‘…यहां तक कि वर्तमान समय में भी भारत का योगदान योग, आयुर्वेद जैसी विधाएं हैं। हालांकि, आयुर्वेद क्या है? यह उपचार का एक समग्र तरीका है जिसमें व्यक्ति की संपूर्ण स्थिति को ध्यान में रखा जाता है।‘ कुछ व्याख्यानों में मैंने इस प्रकार से अपनी बातें रखी थीं। मैं कितनी गलत थी! लेकिन महीनों तक बीमार रहने के बाद ही मैं इसे समझ पाई। वैसे मैं अब स्वस्थ होती जा रही थी लेकिन मेरे संस्थान के सहयोगियों ने मुझे सलाह दी कि मुझे कुछ आयुर्वेदिक उपचार भी लेना चाहिए। अस्पतालों में हुई थकान के चलते आयुर्वेदिक उपचार के लिए मैं अनमने ढंग से ही केरल के ओट्टापलम गई।
अगली सुबह हम प्रमुख चिकित्सक डॉ. सेतुमाधवन से मिले जो कि बड़े विनम्र इंसान हैं। उन्होंने line of treatment के बारे में बताया। मुझे हर दिन सुबह 5 बजे ठंडे पानी से सिर से स्नान करने को कहा गया। मैं निमोनिया से ग्रसित रही हूं और फेफड़े से जुड़ी कुछ शिकायतें भी रही हैं, लेकिन मेरे लिए यही सलाह थी। थोड़ी सी चिंता के साथ ही सही, मैंने सुबह 5 बजे ठंडे पानी से स्नान किया। जैसे ही मैंने अपनी exercises पूरी की, डॉक्टर ने आकर हमसे कहा कि अस्पताल के डॉक्टर हर दिन श्री वाग्भटाचार्य के अष्टांगहृदयम के पहले अध्याय का जाप करते हैं और अगर हम चाहें तो उसमें शामिल हो सकते हैं। मीरा और मैंने ये तय किया कि हम दोनों उसमें शामिल होंगे।
आयुर्वेद मुख्य रूप से एक स्वस्थ और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने के लिए है जिसमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की पूर्ति होती है।
यहां पहली बार मुझे आयुर्वेद पर किसी पुस्तक को पढ़ने का अवसर मिला। इसके साथ ही अपने जूनियर डॉक्टरों से डॉ. सेतुमाधवन के विचार-विमर्श और उन्हें दिए गए निर्देशों को सुनने का मौका भी मेरे लिए विशेष रहा। यही वो पल था जब मुझे आयुर्वेद को लेकर बेहद गौरव की अनुभूति हुई, लेकिन साथ ही भारत में आज इसकी हालत से गहरा दर्द भी महसूस हुआ। हर बीतते दिन के साथ मेरा यह दर्द और बढ़ता गया। यही वजह है कि मैंने इसे दूसरों के साथ शेयर करने का सोचा।
गर्व का विषय
पहले एक परिचय अष्टांगहृदयम ग्रंथ के बारे में – वाग्भटाचार्य ने इसकी रचना अपने समय में आयुर्वेद पर उपलब्ध सभी कार्यों को समाहित करते हुए की। वह सिंधु देश से केरल आए थे जहां उन्होंने अठारह परिवारों को उपचार के आठ अंगों की इस परंपरा को सिखाया। केरल में अष्टवैद्य परंपरा की यहीं से शुरुआत हुई। अष्टांगहृदयम के छह खंड हैं जिनमें कुल 120 अध्याय हैं। इसका पहला भाग सूत्रस्थान है जिसे अति उत्कृष्ट कृति माना जाता है। वाग्भटाचार्य हालांकि एक महान चिकित्सक थे, लेकिन उनमें एक उत्कृष्ट कवि के गुण भी कूट-कूटकर भरे थे। सूत्रस्थान के तो पहले श्लोक ने ही मुझे अभिभूत कर दिया। उस श्लोक से विभिन्न प्रकार की जो अंतर्दृष्टि मिलती है उसे मैं दो महीने बाद भी, आज भी उसी प्रकार से अनुभव कर रही हूं। यह श्लोक है:
रागादिरोगान् सततानुषक्तान् अशेषकायप्रसृतानशेषान्
औत्सुक्यमोहारतिदान् जघान योऽपूर्ववैद्याय नमोऽस्तु तस्मै II
इसका शाब्दिक अर्थ है – उस प्रवर्तक वैद्य को श्रद्धांजलि जिसने ‘राग’ (आसक्ति) जैसे ऐसे सभी रोगों को दूर किया जिनकी छाया जीवन को घेरती है, जो जीवों से जुड़ा एक अभिन्न हिस्सा हैं और जो औत्सुक्य (चिंता) और मोहारति (भ्रम और बेचैनी) के कारक हैं। आयुर्वेद का उद्देश्य क्या है? वाग्भटाचार्य कहते हैं,
