भारत में कामकाजी पुरुष और महिलाओं की उपलब्धियों को चिन्हित करने के लिए आइए मजदूर दिवस पर इसका जायजा लेते हैं। हमें शुरूआत इस बात से करनी होगी कि उदार अर्थव्यवस्था में 25 साल बाद भी भारत में 83 फीसदी श्रमिक औपचारिक नहीं हैं।

जो वास्तव में चीजों को उलझाती हैं वो हैं जटिल और बदलाव को नामंजूर करती रही परंपराएं, जो हममें गहराई से रची बसी हैं और जिनसे मजदूर नियंत्रित होते रहे हैं। इसके साथ ही सब्सिडी के तौर पर आसानी से मिलते रहे उधार ने भारतीय अर्थव्यवस्था के ज्यादातर क्षेत्रों में उत्पादन तकनीक को श्रमिकों से दूर किया है और उसे पूंजीगत बनाया है।

हमें यह भी मानना होगा कि रोबोटिक्स, मशीन सीखने और कृत्रिम बुद्धि हमें ऑटोमेशन के नये युग में ले जाएंगे, जो देश में बेरोजगारी और श्रम बाजार के वर्तमान प्रतिमानों को चुनौती देंगे, जैसा कि दुनियाभर में हो रहा है।

“पिछले दशक में उच्च विकास के दौर में यहां तक कि संगठित क्षेत्र में भी सबसे ज्यादा अनौपचारिक प्रकृति के रोजगार पैदा हुए। इसका मतलब यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का फायदा कुछ लोगों तक सीमित रहा, जबकि गरीबी में काम करने वाले श्रमिकों की तादाद बढ़ती चली गयी।”

अनौपचारिक श्रम बाजार के आकार का सबसे प्रामाणिक अनुमान नेशनल सैम्पल सर्वे का है। आंकड़े बताते हैं कि बेरोजगारी की प्रकृति में सालों साल बाद भी बमुश्किल कोई बदलाव आया है जबकि समग्र अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक श्रम बाजार की प्रभावी और प्रबल मौजूदगी बनी हुई है। 2004-05 में संगठित और असंगठित मजदूरों का अनुपात 13: 87 था, जबकि 2011-12 में यह बदलकर 17:83 हो गया।

हालांकि अनौपचारिक प्रकृति के संगठित रोजगार में विकास बहुत अच्छा रहा। इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था के संगठित सेक्टर में औपचारिक रोजगार तेजी से घटा, जबकि अनौपचारिक रोजगार समय के साथ बढ़ता चला गया। असंगठित क्षेत्र के भीतर रोजगार में जो भी बढ़ोतरी दिखी, वह उम्मीद के मुताबिक अनौपचारिक प्रकृति की रही।

अगर हम गहराई में जाएं, हमें हमारे विकास की गाथा में कुछ कड़वी सच्चाइयां देखने को मिलेंगी। कुल रोजगार में कृषि की भागीदारी करीब 60 से घटकर 50 फीसदी पर आ गयी, जबकि उत्पादन के क्षेत्र में यह 12 फीसदी के स्तर पर बना रहा। गैर उत्पादक क्षेत्र (निर्माण) की भागीदारी 6 से 12 फीसदी यानी तकरीबन दुगुनी हो गयी और सेवा क्षेत्र की रोजगार में भागीदारी 23 से बढ़कर 27 फीसदी हो गयी। गैर कृषि क्षेत्र में अनौपचारिक रोजगार में 27 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।

पिछले दशक में उच्च विकास के दौर में यहां तक कि संगठित क्षेत्र में भी सबसे ज्यादा अनौपचारिक प्रकृति के रोजगार पैदा हुए। इसका मतलब यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का फायदा कुछ लोगों तक सीमित रहा, जबकि गरीबी में काम करने वाले श्रमिकों की तादाद बढ़ती चली गयी।

