भारत कितनी बड़ी शक्ति बन सकता है? क्या “महानता” आर्थिक, सैनिक और राजनीतिक शक्ति की संकेत है या फिर ये किसी देश की अपनी सामर्थ्य से ज्यादा कोशिश करने की परिवर्तनशील योग्यता का प्रतीक है? भविष्य में देश एक ‘अग्रणी शक्ति’ बनेगा, इस पर नई दिल्ली के रणनीतिक समुदाय में पहले से जारी बहस में कूदने से पहले ये समझना बेहद जरूरी है कि ये महत्वाकांक्षा किस माहौल में पूरी की जाएगी।
हम निश्चित तौर पर क्या जानते हैं? निश्चित तौर पर भारत 10 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के बेहद करीब है। मृतप्राय राजनीति और बिना जोखिम की नीतियां ऐसा होने की राह में रोड़े नहीं अटका सकतीं। शुद्ध गणितीय तौर पर देखें तो हम विश्व की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनने की एकदम सही राह पर अग्रसर हैं। ऐसा शायद 2035 तक संभव हो जाएगा। लेकिन जो निश्चित नहीं है, वह यह कि क्या हम खरबों डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लिए जरूरी कदम उठाने के काबिल हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इतनी विशाल अर्थव्यवस्था का प्रभावी फायदा उठाने के लिए भारत को आवश्यक प्रशासनिक क्षमता, रणनीतिक दूरदृष्टि या संस्थागत व्यवस्था करने की जरूरत है। इसके अलावा ये भी पूरी तरह निश्चित नहीं है कि भारत वैश्विक मामलों को अपनी नीतियों और अनुभव के साथ कोई आकार दे पाएगा।
इस सबके पीछे कई कारण हैं: विकास करने के लिए राष्ट्र और राज्य दोनों ही के पास सीमित संसाधन हैं, क्योंकि धन-दौलत बनाना और इसका इस्तेमाल लगभग पूरी तरह निजी क्षेत्र के हाथों में हैं। उदाहरण के लिए, भारत अपने कुल सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 5% यानी करीब 90 अरब डॉलर आधारभूत ढांचा बनाने में खर्च करता है। फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग और उनकी पत्नी प्रिसशिला इस रकम का करीब आधा अपने जीवनकाल में ही जन कल्याण पर खर्च करेंगे। निजी क्षेत्र द्वारा इतना विशाल धन उपार्जन करने का किसी राष्ट्र के लिए क्या मतलब है। शासन पर सिर्फ राष्ट्र या सरकार का ही एकाधिकार नहीं रह जाएगा, क्योंकि उद्योग-धंधे न सिर्फ राष्ट्र निर्माण के एजेंडे में योगदान करते हैं बल्कि उसे प्रभावित भी करते हैं। इसलिए इस धारणा को कड़ी कसौटी पर परखा जाएगा कि आर्थिक रूप से शक्तिशाली भारत अपनी महान क्षमता योजनाओं को लागू करने के लिए एकीकृत रणनीतिक परिकल्पना का इस्तेमाल कर पाएगा।
दूसरी बात यह कि, वैश्विक प्रशासन में सिविल सोसायटी के कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों का बोलबाला है और ऐसा डिजिटल तकनीक ने संभव बना दिया है। अगर 90 के दशक में आए गैट (जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड) पर सौदेबाजी के समय उद्योग-धंधों और सिविल सोसायटी के कार्यकर्ताओं ने संघर्ष किया, तो इन्हीं लोगों के कारण ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप जैसा व्यापार समझौता रद्द हो गया। इंटरनेट चलाने के नियम क्या हों, इसके लिए भी आज सिविल सोसायटी की मुहर चाहिए क्योंकि उन्हें इस बात की गारंटी चाहिए कि डिजिटल दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निजता और सुलभ पहुंच हो। भले ही भारत की कितनी ही विशाल रणनीति क्यों न हो, उसे क्षेत्रीय और उससे भी आगे अपनी शक्ति स्थापित करने के लिए उसके पास सिविल सोसायटी को साथ लेने के अलावा दूसरा विकल्प है ही नहीं।
भारत की महान शक्ति बनने की महत्वाकांक्षा के लिए बहुमुखी और बहु-साझेदारी वाली चर्चा की दिशा आखिर बदल कैसे सकती है? विविध कारकों और हितों को ध्यान में रखा जाए तो क्या ये उम्मीद की जा सकती है कि भारत एक सामंजस्यपूर्ण, एकीकृत और सबसे अहम दूर-दृष्टि के साथ अपने वैश्विक प्रभाव को बरकरार रख पाएगा? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या एक ‘नई दिल्ली सहमति’ बन पाएगी?
