भारत की गरीबी की समस्या का समाधान उस प्रक्रिया की जटिलता में उलझा हुआ है जिसके तहत हर महीने करीब 10 लाख बच्चे मजदूर बन जाते हैं और अगले दस वर्षों तक इस जनसांख्यिक अवस्था का लाभ कैसे उठाया जाए। इन दोनों ही का दीर्घकालिक हल ये है कि नौकरियां और हुनरमंदी का प्रशिक्षण इस तरह हो जो किसी भी सब्सिडी के मुकाबले ज्यादा कारगर साबित हो। मेरा तर्क यह है कि भारतोदय हो रहा है क्योंकि आखिरकार हमने ऐसी दीर्घकालिक परिकल्पना नीति अपनायी है जिसने मुख्य रूप से तीन बातों पर फोकस किया है – अ) भारत में नौकरियों की कमी नहीं है बल्कि अच्छी नौकरियों की कमी है। और, अच्छा वेतन महज नियमों के आदेश से नहीं मिलेगा, बल्कि इसके लिए बाकायदा व्यवस्था के साथ ही शहरीकरण, औद्योगीकरण और श्रम शक्ति को नियमित करना होगा। ब) भारत को सौदों के बजाय नियमों पर ध्यान देना होगा क्योंकि ये किसी भी उस उद्यमी के लिए आर्थिक तौर पर नुकसानदेह है जो नियमों का पालन करने के चक्कर में किसी सौदे को खो बैठता है, और स) सरकार तो ऊपर से नीचे की व्यवस्था में है जबकि नौकरियां और हुनरमंदी की नीति दाएं-बाएं है जिसमें अलग-अलग मंत्रालयों के बीच बहुत से टीम वर्क की जरूरत पड़ती है।

भारत की बेरोजगारी दर 4.9 फीसदी है जो कि गलत नहीं है। जिसे भी जरूरत होती है उसे नौकरी तो मिल जाती है लेकिन उन्हें उनकी जरूरत या इच्छा के मुताबिक वेतन नहीं मिलता। भारत में ज्यादातर नौकरियों से घर चलाना ही मुश्किल होता है और स्वरोजगार तो स्व-शोषण का कारण ही बन जाते हैं। भारत के युवाओं और गरीबों को समर्थ बनाने के प्रोजेक्ट के तहत असंगठित नौकरियों और उपक्रमों के खिलाफ युद्ध का ऐलान करना होगा। साथ ही संगठित क्षेत्र में ऐसी नौकरियां प्रस्फुटित करनी होंगी जिसमें अच्छा वेतन मिल सके। इस विस्फोट के लिए व्यवस्थीकरण (हमारे 60 संगठित उपक्रम ऐसे हैं जिनकी उत्पादकता सही वेतन देने लायक है ही नहीं), स्मार्ट शहरीकरण (हमारे देश में दस लाख से ज्यादा लोगों वाले सिर्फ 50 शहर हैं जबकि चीन में ऐसे 350 शहर हैं और हमारे शहरों में पीक समय में यातायात की रफ्तार औसतन 7 किमी प्रति घंटा है), तीव्र औद्योगीकरण (हमारी 50 फीसदी श्रम शक्ति खेतों में काम करती है लेकिन उससे जीडीपी में सिर्फ 11 फीसदी योगदान ही मिलता है) और श्रम शक्ति का स्तर ( स्कूल अच्छे करना, हुनरमंदी और उच्च शिक्षा को बढ़ावा देना ) बढ़ाना होगा। इस सबके लिए हमें उस मानसिकता को छोड़ना होगा जिसमें कहा जाता है कि “आखिरकार सबको एक दिन मरना है”, बल्कि सरदार पटेल के उस सिद्धांत को मानना होगा जिसके मुताबिक “वृक्ष रोपने का सर्वोत्तम समय 20 वर्ष पहले था, लेकिन दूसरा सबसे सर्वोत्तम समय अब है।” मैं इस तर्क को रखना चाहता हूं कि हमारे उद्यमों और श्रम शक्ति में तीव्र परिवर्तन से एक ऐसे न्यू इंडिया (नव भारत) की बुनियाद रखी जा रही है जो रोजगार उन्मुखी है, शिक्षित है और समर्थ है।