“नकद में वेतन देने के बजाए दूसरे माध्यमों, जैसे बैंक अकाउन्ट, इलेक्ट्रॉनिक और मोबाइल से वेतन देना सुनिश्चित करने से रोजगार सृजन की औपचारिक संस्कृति पैदा होगी।”

भारत का श्रम कानून बुनियादी रूप से कर्मचारियों के हितों को ध्यान में रखकर मजबूती से बनाया गया है। दशकों के परिस्थितिजन्य सबूत इस बात की पुष्टि करते हैं कि अर्थव्यवस्था में समग्र विकास के बावजूद भारत में कम रोजगार और अनौपचारिक रोजगार के लिए असली गुनहगार यही कानून रहे हैं। ये श्रम कानून निश्चित रूप से अब बदले जाने चाहिए ताकि उद्यमिता का विकास हो और रोजगार सृजन को व्यापक रूप से प्रोत्साहन मिले। श्रम सुधारों में कमी का साधारणतया मतलब बहुत ज्यादा श्रम कानून होता है जो श्रमिकों की नियुक्तियों को रोकता है।

पिछले कई सालों से केंद्र सरकार और कई अन्य राज्य (राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और आन्ध्र प्रदेश) सक्रिय रहे हैं और श्रम नियमों की कठोरता को कम किया है। उन्हें ऐसा बनाया है कि वे प्रक्रियात्मक जरूरतों के अनुरूप हो सकें।

इस विषय पर प्राप्त अनुभव ये बताता है कि उन राज्यों में भी बुनियादी उलझनें रही हैं जहां श्रम सुधार इंडेक्स ऊंचा रहा है। यहां नौकरियों के जो अवसर पैदा हुए, वे स्वभाव में अनौपचारिक थे। इससे सीखने वाली बात ये है कि श्रम सुधार आवश्यक शर्त है लेकिन यह काफी नहीं है। गम्भीरता से प्रयास करते हुए हमें ऐसी सुविधा  देनी है कि ऐसा व्यापक वातावरण बने, जो भारतीय श्रम बाजार में जिम्मेदारी की औपचारिक संस्कृति और पारदर्शिता पैदा करे।

केंद्र सरकार के नेतृत्व में देश में डिजिटाइशन के जबर्दस्त प्रयास से अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को औपचारिक बनाने में मदद मिलेगी। ऊंची विकास दर के बावजूद ज्यादातर सेक्टर श्रमिकों को अनौपचारिक रूप से नियुक्त करते हैं क्योंकि इससे उनकी उत्पादन लागत समग्र रूप से कम हो जाती है।

नकद में वेतन देने के बजाए बैंक अकाउन्ट, इलेक्ट्रॉनिक और मोबाइल जैसे दूसरे माध्यमों से वेतन देना सुनिश्चित करने से रोजगार उत्पन्न करने की औपचारिक संस्कृति पैदा होगी। लेकिन, इसे भारतीय श्रम बाजार के बिगड़े हुए स्वरूप में सुधार की पहल के तौर पर देखना होगा। यह बहुत कुछ नरेगा की तरह होगा, जिसने श्रम बहुल अर्थव्यवस्था में न्यूनतम मजदूरी को प्रभावी ढंग से लागू किया। यह याद रखना जरूरी है कि नरेगा को अपनाने के बहुत पहले से भारत में न्यूनतम वेतन का कानून था, लेकिन इसे कभी लागू नहीं किया जा सका था।

“सरकार की डिजिटाइजेशन का प्रयास देश में नियोक्ताओं को रोजगार की सेवा शर्तों को दोबारा विचार करने के लिए मजबूर कर रहा है।” 

जब देशभर में ग्रामीण रोजगार योजना लागू की गयी, तो इसका नतीजा हुआ कि ग्रामीण वेतन में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। आर्थिक परिस्थितियों ने भी इस बढ़ोतरी का समर्थन किया, जिसके पर्याप्त परिस्थितिजन्य प्रमाण हैं। हमने यह भी देखा कि आन्ध्र प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां नरेगा बेहतर तरीके से लागू हुआ, वहां वेतन में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई। ग्रामीण श्रम का इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति को अब नरेगा के कार्यस्थलों पर दिए गये न्यूनतम वेतन की बराबरी करनी होगी या उससे स्पर्धा करनी होगी।

