उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने हाल में हुए चुनाव में इन मान्यताओं के टुकड़े-टुकड़े कर दिए हैं कि शासन करने का अधिकार ईश्वर ने किसी एक को देकर भेजा है। कई और मान्यताएं टूटी हैं। अपने वर्तमान स्वरूप में भारतीय जनता पार्टी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के 'एकात्म मानववाद' की शिक्षाओं से प्रेरणा ली है और उसे भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में हो रहे इस मनमाफिक परिवर्तन का सबसे अधिक लाभ भी मिला है।
1980 में मुंबई में हुए भाजपा के पहले राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ही श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक भरोसेमंद विपक्ष देने का विश्वास दिलाया था। अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने सिद्धांतों पर आधारित राजनीति की बात करते हुए कहा था, “अंधेरा छंटेगा कमल खिलेगा”। तब से लेकर 2013-14 में श्री नरेंद्र मोदी के “कांग्रेस मुक्त भारत” के आह्वान तक हमने अपनी राजनीतिक यात्रा में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। इस दौर में एक बात जो कि एक ब्रांड के तौर पर भाजपा की राजनीतिक पहचान बन गई है, वह है विचारधारा के प्रति उसकी प्रबल वफादारी। पार्टी का स्पष्ट एवं ठोस दृष्टिकोण है, यहां प्रतिभा को महत्व मिलता है खून के संबंधों को नहीं। यही वजह है कि अपनी राजनीतिक यात्रा के दौरान अधिकतर समय विपक्ष में रहने के बावजूद भाजपा में निष्ठावान नेताओं की कभी कमी नहीं रही। 1980 के दशक से लेकर इस शताब्दी के शुरुआती वर्षों में अटल जी और आडवाणी जी के करिश्माई व्यक्तिव से लेकर पिछले कुछ सालों में श्री नरेंद्र मोदी और श्री अमित शाह का अत्यंत उत्कृष्ट नेतृत्व हमारे सामने है। इन सभी व्यक्तियों में एक समानता है कि इनमें से किसी को भी राजनीतिक परिवार से होने का लाभ नहीं मिला है। ये वो लोग हैं जिन्होंने राजनीति के क्षेत्र में अपनी खुद की पहचान बनाई है। इन्होंने अपनी कड़ी मेहनत और लोगों को साथ लेकर चलने की क्षमता से इस महान देश में एक नया इतिहास रचा है।
भारत में हमने कई राजनीतिक परिवारों को खत्म होते देखा है, जैसे राजशेखर रेड्डी, असम में गोगोई और हरियाणा में चौटाला परिवार। भारतीय मतदाताओं में अधिकतर संख्या युवा वोटरों की है जो अब किसी परिवार की सत्ता से चिपके रहने के लिए तैयार नहीं है।
कहा जा सकता है कि भारतीय चुनावी राजनीति के लिए 1991 एक ऐतिहासिक क्षण रहा है। क्योंकि तब खुली अर्थव्यवस्था अपनाए जाने के चलते भारतीयों को दुनियाभर में हो रहे बदलावों को जानने और समझने का मौका मिला। फिर न्यूज चैनलों में निजी निवेश का दौर शुरू होने से राजनीतिज्ञों की जिंदगी में बड़ा बदलाव आ गया। मतदाताओं ने उन राजनेताओं को अलविदा कहना शुरू कर दिया, जो सिर्फ चुनाव के समय ही दिखाई पड़ते थे या जो अपनी सुविधा के हिसाब से ही मिला करते थे। 24 घंटे के न्यूज का मतलब हो गया कि 24 घंटे राजनीति और राजनेताओं का हर समय उपलब्ध रहना। इसका ये भी मतलब है कि अब माई-बाप की सोच वाले पुराने राजनेताओं के दिन लद चुके हैं। इस बदलाव को कुछ राजनेताओं और राजनीतिक संगठनों ने गहराई से अपना लिया है। लेकिन दूसरों को ये राजनीतिक प्रवचन की तरह लगता है और अपने काम के तरीके में बदवाल की सच्चाई को स्वीकारने में घबराहट होती है। जो भी राजनीतिक संगठन या व्यक्ति अपने में समय के अनुसार बदलाव नहीं करेंगे, वो राजनीतिक गुमनामी के अंधेरे में खो जाएंगे।
ये आश्चर्यजनक नहीं है कि सबसे ज्यादा नुकसान वंशवाद की राजनीति करने वाले परिवारों को हुआ है क्योंकि वो मतदाताओं के मनोभाव को समझने में नाकाम रहे हैं। न्यू इंडिया में लोग कुछ परिवारों में ही निहित राजनीति को हजम करने के लिए तैयार नहीं हैं। 2014 में लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस के एक वाचाल प्रवक्ता ने अभी के प्रधानमंत्री को “चाय वाला” कहकर बुलाया था। ये सिर्फ हमारे राजनीतिक दुराग्रह का उदाहरण नहीं था बल्कि इससे ये भी साबित होता था कि उनकी निष्ठा किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति नहीं, बल्कि सिर्फ एक राजनीतिक परिवार के लिए थी। लेकिन देश की जनता ने सिर्फ गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में श्री नरेंद्र मोदी के द्वारा किए गए ढेर सारे कामों को याद रखा। 2014 में भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए को ऐतिहासिक जनादेश हासिल हुआ। मतदाताओं ने भरोसा दिलाया कि उनकी प्राथमिकता वंशवाद नहीं है और चुनाव मे एक परिवार का पर्याय बन चुकी कांग्रेस की भारी पराजय में यह भावना व्यक्त हुई।