तो क्या सरकार को इंडस्ट्रियल ग्रोथ में खुद ही मुख्य भूमिका निभानी चाहिए (ओद्योगिक नीति और भारी-भरकम सरकारी खर्च) या फिर ऐसा माहौल बनाने की हो (भूमि, मजदूरी, पूंजी और न्यूनतम नियमों की प्रभावी खुराक देना), जहां खुद-ब-खुद इंडस्ट्रियल ग्रोथ होने लगे। मेरे करियर का शुरुआती हिस्सा लाइसेंस राज के दौरान रहा है, इसलिए मैं दावा कर सकता हूं कि औपचारिक और संगठित क्षेत्र में बड़े पैमाने पर नौकरियां पैदा करने में पहली रणनीति इसलिए नाकाम हो गयी क्योंकि नियमों की खुराक ने ऐसी कंपनियां खड़ी कीं जिनके पास ग्राहक नहीं बल्कि बंधुआ थे।

ये किसी सरकार की आलोचना नहीं है – अगर किसी सरकार की नाकामी नौकरियां उपलब्ध करा सकती है तो फिर पाकिस्तान की स्वात घाटी और अफगानिस्तान के वजीरिस्तान तो उद्यमिता के आदर्श स्थान होते। एक प्रभावी सरकार ज्यादा चीज़ें नहीं करती, बल्कि जो भी करती है वो बेहतर तरीके (प्राथमिक शिक्षा पर जोर, जन स्वास्थ्य की चिंता, कानून-व्यवस्था, कानून और प्रतिस्पर्धा लागू करना, सड़कें आदि बनाना) से करती है, साथ ही उद्यमिता, निवेश और विकास के लिए उत्प्रेरक का काम भी सरकार ही करती है।

आज भारत रोजगार सृजन का उपजाऊ स्थान बन गया है। एफआईपीबी (विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड) को खत्म करना, श्रम सुधार लागू करना, जोश से भरा हुआ आईपीओ बाजार, वेंचर कैपिटल (उद्यम पूंजी) का निकाय बनाना, वित्तीय अनुशासन, नीची महंगाई दर, तीव्र सड़क निर्माण, जीएसटी के लिए माहौल बनाना, बैंकरप्सी बिल (दिवालियापन विधेयक), कार्पोरेट टैक्स की नीची दरें, मंजूरी की प्रक्रिया का समेकीकरण, इंस्पेक्टरों के व्यवहार दुरुस्त करने की प्रक्रिया, अनवरत बिजली आपूर्ति, हवाई अड्डों और बंदरगाहों में सुधार जैसे कामों से पहली पीढ़ी के उद्यमी विश्वासपूर्वक अधिकारियों को चुनौती दे सकेंगे क्योंकि उद्यमिता अब सिर्फ सरकार के बदले कोई काम, उसके कामों का प्रबंधन या उससे जुड़ाव भर नहीं रह गयी है। लेकिन काम अभी खत्म नहीं हुआ है और इस अधूरे एजेंडे में एक यूनिवर्सल एंटरप्राइज नंबर (विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा नियोक्ताओं को जारी किया जाने वाला 25+ नंबर), एक पीपीसी पोर्टल (कागज रहित, उपस्थिति रहित और नकद रहित व्यवस्था से दो लाख से ज्यादा वृक्ष कटने से बचेंगे और भ्रष्टाचार में जबरदस्त कमी आएगी) और आवश्यक भुगतान रजिस्टर जमा कराना (संगठित क्षेत्र हाथ वाले और चिट्ठी वाले वेतन में 45 फीसदी का अंतर के कारण ज्यादा खर्च – कम फायदे वाली योजनाओं से त्रस्त है) को खत्म करना होगा। प्रतिस्पर्धी संघवाद रोजगार सृजन के लिए बेहद जरूरी है। चीन ने व्यवस्था का विकेंद्रीकरण कर नौकरियां पैदा कीं। पिछले कुछ सालों में दिल्ली से राज्यों की राजधानियों तक फंड के त्वरित हस्तांतरण, कार्य और कार्य के निष्पादन ने मुख्यमंत्रियों से ‘दिल्ली’ का बहाना छीन लिया है क्योंकि भूमि और श्रम बाजार अब स्थानीय हो गये हैं।