आयु: कामयमानेन धर्मार्थसुखसाधनम्
आयुर्वेदोपदेशेषु विधेय: परमादर: II
जो पुरुषार्थों की पूर्ति (जीवन के चार उद्देश्य) को अपने जीवन का उद्देश्य मानता है, उसे आयुर्वेद के मानदंडों का अनुपालन और उनका भरपूर सम्मान करना चाहिए।
वैद्य का वास्तविक कर्तव्य है स्वास्थ्य को बढ़ावा देना ना कि सिर्फ बीमारियों का उपचार करना।
एक प्रकार से आयुर्वेद बीमारियों के उपचार के लिए नहीं है, फिर भी बीमारियां अगर आती हैं तो आयुर्वेद के पास उसका पूरा निदान है। आयुर्वेद मुख्य रूप से एक स्वस्थ और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने के लिए है जिसमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की पूर्ति होती है। लेकिन इसके लिए आयुर्वेद के मानकों का पूरी श्रद्धा के साथ पालन होना चाहिए। वैद्य का वास्तविक कर्तव्य है स्वास्थ्य को बढ़ावा देना ना कि सिर्फ बीमारियों का उपचार करना। कहा जाता है कि राजा बिम्बिसार ने हर चार सौ लोगों पर एक वैद्य नियुक्त कर रखा था। तब यह तय करना वैद्य की जिम्मेदारी होती थी कि कोई भी बीमार ना पड़े। किसी वैद्य के क्षेत्र में अगर कोई बीमार पड़ा तो उसे पेशे से हाथ धोना पड़ता था, कभी-कभी तो यह उसके जीवन पर भी भारी पड़ता था।
दर्द का विषय
हमारी विरास्त ने हमें आयुर्वेद जैसा महत्वपूर्ण शास्त्र दिया है जो स्वास्थ्य, सहयोग और उपलब्धियों से भरा जीवन प्रदान करता है। हालांकि, मुझे इस बात का गहरा दर्द है कि आयुर्वेद की क्षमताओं का जितना उपयोग किया जाना चाहिए, उतना होता नहीं है। आज आलीशान जिंदगी की चाहत में समाज ने आयुर्वेद को बड़े होटलों के स्पा तक सीमित कर दिया है। माता-पिता नहीं चाहते कि उनके बच्चे आयुर्वेदाचार्य बनें। जब एमबीबीएस में एडमिशन नहीं मिल पाता है, तब आयुर्वेद में दाखिला लिया जाता है। स्थिति ये है कि अगर आयुर्वेद को सरकार एमबीबीएस की प्रवेश परीक्षा से अलग कर दे, तो स्टूडेंट शायद ही आयुर्वेद के एंट्रेंस में शामिल होंगे।
आयुर्वेद के सभी मूल पाठ संस्कृत में हैं इसलिए फर्स्ट ईयर में संस्कृत पढ़ाई जाती है। हालांकि, ट्रैजडी ये है कि अधिकतर स्टूडेंट संस्कृत की पढ़ाई से मुंह मोड़ लेते हैं। वे इन पाठों के सिर्फ अनुवाद को पढ़ना चाहते हैं इसलिए वे उसके मूलतत्त्व को समझने से चूक जाते हैं। मैंने तो आयुर्वेद में कुछ ऐसे फ्रेश ग्रैजुएट्स भी देखे हैं जो ‘अष्टांगहृदयम’ का उच्चारण भी सही तरीके से नहीं कर सके।
एलोपैथी का एक बड़ा हिस्सा आयुर्वेद के एमडी कोर्स में शामिल है। इसका उद्देश्य है कि आयुर्वेद चिकित्सक को अपने रोगी की रिपोर्ट समझ में आनी चाहिए कि उसका किस तरह का उपचार हुआ है और किस तरह की दवाइयां दी गई हैं। इन सबको ध्यान में रखते हुए उसे रोगी का उपचार करना चाहिए। लेकिन यह उद्देश्य कहीं खो चुका है क्योंकि आयुर्वेद डॉक्टर भी अपने एलोपैथी के ज्ञान का उपयोग कर रोगियों को एलोपैथी दवाएं ही लिख डालते हैं। क्या ट्रैजडी है! कोई रोगी अपने समग्र उपचार के लिए किसी आयुर्वेद डॉक्टर के पास जाता है, लेकिन उसे एलोपैथिक दवाइयां ही दे दी जाती हैं। ऐसे में समाज को संवेदनशील होकर सरकारी हस्तक्षेप के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है ताकि आयुर्वेद का प्राचीन गौरव फिर से स्थापित हो सके।
