिनिष्ठ व्याख्या से अलग जाकर तटस्थ पड़ताल का एक रास्ता है जिसमें सबसे पहले ये देखना होगा कि ‘big bang reform’ आखिर किसे माना जाए और फिर ये आंका जाए कि ऐसा सुधार हुआ है या नहीं हुआ है? हालांकि सुधार की तथाकथित कमी की बात को घिसते रहने वाले टीकाकारों की आलोचना को समझ पाना आसान नहीं क्योंकि वो यही नहीं साफ कर पाते कि कौन सा ऐसा सुधार है जो नहीं हुआ?  उनका काम है अपनी बात पर जोर देना, बस। इसलिए मैंने इसे आंकने का अपना एक तरीका (methodology) निकाला है:

मैंने बीते कुछ वर्षों के अखबारों की सुर्खियों से गुजरना शुरू किया ताकि ये समझ सकूं कि पूर्ववर्ती सरकार के दौर में किस ऐसे काम को युगांतरकारी (‘big bang’) सुधार के रूप में देखा गया था?  ये भी जानेंगे कि उस दौर के ऐसे कौन-कौन से सुधार के कदम थे जो मई 2014 में मौजूदा सरकार के सत्ता संभालने के वक्त भी लंबित रहे थे और इस सरकार ने उन पर क्या किया?

दिसंबर 2008 में Financial Express के एक आलेख में एक जगह ये बताया गया: ‘’यूपीए सरकार के साढ़े चार साल में वित्तीय क्षेत्र में सुधार का सबसे बड़ा कदम बीमा कानून (संशोधन) विधेयक आखिरकार सोमवार को राज्यसभा में पेश कर दिया गया। इस विधेयक में बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश-FDI को मौजूदा 26% से बढ़ाकर 49% करने का प्रावधान है। कैबिनेट के पास मंजूरी के लिए भेजे जाने के दो साल बाद ये विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया है।‘’ यानी 2008 में बीमा क्षेत्र में सुधार को big-bang reform के आदर्श उदाहरण के तौर पर देखा गया था। हालांकि डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली पिछली सरकार इसमें 2014 तक कुछ नहीं कर पाई। बीमा क्षेत्र में FDI बढ़ाने को लेकर मोदी सरकार ने क्या किया? – काम पूरा हो चुका है।      

अब अगस्त 2012 में Economic Times के एक आलेख की दो लाइन पर गौर कीजिए: ‘’अर्थशास्त्री और नीतिनिर्माता सरकार से डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने की मांग कर रहे हैं।‘’ यानी डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने का मामला 2012 में सुधार के बहुत महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा गया था। पिछली सरकार में 2014 तक इस मामले को लेकर क्या स्थिति थी? -नहीं हो सका। मोदी सरकार में डीजल की कीमतों के नियंत्रणमुक्त होने को लेकर क्या हुआ? - हो चुका है नियंत्रणमुक्त।

अगर इन दो सुधारों को पूरा ‘big-bang’ नहीं माना जा सकता तो ये भी देख लीजिए कि मई 2014 से लेकर अपने पहले तीन वर्षों में मोदी सरकार ने और कैसे-कैसे कार्य किये हैं:

 

  • व्यावसायिक कोयला खनन में निजी कंपनियां: सन् 1973 में इंदिरा गांधी द्वारा कोयला खनन का राष्ट्रीयकरण किये जाने के बाद से इस क्षेत्र में निजी कंपनियों पर रोक लगी रही। पूर्ववर्ती सरकार के सुधार के किसी भी एजेंडे में इस पर दोबारा विचार किये जाने की बात सामने नहीं आई, जो सुधार का एक बड़ा कदम होता। ऐसा हुआ होता तो इस क्षेत्र में प्राइवेट प्लेयर के आने से आर्थिक गतिविधियों को बल मिलता साथ ही रोजगार सृजन के मौके भी निकलते। बताया जा रहा है कि ‘big-bang सुधारकों’ को ये कदम दुस्साहसिक महसूस हुआ इसलिए इस पर उन्होंने सोचने तक से परहेज किया। मोदी सरकार में इस पर स्टेटस क्या है– निजी कंपनियों को दी जा चुकी है मंजूरी

 

  1. B) रक्षा क्षेत्र में सुधार:   कुछ साल पहले ये सब सैद्धांतिक सवाल की तरह लगते थे – क्या रक्षा क्षेत्र में FDI को मंजूरी दी जाए, वो भी ज्यादातर मामलों में 100% तक निवेश की मंजूरी? क्या रक्षा उत्पादों के निर्माण के क्षेत्र में  सामरिक भागीदारों को लाना चाहिए?  मोदी सरकार ने क्या किया – बड़ा फैसला लेकर दिखाया

 

  • कंस्ट्रक्शन सेक्टर के सुधार:  पूर्ववर्ती सरकार के सुधारवादियों के रडार पर ये एजेंडा भी रहा था, लेकिन इसमें हाथ लगाना उसे खतरे से खेलने जैसा लगा। कंस्ट्रक्शन सेक्टर में अब 100% FDI को मंजूरी है साथ ही रियल एस्टेट (रेगुलेशन एंड डेवलपमेंट) एक्ट भी लागू है। रियल एस्टेट सेक्टर को आज उद्योग का दर्जा भी प्राप्त है जिससे इसे बहुत कम ब्याज दर पर संस्थागत ऋण मिल सकता है।   