10 खरब डॉलर की जीडीपी हासिल करने की दिशा में अग्रसर भारत के पास अपनी स्वंय की राष्ट्रीय पहचान के मुख्य बिंदु तलाशने के लिए 15 साल से कुछ अधिक समय है। ‘नई दिल्ली सहमति’ का लक्ष्य हासिल हो सकता है बशर्ते भारत अपने कुछ विशेष स्वभाव और आदतों का त्याग कर दे और स्पष्ट भारतीय अभिव्यक्ति और वाक्यों को नया आकार दे जिससे उसे इस शताब्दी के बाकी वर्षों में मार्गदर्शन मिल सके। ‘नई दिल्ली सहमति’ का मूल सिद्धांत साझा न्यूनतम प्रतिज्ञा से बढ़कर हो और इसे भारत के अपने उद्योग-धंधों, इसके प्रभावशाली चिंतकों और टिप्पणीकारों के साथ ही सिविल सोसायटी कार्यकर्ताओं का पूर्ण समर्थन हासिल हो। लेकिन कुछ बिंदुओं पर उनके मतभेद हो सकते हैं, और जो एक स्वस्थ लोकतंत्र में जरूरी भी हैं, सभी साझीदारों का रुख एक जैसा होना चाहिए। सभी बड़ी वैश्विक शक्तियों ने अपने यहां ऐसे ही एक जैसे रुख और राय वाला आम सहमति का चतुर्थांश बनाने में कामयाबी हासिल की है।
इस सहमति के कुछ विशेष गुण खुद को साबित कर चुके हैं और ये गुण वह आधार बन सकते हैं जिन पर देश, उद्योग-धंधे और गैर सरकारी संगठन एक मंच पर आ सकते हैं।
सबसे पहली बात यह कि भारत एक ऐसे विकास मॉडल की तरफ बढ़े जिसमें उच्च विकास दर के साथ लोकतांत्रिक और उदार सिद्धांतों का समावेश हो। ये मॉडल उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक आदर्श बन सकता है। इस किस्म का एकमात्र सफल उदाहरण पूर्वी एशिया के वह देश हैं जिन्होंने आर्थिक नीतियों पर कड़ा रुख तो अपनाया, लेकिन बीती शताब्दी में सभी को किसी न किसी तानाशाही प्रवृत्ति के सामने झुकना पड़ा। नई दिल्ली सहमति को इस मिसाल को अपनी विदेश नीति का मूल सिद्धांत बनाना चाहिए। भारत के विदेश सचिव ने हाल ही में हुए रायसीना डायलॉग में इस बात को बहुत ही बेहतर तरीके से परिभाषित किया था। उन्होंने कहा था कि “क्या सिर्फ अलग दिखकर ही भारत औरों से अलग हो सकता है?”
दूसरी बात यह कि अगर भारत आर्थिक विकास और उदार लोकतांत्रिक परंपराओं के लक्ष्य को निर्धारित करते हुए आगे बढ़ता है तो उसे संतुलन बनाए रखने के लिए गैर-पश्चिमी प्रकृति को भी सामने रखना पड़ेगा। इसे कहना तो आसान है लेकिन करना मुश्किल। आमतौर पर और शायद गलत तरीके से ये बहस तो की ही जाती रही है कि आधुनिकता, विविधता, मुक्त समाज और लोकतंत्र, सभी उस प्रबोधन युग के उत्पाद हैं जिसके तहत 18वीं सदी में यूरोप में हुए बौद्धिक और वैज्ञानिक आंदोलन में सभी धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की शुरुआत हुई थी। अमेरिका और ब्रिटेन ने जिस तरह एंग्लो-सैक्सन और जुडेव-क्रिश्चियन परंपराओँ का दोहरा प्रयोग किया, भारत को उससे अलग अपने तौर-तरीकों के साथ राष्ट्र, नागरिक और उद्योग-धंधो के आपसी सामाजिक संपर्कों का न सिर्फ सम्मान करना पड़ेगा बल्कि उसे स्वीकारना भी पड़ेगा।
तीसरी बात यह कि, भारत को अपनी नेतृत्व क्षमता को निष्पक्ष वैश्विक शासन में इस्तेमाल करना चाहिए। भारत की विदेश नीति की जड़ें साझा क्षेत्रीय शासन और जन कल्याण के सम्मान और हिस्सेदारी से जुड़ी हों। भारत अकेली ऐसी उभरती हुई शक्ति है जो साझा क्षेत्रों से फायदा उठाने या उन पर कब्जा करने की कोशिश नहीं करता, लेकिन इन क्षेत्रों में इसकी मौजूदगी से पश्चिमी क्षेत्रों में जन कल्याण प्रबंधन से लाभ कमाने की लालसा पैदा होगी। 2015 की पेरिस वार्ता के दौरान ग्लोबल क्लाइमेट चेंज एजेंडा में भारत का योगदान और एचआईवी-एड्स से लड़ने के लिए अप्रीकी देशों को सस्ते एंटी रेट्रोवाइरल मुहैया कराने में भारत का उन्नतिशील योगदान इस बात की मिसाल है कि भारत नैतिक तौर पर दुरुस्त और आर्थिक तौर पर दीर्घकालिक कदम उठा रहा है।
