केंद्रीय बजट पर विशेषकर अंग्रेजी भाषा में जिस तरह की टीका-टिप्पणी की जा रही है, वह एकतरफा लगती है। ऐसी टिप्पणी में समाज के एक छोटे से हिस्से का अपना स्वार्थ परिलक्षित होता है। आम बजट देश की अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने के लिए केंद्र सरकार के पास उपलब्ध एकमात्र साधन होता है। इस बात की कोई वजह नहीं कि 2018-19 का बजट विकास की उस कड़ी से हटकर हो जिसे सरकार 2014 से आगे बढ़ाने में जुटी हुई है। सरकार का काम मुख्य रूप से करों के द्वारा संसाधनों को बढ़ाना और फिर देश के नागरिकों को सुविधाएं और सेवाएं उपलब्ध कराने में उसका इस्तेमाल करना है। (यह केंद्र सरकार है। संसाधनों का बड़ा हिस्सा उसे राज्यों को सरकारी व पूंजीगत खर्चों को पूरा करने के लिए देना पड़ता है।)
यही वजह है कि अब पिछड़े इलाकों के परिवारों (सिर्फ इन जिलों में ही नहीं) को बैंक खातों, पेंशन, स्वास्थ्य और जीवन बीमा जैसे वित्तीय उत्पादों, बिजली और टेलिफोन की पहुंच, एलपीजी कनेक्शन, शौचालय, कौशल, शिक्षा जैसी तमाम जरूरतों से सशक्त करना पड़ेगा। इतना ही नहीं इन व्यक्तियों/परिवारों और लक्षित लाभार्थियों को इन सभी जरूरी सुविधाओं पर सब्सिडी भी मिलनी चाहिए।
बुनियादी रूप से वर्किंग एज ग्रुप में काम करने में सक्षम लोग स्वेच्छा से गरीब नहीं होते हैं। वे इसलिए गरीब होते हैं, क्योंकि कई सुविधाओं तक उनकी पहुंच नहीं होती है। इसकी बड़ी वजह है कि किसी केंद्र सरकार ने 115 जरूरतमंद जिलों को याद नहीं रखा और दिल्ली, मुंबई की आवश्यकताओं को पूरा कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। यही वजह है कि अब पिछड़े इलाकों के परिवारों (सिर्फ इन जिलों में ही नहीं) को बैंक खातों, पेंशन, स्वास्थ्य और जीवन बीमा जैसे वित्तीय उत्पादों, बिजली और टेलिफोन की पहुंच, एलपीजी कनेक्शन, शौचालय, कौशल, शिक्षा जैसी तमाम जरूरतों से सशक्त करना पड़ेगा। इतना ही नहीं इन व्यक्तियों/परिवारों और लक्षित लाभार्थियों को इन सभी जरूरी सुविधाओं पर सब्सिडी भी मिलनी चाहिए।
भारत में कहीं भी रहने वाले नागरिकों, चाहे वो पुरुष हों या महिलाएं, सभी को न्यूनतम व्यक्तिगत और सामूहिक सुविधाओं का लाभ मिलना चाहिए। इसी से “ease of living” बढ़ता है। सरकार ने दूसरे तरीकों से जो काम किए हैं, 2018-19 का बजट उसी पर आधारित है।
इसके साथ ही, कई ऐसी सुविधाएं हैं जो सामूहिक प्रकृति की हैं, जैसे गांवों में सड़क, हाट बाजार (सिर्फ मंडी नहीं), राष्ट्रीय राजमार्ग, रेलवे और परिवहन के दूसरे साधन आदि। महिलाएं, एससी-एसटी, वरिष्ठ नागरिक जैसे विशिष्ट वर्ग भी हैं जिन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। सभी नागरिकों का जीवन स्तर और उत्पादकता बढ़ाने का यही सबका साथ, सबका विकास वाला समावेशी एजेंडा है। भारत में कहीं भी रहने वाले नागरिकों, चाहे वो पुरुष हों या महिलाएं, सभी को न्यूनतम व्यक्तिगत और सामूहिक सुविधाओं का लाभ मिलना चाहिए। इसी से “ease of living” बढ़ता है। सरकार ने दूसरे तरीकों से जो काम किए हैं, 2018-19 का बजट उसी पर आधारित है।
कोई भी Enterprise चाहे देश में कहीं भी स्थापित हो और वह कानूनी रूप से जिस भी स्वरूप में हो, उसके लिए एक अनुकूल माहौल होना चाहिए। यह तर्क किसानों और MSMEs दोनों के लिए एक समान रूप से लागू होता है।