 

  1. D) दीवाला और शोधन अक्षमता संहिता: भारत के पास दीवाला मामलों से जुड़े एक आधुनिक कानून की जरूरत पिछले करीब एक दशक से महसूस की जा रही थी लेकिन कोई प्रगति नहीं हुई। मोदी सरकार ने क्या किया? – काम पूरा किया
  2. E) कृषि क्षेत्र के सुधार:  कृषि बाजार जो APMC के कई हिस्सों में बंटा था वो अब eNAM के जरिए एक एकीकृत राष्ट्रीय बाजार है। चूंकि ये आलेख पिछले तीन साल में सुधार के कदमों से जुड़ा है इसलिए ये बताना जरूरी है कि बाजार तक किसानों की पहुंच को आसान बनाने वाले इस कदम ने कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाया है। अब ये खरीदारों का नहीं, बल्कि विक्रेताओं का बाजार है जहां किसान देश में कहीं भी अपनी फसल प्रतिस्पर्धी कीमतों पर बेच सकता है।
  3. F) श्रम सुधार :कई मायनों में सुधार की ये बहुत बड़ी तस्वीर है। 2004 से लेकर 2014 तक पूर्ववर्ती सरकार के हर बजट में एक रस्म अदायगी के तौर पर  इसका उल्लेख विशेष रूप से किया जाता रहा, लेकिन पिछली सरकार इस पर कभी आगे नहीं बढ़ी। श्रम सुधार के मुद्दे पर अक्सर यही बात सामने आती रही कि ये सिर्फ एक कानून या विनियमन का मामला नहीं, बल्कि यहां एक साथ कई तरह के कदम उठाने की जरूरत है । तो सवाल है कि 2014 से लेकर अब तक क्या हुआ? इसका जवाब दो खास कदमों से मिलता है – एक है, श्रम सुविधा पोर्टल जिसमें 16 श्रम कानूनों के लिए अब सिर्फ एक अनुपालन रिपोर्ट  पेश करना होता है।  दूसरा है कारखाना अधिनियम संशोधन विधेयक, 2016 जिसमें ओवरटाइम कामकाज के समय में बढ़ोतरी की गई है।  गौर करने वाली बात है कि केंद्र सरकार के प्रयासों की सराहना करते हुए कई राज्यों ने श्रम से जुड़े अपने कानूनों में सुधार किया है।
  4. G) रेलवे में सुधार : ये एक ऐसा सेक्टर है जहां बड़े-बड़े सुधार की हमेशा आवश्यकता रही लेकिन पूर्ववर्ती सरकार में कोई भी ठोस प्रयास नहीं दिखे। मौजूदा सरकार में रेलवे में दूसरे कई बड़े सुधारों के अलावा इससे जुड़ी कई गतिविधियों के लिए 100% तक FDI को मंजूरी मिल चुकी है।  
  5. H) व्यापार सेक्टर में सुधार: मौजूदा सरकार में इस सेक्टर में उल्लेखनीय सुधार है व्यापार करने की सुविधाओं को आसान बनने के लिए उठाया गया कदम। निर्यात के लिए जरूरी दस्तावेजों की संख्या अब 7 की जगह घटाकर 3 की जा चुकी है, जबकि आयात के लिए भी अब 10 की जगह सिर्फ 3 दस्तावेज ही देने होंगे। व्यापार के लिए बिजली मिलने में आसानी और नियामक स्तर पर तेज क्लीयरेंस जैसे कई कदम हैं जिनसे देश की ease of doing business rankings में भी सुधार हुआ है।  

सरकार द्वारा सुधार के ढेर सारे और कदम उठाये गए हैं जो आलोचकों के ‘सुधार’ के चश्मे से नहीं दिख सकते लेकिन उन सबका अर्थव्यवस्था पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा है। JAM यानी जन धन, आधार कार्ड, और मोबाइल की तिकड़ी से युक्त सरकार की योजनाओं ने अपनी पूरी छाप छोड़ी है। इनमें आधार के जरिए डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर-DBT बेहद खास है क्योंकि इससे सब्सिडी में लीकेज खत्म होने के साथ फर्जी लाभार्थियों के दिन भी लद चुके हैं। पिछले तीस साल से देश के नेता इसका रोना रोते रहते थे कि केंद्र की ओर से जो पैसे जारी किये जाते हैं वो लाभार्थियों तक नहीं पहुंच पाते, लेकिन मौजूदा सरकार ने टेक्नोलॉजी आधारित कानून के सहारे सही लाभार्थियों तक सौ फीसदी रकम की पहुंच को संभव बनाया। इस एक उपाय से अब तक 49,000 करोड़ रुपये से ज्यादा बचाये जा चुके हैं। ये सुधार है या नहीं है?   