भारत की एक ऐसी तस्वीर की कल्पना कीजिए जिसमें हर कोई अपने जीवन में स्वास्थ्य, खुशी और उद्देश्यपूर्णता को उतार रहा है। यही वो भारत है जिसे हम देखना चाहते हैं! यही वो भारत है जो सही में स्वामी विवेकानंद के सपने को पूरा कर सकता है, एक ऐसा भारत जो अध्यात्म जगत में विश्व को गाइड कर रहा हो।
एक वृहत परिकल्पना
विश्व जगत को जीने का तरीका देने में हमारे देश को अपना योगदान देना है, तो हमारे जीवन में योग और आयुर्वेद का होना जरूरी है। हमारे देश में योग और आयुर्वेद पर किसी दिशानिर्देश के बाद सभी भारतीयों की एक तस्वीर की कल्पना करके देखिए। एक ऐसा देश जहां सुबह में सूर्योदय से पहले सभी योगासन और प्राणायाम करते हैं। एक ऐसा देश जहां योग और आयुर्वेद के अभ्यास के साथ हर कोई स्वास्थ्य और शांति का संदेश फैलाता है। ऐसा होने पर ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:..सर्वे सन्तु निरामया:-सभी सुखी रहें और सभी नीरोग रहें’ की हमारी अनूठी प्रार्थना भी असल में चरितार्थ होगी। यह प्रार्थना सिर्फ शुभेच्छाओं तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि यह जीवन का एक विजन बन जाएगी। हमारे ऋषियों ने केवल हमारे भलाई के लिए कामना नहीं की, बल्कि उन्होंने ‘सर्वे सन्तु निरामयाः’ के लिए हमें आयुर्वेद शास्त्र भी दिया।
हम पूरे देश को सर्वे सन्तु निरामया: का संदेश देते हैं, लेकिन इसके लिए काम करना है, आयुर्वेद को आने वाली पीढ़ियों तक ले जाना है। यह आबादी के कम से कम 80% हिस्से के कल्याण को सुनिश्चित करेगा।
आयुर्वेद के अधिकतर ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए हैं और इसलिए हम स्टूडेंट को आयुर्वेद को संस्कृत के माध्यम से सीखने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। अंग्रेजी अनुवाद में अक्सर मतलब बदलने का खतरा रहता है जिसे समझाने की आवश्यकता है।
आयुर्वेद को उसका वास्तविक गौरव दिलाने के लिए हमें स्टूडेंट भी ऐसे चाहिए जिनके दिल में आयुर्वेद बसा हो।
ओट्टापलम में अस्पताल के हमारे कमरे के पीछे बेरी का एक पेड़ था जिस पर कई पक्षी आते रहते थे। हमने ये महसूस किया कि तस्वीरों में हम ऐसे पक्षियों की एक छोटी सी संख्या ही देख पाते हैं, लेकिन जब पेड़ को हमने नियमित रूप से देखा तो पाया कि यह संख्या तो हमारी कल्पना से भी कहीं ज्यादा है। मुझे लगा कि यह आयुर्वेद के मेरे थोड़े-बहुत अध्ययन के बारे में बहुत कुछ संकेत कर रहा था। आयुर्वेद ने स्वयं को उपवेद के रूप में मेरे सामने प्रकट किया।
जिस प्रकार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के कारण योग की ओर लोगों का ध्यान गया, उसी प्रकार हमें आयुर्वेद पर भी फोकस करने की जरूरत है। भारत की एक ऐसी तस्वीर की कल्पना कीजिए जिसमें हर कोई अपने जीवन में स्वास्थ्य, खुशी और उद्देश्यपूर्णता को उतार रहा है। यही वो भारत है जिसे हम देखना चाहते हैं! यही वो भारत है जो सही में स्वामी विवेकानंद के सपने को पूरा कर सकता है, एक ऐसा भारत जो अध्यात्म जगत में विश्व को गाइड कर रहा हो।
(social worker निवेदिता भिडे कन्याकुमारी स्थित विवेकानंद केंद्र की Vice President हैं।)
ऊपर व्यक्त की गई राय लेखक की अपनी राय है। यह आवश्यक नहीं है कि नरेन्द्र मोदी वेबसाइट एवं नरेंद्र मोदी ऐप इससे सहमत हो।