चौथी बात, दुनिया के ग्रोथ और विकास एजेंडा में अपनी प्रभावी भूमिका स्थापित करने के लिए भारत को वैश्विक साझेदारी और सहयोग के ऐसे कार्यक्रम अपनाने चाहिए जो प्राप्तकर्ताओं के हक में हो। अगले दो दशक में दूसरे देशों के साथ-साथ भारत से भी बहुत बड़ी आर्थिक मदद बाहर जाएगी। इतना ही नहीं 10 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की भारत की यात्रा से दूसरे भी सबक लेंगे। कुछ इसमें सुधार करेंगे और कुछ भारत का अनुसरण करेंगे। अमेरिका और चीन के विपरीत भारत ने खुद को असाधारण साबित करने के लिए कोई खास कोशिश नहीं की है, इसीलिए भारत के विकास की स्टोरी को विदेशी बाजार और सरकारें जोश के साथ अपनाएंगी।
और आखिरी बात, भारत को अपने व्यवहारमूलक आर्थिक और सामरिक हितों को हासिल करने में आदर्शवाद को शामिल करना चाहिए। भारत को वैश्विक न्यूक्लियर निशस्त्रीकरण का लक्ष्य हासिल करने के लिए मजबूत इरादे जाहिर करने चाहिए। साथ ही उसे एक जिम्मेदार और मजबूत परमाणु शक्ति के तौर पर न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में शामिल होना चाहिए। विश्व सत्ता में नैतिक नेतृत्व बेहद महत्वपूर्ण है, हालांकि आज की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ये किसी को भी खारिज करने की क्षमता रखती है। आदर्शों का अनुसरण अपने आप में एक सामरिक अनिवार्यता है, जैसा कि हाल ही में अमेरिका और यूरोप ने ग्रीन ग्रोथ के अपने अपने सफल अभियानों में सिद्ध किया।
भारत की विदेश नीति पर नजर रखने वाले इस बात को मानेंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने इन सभी मुद्दों पर गंभीर और ठोस कदम उठाए हैं जिससे इन सभी मसलों पर और प्रगति हो। भारत के विकासवादी साझेदारी कार्यक्रम, विश्व सत्ता में भारत की अग्रणी भूमिका और पहले पड़ोस की नीतियों पर पूरी दुनिया की नजरें हैं। और ये सब एक ‘नई दिल्ली सहमति’ तैयार करने की इच्छा को ही दर्शाती हैं। इस इच्छा को मौजूदा हालात के आंकलन से भी प्रेरणा मिली है। रायसीना डायलॉग 2017 में विदेश नीति पर दिए गए एक असाधारण भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात को माना कि वैश्वीकरण से जो लाभ होने हैं, उनपर खतरा है और प्रभावी बहुपक्षीय माहौल बनाने में कई नए अवरोध हैं। प्रधानमंत्री के भाषण में जो बात स्पष्ट तौर पर निहित थी वो यह कि दुनिया को भारत जैसे देशों का नेतृत्व चाहिए जो इस सदी में आने वाले समय में कई वैश्विक प्रोजेक्ट्स को दिशा दे सकते हैं।
विश्व सत्ता में भारत का रुख इस मायने में वाशिंगटन कन्सेनसस या बीजिंग कन्सेनसस से अलग है क्योंकि भारत निजी क्षेत्र और सिविल सोसायटी की भूमिकाओं को महत्व देता है। अमेरिका और चीन दोनों ही अपना वर्चस्व और प्रभाव बनाए रखने के लिए विश्व बाजार पर अपनी पकड़ को अहम मानते हैं, क्योंकि उनका वैश्विक नजरिया पूरी तरह से राष्ट्र की श्रेष्ठता पर आधारित है। वाशिंगटन कन्सेनसस में भले ही खुले बाजार की वकालत की गयी हो, लेकिन अमेरिका विकास की शर्तें तय करने में सरकार की मध्यस्थता को जरूरी मानता है।
इसके विपरीत “नई दिल्ली सहमति” को अपने ग्लोबल एजेंडा में सरकार के बाहर के विचारों, उद्योग-धंधों, अधिकार संगठनों, विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के सहयोग को शामिल करना चाहिए। भारत का इतिहास समाज की उन्नति की गाथा है, सामाजिक और सामुदायिक संस्थाओं की स्थापना की गाथा है, इसमें मजबूत सरकारों का सहयोग रहा या नहीं रहा, कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए “नई दिल्ली सहमति” का ताना-बाना बुनने वक्त हम इस तथ्य और तत्व को नहीं भूल सकते।
(समीर सरन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में वाइस प्रेसिडेंट हैं)
जो विचार ऊपर व्यक्त किए गए हैं, वो लेखक के अपने विचार हैं और ये जरूरी नहीं कि नरेंद्र मोदी वेबसाइट एवं नरेंद्र मोदी एप इससे सहमत हो।