प्राकृतिक संसाधनों की नीलामियों को संस्थागत बनाने के कदम पर भी गौर कीजिए- चाहे वो कोयला हो या दूसरे खनिज पदार्थ या फिर स्पेक्ट्रम। दो दशक में ऐसा पहली बार हुआ है कि इस नीलामी की प्रक्रिया में पारदर्शिता को लेकर रत्ती भर संदेह नहीं उभरा। ये सुधार है या नहीं है जिसने देश से लेकर विदेशी निवेशकों तक में भरोसे को स्थापित किया है।  

पर्यावरण से जुड़े क्लीयरेंस का मामला भी गौर फरमाने लायक है। इस क्लीयरेंस में पहले 600 दिन या उससे ज्यादा भी लगते थे-साथ ही इसके लिए ऐसा ‘टैक्स’ भी देना पड़ता था जिसका कानून में कोई प्रावधान नहीं था। मौजूदा सरकार ने पर्यावरण क्लीयरेंस की समयसीमा 180 दिन करने के साथ ही इसमें विवेकाधीन हस्तक्षेप को समाप्त कर दिया है। फिर उन स्टार्ट-अप्स का क्या जिसके तहत कोई अपनी कंपनी को सिर्फ एक दिन में रजिस्टर करवा सकता है? उद्योगों पर पूर्वव्यापी कराधान (retrospective taxation) की तलवार अब नहीं लटकी है। बताइये ये सब सुधार हैं या नहीं?    

इन सबसे ऊपर GST को लेकर क्या कहेंगे?  आजादी के बाद कर सुधार के मामले में ये सबसे बड़ा कदम है। 2014 से पहले गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स-GST को लेकर ज्यादातर राज्य इसलिए नहीं आगे आते थे क्योंकि उन्हें केंद्र सरकार की बातों पर पर भरोसा नहीं होता था। इसकी वजह भी है। जब VAT को कई राज्यों में लागू किया गया था तो राज्य सरकारों ने राजस्व के नुकसान का डर जताया था। तब केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को नुकसान की भरपाई का भरोसा दिलाया था। लेकिन ये सिर्फ बातों का भरोसा ही रह गया। मुआवजे को राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने का हवाला देकर साल-दर-साल टाला जाता रहा, जो घाटा दरअसल फिजूलखर्ची और भ्रष्टाचार की उपज माना जाता था।    

इसलिए राज्य सरकारें जीएसटी के मामले पर भी उसी केंद्र सरकार की बातों पर कैसे भरोसा कर सकती थीं..कि GST के अमल में आने से राज्यों को होने वाले नुकसान की भरपाई केंद्र  कर देगा। पूर्ववर्ती सरकार के दौरान केंद्र और राज्यों के बीच रिश्ते की यही तस्वीर थी, जिसे मोदी सरकार ने बदला है। पूर्ववर्ती सरकार के लंबित उत्तरदायित्वों के निर्वहन का काम इस सरकार ने किया है। आज केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों में एक विश्वसनीयता है। मोदी सरकार ने इसे अपने कामकाज से कायम किया है। केंद्र की बात पर भरोसा स्थापित होने के चलते ही राज्य सरकारें भी GST के समर्थन को सामने आईं। राजनीतिक धाराएं बंटी होने के बावजूद संसद में GST बिल आम राय से पास हुआ और जीएसटी काउंसिल में आम राय के साथ इसके कायदे-कानून एवं टैक्स स्ट्रक्चर तय किये जा चुके हैं। केंद्र के कदम पर भरोसा देश की अर्थव्यवस्था के हित में है। जीएसटी काउंसिल भारत की पहली संपूर्ण संघीय संरचना है, जो युगांतरकारी सुधार (big-bang reform) को अपने आपमें परिभाषित करती है। ये जमीनी स्तर पर हुआ प्रभावी सुधार है, कोई शेखी बघारने वाला ‘सुधार’ नहीं। देश भले 1947 में राजनीतिक रूप से एकीकृत हुआ हो, लेकिन आर्थिक एकीकरण 70 साल बाद 2017 में जाकर हो रहा है। सवाल है, इतने सारे प्रत्यक्ष प्रमाण होने के बावजूद क्यों कुछ टिप्पणीकार अपनी इस बात पर अड़े दिखते हैं कि सुधार नहीं हुए हैं? इसके पीछे अगर कोई वजह हो सकती है तो यही कि वो सिर्फ अपनी एक तय सोच के साथ राय बनाने में लगे हैं। लेकिन पिछले तीन साल के कामकाज के संचित साक्ष्य और आने वाले कुछ महीनों में और बहुत कुछ करने के सरकार के इरादों से सुधार को लेकर उठाये जाने वाले सभी तरह के सवाल हमेशा के लिए थम जाएंगे।

 

(अखिलेश मिश्रा MyGov India के पूर्व डायरेक्टर रहे हैं। अभी वो Bluekraft Digital Foundation के CEO हैं।)

ऊपर जो राय व्यक्त की गई है वो लेखक(लेखकों) की अपनी राय है। यह आवश्यक नहीं है कि नरेंद्र मोदी वेबसाइट एवं नरेंद्र मोदी ऐप इससे सहमत हो।