पिछली पीढ़ी के महिमामंडन पर आज के युवा मतदाता पिघलने वाले नहीं हैं। ये इसलिए और भी अहम है क्योंकि करीब 65 प्रतिशत मतदाता 18-35 आयु वर्ग के हैं। देश की जनसंख्या के इस बड़े हिस्से ने औपनिवेशिक शासनकाल की त्रासदियों को नहीं झेला है। ऐसे में स्वतंत्रता संग्राम और उसमें पूर्वजों के योगदान के गीत गाकर अब नई पीढ़ी को रिझाना असंभव है। आज के मतदाता अपने जनप्रतिनिधियों से आए दिन उठने वाले हर जरूरी मसलों पर उनकी सक्रिय सहभागिता चाहते हैं। एक गंभीर राजनीतिक कार्यकर्ता को बेवजह की बातों में उलझते हुए देखना लोग पसंद नहीं करते। आज के मतदाता अपने जनप्रतिनिधियों को पुराने ढर्रे की राजनीति करते हुए नहीं देख सकते।
एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में हमारी ये जिम्मेदारी है कि हम अपने मतदाताओं से लगातार संपर्क में रहें, उनके लिए काम करें और संसद एवं विधानसभाओं में उनकी आवाज बनें। ये जरूरी है कि हम राष्ट्रहित को अपने निहित स्वार्थ से ऊपर रखें। जब दिल्ली के एक कोर्ट ने गांधी परिवार को समन किया, तो प्रतिशोध की राजनीति के तहत संसद को काम नहीं करने दिया गया। एक परिवार के निहित स्वार्थ के चलते राष्ट्रहित को ताक पर रखना लोगों को पसंद नहीं है। इन हथकंडों को देखने के बाद उसे एहसास हो जाता है कि वही पुरानी परंपरावादी राजनीति सत्ता में वापसी के लिए छटपटा रही है।
जरा अमेठी के उस प्रतिष्ठित लोकसभा क्षेत्र के लोगों के बारे में सोचिए जहां का प्रतिनिधित्व 2004 से नेहरू-गांधी परिवार करता रहा है। ये वो परिवार है जिसने केंद्र में छद्म रूप से सरकार चलायी। 2009 में भी वही स्थिति रही। जब 2012 में समाजवादी पार्टी सत्ता में आई तो उम्मीद जगी कि केंद्र और राज्य सरकारों में बढ़िया तालमेल होने से यहां के लोगों की किस्मत बदलेगी। क्षेत्र में दोनों ही पार्टियों के प्रतिनिधियों के होने से लगा कि विकास की रफ्तार तेज होगी, टोले-मोहल्लों के रास्तों-पगडंडियों की सूरत बदलेगी।
लेकिन, अमेठी और उत्तरप्रदेश के बाकी हिस्सों के मतदाताओं के लिए 2012 से लेकर 2014 तक का समय सबसे ज्यादा निराश करने वाला साबित हुआ। अपने राजनीतिक लाभ के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने हाथ मिलाया था। लोगों को उम्मीद थी कि दो राजनीतिक परिवारों के साथ आने से पूरे राज्य और उनके संबंधित चुनाव क्षेत्रों का कल्याण होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
मैं लगातार अमेठी दौरे पर जाती रही। मीलों-मीलो तक की भयावह दुर्गति देखकर मैं हैरान होती थी। फिर भी लोग 30 किलोमीटर लंबे एक लेन वाले खरंजे से ही खुश नजर आते दिखे, जो गांव को मुख्य पक्की सड़क से जोड़ती है। दुर्गति के बावजूद लोग बेहतर भविष्य के प्रति आशावान नजर आते थे। लेकिन चुने हुए प्रतिनिधियों ने जब एक ही सपने को मतदाताओं के बीच बार-बार बेचने की कोशिश की, तो मतदाताओं ने भी ऐसे हवाबाज नेताओं को सबक सिखाने का फैसला किया। हाल में संपन्न हुए उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव का परिणाम मतदाताओं के उसी गुस्से को दिखलाता है।
भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री के करिश्माई नेतृत्व में लड़ रही है। ये वो व्यक्ति हैं जो बेहद विनम्रता से खुद को राष्ट्र का ‘प्रधानसेवक’ कहते हैं और करोड़ों लोगों की आशाओं और उम्मीदों पर खरे उतरे हैं। राजनीतिक विरोधियों ने आघात करने की भी काफी कोशिशें कीं। लेकिन, लोगों ने उन सबको बता दिया कि बिना जमीन पर काम किए कुछ नहीं होने वाला, पारिवारिक सत्ता के दिन अब खत्म हो चुके हैं।
हमारे लिए ये समझना जरूरी हो गया है कि किसी खास राजनीतिक परिवार से संबंध रखना अब विशेषाधिकार नहीं रह गया है। अब हमारी जिम्मेदारी बढ़ गई है, मतदाता हमारा आकलन हमारे सरनेम से नहीं, हमारे काम से करता है। कुछ मामलों में पूर्वजों की गलतियों की सजा भी भुगतनी पड़ती है। वैसे अब बेटा या बेटी वाले वंशवाद का सूर्य अस्त हो गया लगता है।
(स्मृति जुबिन ईरानी गुजरात से राज्यसभा सांसद हैं। वो अभी केंद्रीय कपड़ा मंत्री हैं।)
जो विचार ऊपर व्यक्त किए गए हैं, वो लेखक के अपने विचार हैं और ये जरूरी नहीं कि नरेंद्र मोदी वेबसाइट एवं नरेंद्र मोदी एप इससे सहमत हो।