कार्यक्रम में मेरे साथ उपस्थित जम्मू कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर श्रीमान मनोज सिन्हा जी, धर्मार्थ ट्रस्ट के चेयरमैन ट्रस्टी डॉ कर्णसिंह जी, इस कार्यक्रम में उपस्थित अन्य सभी महानुभाव, देवियों और सज्जनों,
आज हम श्रीमद भगवत गीता की 20 व्याख्याओं को एक साथ लाने वाले 11 संस्करणों का लोकार्पण कर रहे हैं। मैं इस पुनीत कार्य के लिए प्रयास करने वाले सभी विद्वानों को, इससे जुड़े हर व्यक्ति को और उनके हर प्रयास को आदरपूर्वक नमन करता हूँ और उनको मैं बहुत-बहुत बधाई देता हूँ। आपने ज्ञान का इतना बड़ा कोष आज के युवाओं, और आने वाली पीढ़ियों के लिए सुलभ करने का एक बहुत ही महान काम किया है। मैं डॉ कर्ण सिंह जी का भी विशेष रूप से अभिनंदन करता हूँ, जिनके मार्गदर्शन में, ये कार्य सिद्ध हुआ है। और जब भी मैं उनसे मिला हूँ एक प्रकार से ज्ञान और संस्कृति की धारा अविरल बहती रहती है, ऐसे बहुत कम विरले मिलते हैं। और आज ये भी बहुत शुभ अवसर है कि कर्ण सिंह जी का जन्मदिवस भी है और 90 साल की एक प्रकार से उनकी एक सांस्कृतिक यात्रा है। मैं उनका हृदय से अभिनंदन करता हूँ। मैं आपके दीर्घायु होने, अच्छे स्वास्थ्य की बहुत ही कामना करता हूं। डॉ कर्ण सिंह जी ने भारतीय दर्शन के लिए जो काम किया है, जिस तरह अपना जीवन इस पवित्र कार्य के लिये समर्पित किया है, भारत के शिक्षा जगत पर उसका प्रकाश और प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। आपके इस प्रयास ने जम्मू कश्मीर की उस पहचान को भी पुनर्जीवित किया है, जिसने सदियों तक पूरे भारत की विचार परंपरा का नेतृत्व किया है। कश्मीर के भट्ट भाष्कर, अभिनवगुप्त, आनंदवर्धन, अनगिनत विद्वान, जिन्होंने गीता के रहस्यों को हमारे लिए उजागर किया। आज वो महान परंपरा एक बार फिर देश की संस्कृति को समृद्ध करने के लिए तैयार हो रही है। ये कश्मीर के साथ-साथ पूरे देश के लिए भी गर्व का विषय है।
साथियों,
किसी एक ग्रंथ के हर श्लोक पर ये अलग-अलग व्याख्याएँ, इतने मनीषियों की अभिव्यक्ति, ये गीता की उस गहराई का प्रतीक है, जिस पर हजारों विद्वानों ने अपना पूरा जीवन दिया है। ये भारत की उस वैचारिक स्वतन्त्रता और सहिष्णुता का भी प्रतीक है, जो हर व्यक्ति को अपना दृष्टिकोण, अपने विचार रखने के लिए प्रेरित करती है। किसी के लिए गीता ज्ञान का ग्रंथ है, किसी के लिए सांख्य का शास्त्र है, किसी के लिए योग सूत्र है, तो किसी के लिए कर्म का पाठ है। अब मैं जब गीता को देखता हूँ तो मेरे लिए ये उस विश्वरूप के समान है जिसका दर्शन हमें 11वें अध्याय में होता है- मम देहे गुडाकेश यच्च अन्यत् द्रष्टुम इच्छसि। अर्थात्, मुझमें जो कुछ भी देखना चाहो देख सकते हो। हर विचार, हर शक्ति के दर्शन कर सकते हो।
साथियों,
गीता के विश्वरूप ने महाभारत से लेकर आज़ादी की लड़ाई तक, हर कालखंड में हमारे राष्ट्र का पथप्रदर्शन किया है। आप देखिए, भारत को एकता के सूत्र में बांधने वाले आदि शंकराचार्य ने गीता को आध्यात्मिक चेतना के रूप में देखा। गीता को रामानुजाचार्य जैसे संतों ने आध्यात्मिक ज्ञान की अभिव्यक्ति के रूप में देखा। स्वामी विवेकानंद जी के लिए गीता अटूट कर्मनिष्ठा और अदम्य आत्मविश्वास का स्रोत रही है। गीता श्री अरबिंदो के लिए तो ज्ञान और मानवता की साक्षात अवतार थी। गीता महात्मा गांधी की कठिन से कठिन समय में पथप्रदर्शक रही है। गीता नेताजी सुभाषचंद्र बोस की राष्ट्रभक्ति और पराक्रम की प्रेरणा रही है। ये गीता ही है जिसकी व्याख्या बाल गंगाधर तिलक ने की और आज़ादी की लड़ाई को एक नई ताकत दी, नई ऊर्जा दी थी। मैं समझता हूँ कि ये सूची इतनी लंबी हो सकती है कि कई घंटे भी इसके लिए कम पड़ेंगे। आज जब देश आज़ादी के 75 साल मनाने जा रहा है, तो हम सबको गीता के इस पक्ष को भी देश के सामने रखने का प्रयास करना चाहिए। कैसे गीता ने हमारी आज़ादी की लड़ाई को ऊर्जा दी, कैसे हमारे स्वाधीनता सेनानियों को देश के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने का साहस दिया, कैसे गीता ने देश को एकता के आध्यात्मिक सूत्र में बांधकर रखा, इस सब पर भी हम शोध करें, लिखें और अपनी युवा पीढ़ी को इससे परिचित कराएं।