निजी श्रम बाजार बुरी तरह से प्रभावित हुआ था और इसका मतलब था कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े माइक्रो, छोटे और मझोले उद्यमों में अगर उन्होंने श्रमिकों को नियुक्त किया, तो उत्पादन लागत में बढ़ोतरी हुई। यह एक नया संतुलन था जिसमें श्रम की प्रचुरता वाली अर्थव्यवस्था में लोक कल्याणकारी राज्य न्यूनतम वेतन लागू कराने की जद्दोजहद कर रहा था, जबकि उसी समय तेजी से बढ़ता निजी क्षेत्र न सिर्फ नौकरियां दे रहा था, बल्कि करोड़ों भारतीयों को ऊंची आमदनी भी उपलब्ध करा रहा था।

“तेजी से होते श्रम सुधार और श्रमिकों को वेतन के डिजिटाइजेशन और अनुबंधों से भारत का श्रम बाजार और प्रभावशाली होगा, इसलिए ऑटोमेशन के दीर्घावधि प्रभावों को समझने की जरूरत है।”

सरकार का डिजिटाइजेशन का प्रयास देश में नियोक्ताओं को रोजगार की सेवाशर्तों को दोबारा विचार करने के लिए मजबूर कर रहा है। जरूरत है कि वित्तीय संस्थान जैसे बैंक, पेमेन्ट इंटरफेस- जैसे नेशनल पेमेन्ट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और वर्तमान निजी फर्म प्रक्रिया को सरल बनाएं और पेमेंट के नये तरीके उपलब्ध कराए। हर फर्म को अपने आंतरिक संरचना का मूल्यांकन करना होगा कि औपचारिक रूप से जाने से पहले लघु अवधि की लागत क्या होगी। लेकिन हर फर्म को ये भी पूरी कोशिश करनी होगी कि बिजनेस में लम्बी अवधि तक बने रहने के लिए ऑपरेशनल क्षमता कैसे हासिल की जाए।

तेजी से होते श्रम सुधार और श्रमिकों को वेतन के डिजिटाइजेशन और अनुबंधों से भारत का श्रम बाजार और प्रभावशाली होगा, इसलिए ऑटोमेशन के दीर्घावधि प्रभावों को समझने की जरूरत है। नौकरियों के ऑटोमेशन से भारतीय अर्थव्यवस्था में अवसर पैदा होंगे जिससे उत्पादकता का विकास होगा। लेकिन, हमें ऐसी नीतियां लाने की जरूरत हैं जो निवेश और आविष्कारों को प्रोत्साहित करे।

निजी कारोबार के लिए ऑटोमेशन के लाभ तुलनात्मक रूप से स्पष्ट हैं लेकिन नीति निर्माताओं के लिए बाजार का दबाव कई चुनौतियों को बढ़ाएगा। हमें ऐसी नीतियां बनानी होंगी, तरीके खोजने होंगे जो रोजगार के नये पैमाने तय करने में भारतीय श्रमिकों और संस्थानों की मदद करे। इसमें हमारे शिक्षण और प्रशिक्षण नीतियों पर पुनर्विचार शामिल हैं। इस पर भी विचार किया जाएगा कि किस तरह आमदनी के वैकल्पिक जरिए और सुरक्षा जाल विकसित किए जाएं।

(डॉ. शमिका रवि गवर्नेंस स्टडीज प्रोग्राम, ब्रूकिंग्स इंडिया एंड ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन, वॉशिंगटन डीसी में सीनियर फेलो हैं।)

जो विचार ऊपर व्यक्त किए गए हैं, वो लेखक के अपने विचार हैं और ये जरूरी नहीं कि नरेंद्र मोदी वेबसाइट एवं नरेंद्र मोदी एप इससे सहमत हो।