इस बजट का एक मजबूत आधार है। Enterprise को व्यक्तियों से अलग करना संभव नहीं है, क्योंकि वर्किंग एज ग्रुप के सक्षम लोग अपने कार्य से अर्थव्यवस्था में खासा योगदान दे रहे हैं। देश में 95 प्रतिशत से अधिक MSME enterprises की कानूनी तौर पर कोई पहचान नहीं है। यहां तक कि Corporate की legal identity भी बहुत ही छोटे रूप में हैं। इसलिए “ease of doing business” का दूसरा पहलू यह है कि इसे सिर्फ कॉर्पोरेट सेक्टर के लिए कुछ करने के तौर पर नहीं देखना चाहिए। कोई भी Enterprise चाहे देश में कहीं भी स्थापित हो और वह कानूनी रूप से जिस भी स्वरूप में हो, उसके लिए एक अनुकूल माहौल होना चाहिए। यह तर्क किसानों और MSMEs दोनों के लिए एक समान रूप से लागू होता है। इसके अंतर्गत eNAM (national agricultural market), GeM (Government e-Marketplace), फसलों की उपज के लिए बेहतर न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), जमीन को लीज पर देने वाले कानूनों को सरल करना, जमीन का स्वामित्व, मुद्रा योजना और IBC (Insolvency and Bankruptcy Code) जिसके तहत MSMEs के लिए आसान निकासी का प्रावधान है, ऐसे तमाम पहलू शामिल हैं। इनके अलावा DIPP के व्यापार को सुगम बनाने की पहल, स्व-प्रमाणीकरण और टेक्नॉलोजी के इस्तेमाल द्वारा कर्मचारियों के कार्य को सरल बनाना, टैक्स रिटर्न का इलेक्ट्रॉनिक आकलन समेत कई और बातें इसके दायरे में आती हैं। यहां भी सरकार की तरफ से किए जा रहे कार्यों और 2018-19 के बजट के बीच एक साफ निरंतरता दिखाई दे रही है।
क्या बजट का विश्लेषण करने वालों ने सरकार द्वारा पहले से शुरू किए गए प्रयासों का संज्ञान लिया है? उन्हें बजट को और बेहतर तरीके से समझना होगा। चुनावी साल में लोकप्रियता के लिए इस बजट में कुछ भी विशेष नहीं किया गया है।
Enterprises से हटकर बात करें तो, अगर सरकार Provident Fund का योगदान सभी के लिए जरूरी करने जा रही है, तो यह भी उस कदम का विस्तार है जिस पर अभी तक बहुत कम ध्यान दिया गया था। इसी तरह fixed-term contracts और लगभग सभी MSMEs के लिए कॉर्पोरेट टैक्स को घटाकर 25 प्रतिशत कर दिया गया है। क्या बजट का विश्लेषण करने वालों ने सरकार द्वारा पहले से शुरू किए गए प्रयासों का संज्ञान लिया है? उन्हें बजट को और बेहतर तरीके से समझना होगा। चुनावी साल में लोकप्रियता के लिए इस बजट में कुछ भी विशेष नहीं किया गया है।
एक सरकार जिसे विश्वास है कि वो लंबे समय तक रहने वाली है, वो अदूरदर्शी व्यवहार नहीं करती है।
Fiscal consolidation के रास्ते से बिना भटके हुए इन सभी को पूरा करना एक चुनौती है। इन चुनौतियों का मतलब सिर्फ वर्ष 2018-19 में fiscal deficit/GDP रेशियो 3.3% का होना ही नहीं, बल्कि Fiscal Reform and Budget Management Committee की केंद्र सरकार के कर्ज को जीडीपी के 40 प्रतिशत तक कम करने जैसी सिफारिशों को स्वीकार करना भी है। पहले कई दूसरे वित्त मंत्री ड्रीम बजट पेश कर चुके हैं, लेकिन वह सपना कुछ ही दिन में भयावह अनुभव बनकर खत्म हो गया। उच्च आय वाले लोगों के लिए इनकम टैक्स रेट घटाकर और कॉर्पोरेट टैक्स को 25 प्रतिशत तक कम कर ड्रीम बजट पेश किया जा सकता था। इससे बाजार में घबराहट फैल जाती, सरकार को भी देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी का त्याग करना पड़ता। यह गैरजिम्मेदाराना रवैया उन सरकारों के लिए तो समझ में आता है, जिन्हें विश्वास है कि वो लंबे समय तक नहीं टिकेंगी। ऐसा होने पर आने वाली सरकार को उसके परिणाम भुगतने पड़ते। एक सरकार जिसे विश्वास है कि वो लंबे समय तक रहने वाली है, वो अदूरदर्शी व्यवहार नहीं करती है। जिस तरह 2014 से निर्माणकारी कदम उठाए जा रहे हैं, यह बजट भारत के नागरिकों और Enterprises के साथ देश के भविष्य का निर्माण करेगा।
(बिबेक देबरॉय एक अर्थशास्त्री और लेखक हैं। वह प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन हैं।)
ऊपर व्यक्त की गई राय लेखक की अपनी राय है। यह आवश्यक नहीं है कि नरेन्द्र मोदी वेबसाइट एवं नरेंद्र मोदी ऐप इससे सहमत हो।