भारत की श्रम शक्ति के लिए योजनाएं चुनौती कभी नहीं रहीं, बल्कि इनका क्रियान्वयन रहा। 1968 की कोठारी समिति की रिपोर्ट की तारीख भर बदल दो और शिक्षा और प्रशिक्षुता में सुधारों की पहल करो। 1975 के बीस सूत्रीय कार्यक्रम का बीसवां सूत्र यही था। कौशल विकास में तेजी के परिणाम सामने आने लगे हैं। कौशल विकास मंत्रालय की स्थापना के साथ ही पिछले कई दशकों की सुस्ती दूर होने लगी है। प्रशिक्षुता कानून में संशोधन से इस क्षेत्र में दशकों की सुस्ती के बाद करीब 150 फीसदी की वृद्धि हुई है। हमारा लक्ष्य श्रम शक्त को प्रशिक्षुता के जर्मनी के 2.7 फीसदी से ज्यादा पहुंचाने का होना चाहिए, इससे हमारे मौजूदा 5 लाख प्रशिक्षु 1.5 करोड़ तक पहुंच जाएंगे। हालांकि अभी क्षेत्र कौशल परिषद (Sector Skill Council) का प्रदर्शन स्थिर नहीं है, लेकिन अच्छा प्रदर्शन करने वाले क्षेत्र शानदार नियोक्ता और मांग आधारित कौशल व्यवस्था बना रहे हैं। रोजगार केंद्रों को करियर सेंटर में बदलने का काम शुरु हो चुका है, लेकिन इसमें तेजी लाने की जरूरत है। स्कूलों और कालेजों में कौशल पर बल देने, शिक्षा के अधिकार के कानून को सीखने के अधिकार का कानून बनाकर कौशल पर फोकस करना और ऑनलाइन उच्च शिक्षा पर पाबंदी लगाने के लिए विचार विमर्श किया जा रहा है क्योंकि इन डिग्रियों से कौशल विकास नहीं होता।

भारत उद्वेलित है क्योंकि सरकार ने समझ लिया है कि हमारी समस्या खराब नौकरी बनाम बेरोजगारी नहीं बल्कि अच्छी नौकरी बनाम खराब नौकरी है। नीतियां बनाने में बिल्कुल वैसा ही परिवर्तन लाया जा रहा है, जैसे विज्ञान में क्लासिकल फिजिक्स से क्वान्टम फिजिक्स की ओर जाते हैं। केंद्र में विभिन्न मंत्रालयों में आपसी और राज्यों के बीच बेहतर तालमेल और टीम वर्क से ये परिवर्तन हो रहा है। संगठित रोजगार सृजन कोई मुश्किल काम नहीं बल्कि वित्तीय अनुशासन, विमुद्रीकरण, जीएसटी, निरंतर बिजली आपूर्ति, 44 श्रम कानूनों के स्थान पर सिर्फ 5 श्रम कोड, कौशल विकास आदि से संभव है। देश में आज कम से कम 3 करोड़ लोग ऐसे हैं जो रोज लोगों के घरों में अखबार पहुंचाते हैं लेकिन खुद नहीं पढ़ते, उस कार में नहीं बैठते जिसे वे साफ करते हैं या फिर उस स्कूल में उनके बच्चे नहीं जाते, जिसके निर्माण में वे शामिल रहे। भारत ने भले ही अपने नियति से मिलन यानी ट्रिस्ट विद डेस्टिनी का मौका खो दिया है, लेकिन भारत ने अपने लिए एक नया पथ चुना है और इस पर वो कायम भी रहेगा, क्योंकि अब उसने नियति भरोसे नहीं बल्कि कौशल विकास और रोजगार निर्माण की नीतियों पर चलना शुरू कर दिया है।

(मनीष सभरवाल देश की सबसे बड़ी नियोक्ता कंपनियों में से एक टीमलीज़ सर्विसेज के सह-संस्थापक हैं और राष्ट्रीय कौशल मिशन और केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य हैं।)

जो विचार ऊपर व्यक्त किए गए हैं, वो लेखक के अपने विचार हैं और ये जरूरी नहीं कि नरेंद्र मोदी वेबसाइट एवं नरेंद्र मोदी एप इससे सहमत हो।