साथियों,
गीता तो भारत की एकजुटता, समत्व की भावना का मूल पाठ है, क्योंकि गीता कहती है- ‘समम् सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तम् परमेश्वरम्’। अर्थात्, प्राणी मात्र में ईश्वर का निवास है। नर ही नारायण है। गीता हमारी ज्ञान और शोध की प्रवत्ति की प्रतीक है, क्योंकि गीता कहती है- ‘न हि ज्ञानेन सदृशम् पवित्रम् इह विद्यते’। अर्थात्, ज्ञान से पवित्र और कुछ भी नहीं है। गीता भारत के वैज्ञानिक चिंतन की, scientific temperament की भी गीता ऊर्जा स्रोत है, क्योंकि गीता का वाक्य है- ‘ज्ञानम् विज्ञानम् सहितम् यत् ज्ञात्वा मोक्ष्यसे अशुभात्’। अर्थात, ज्ञान और विज्ञान जब साथ मिलते हैं, तभी समस्याओं का, दुःखों का समाधान होता है। गीता सदियों से भारत की कर्म निष्ठा का प्रतीक है, क्योंकि गीता कहती है- ‘योगः कर्मसु कौशलम्’। अर्थात्, अपने कर्तव्यों को कुशलतापूर्वक करना ही योग है।
साथियों,
गीता एक ऐसा आध्यात्मिक ग्रंथ है जिसने ये कहने का साहस किया कि- ‘न अनवाप्तम् अवाप्तव्यम् वर्त एव च कर्मणि’। अर्थात सभी हानि-लाभ और इच्छाओं से मुक्त ईश्वर भी बिना कर्म किए नहीं रहता है। इसीलिए, गीता पूरी व्यावहारिकता से इस बात को कहती है कि कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किए नहीं रह सकता। हम कर्म से मुक्त नहीं हो सकते। अब ये हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम अपने कर्मों को क्या दिशा दें, कैसा स्वरूप दें। गीता हमें मार्ग दिखाती है, हम पर कोई आदेश नहीं थोपती। गीता ने अर्जुन पर भी कोई आदेश नहीं थोपा था और अभी डॉक्टर साहब भी कह रहे थे, गीता कोई उपदेश नहीं देती। श्रीकृष्ण ने पूरी गीता के उपदेश के बाद अंतिम अध्याय में अर्जुन से यही कहा, यानि सब कुछ करने के बाद, जितना जोर लगाना था, लगा लिया लेकिन आखिर में क्या कहा- ‘यथा इच्छसि तथा कुरु’। यानी, अब मैंने जितना कहना था कह दिया, अब तुम्हें जैसा ठीक लगे वैसा तुम करो। ये अपने आप में शायद इससे ज्यादा liberal thinker कोई हो सकता है। कर्म और विचारों की ये स्वतन्त्रता ही भारत के लोकतन्त्र की सच्ची पहचान रही है। हमारा लोकतन्त्र, हमारे विचारों की आज़ादी देता है, काम की आज़ादी देता है, अपने जीवन के हर क्षेत्र में समान अधिकार देता है। हमें ये आज़ादी उन लोकतान्त्रिक संस्थाओं से मिलती है, जो हमारे संविधान की संरक्षक हैं। इसलिए, जब भी हम अपने अधिकारों की बात करते हैं, तो हमें अपने लोकतान्त्रिक कर्तव्यों को भी याद रखना चाहिए। आज कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसी कोशिश में रहते हैं कि कैसे संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा पर, उनकी विश्वसनीयता पर चोट की जाए! हमारी संसद हो, न्यायपालिका हो, यहाँ तक कि सेना भी, उस पर भी अपने राजनीतिक स्वार्थ में, हमले करने की कोशिश होती रहती है। ये प्रवत्ति देश को बहुत नुकसान पहुंचाती है। संतोष की बात है कि ऐसे लोग देश की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करते। देश तो आज अपने कर्तव्यों को ही संकल्प मानकर आगे बढ़ रहा है। गीता के कर्मयोग को अपना मंत्र बनाकर देश आज गाँव-गरीब, किसान-मजदूर, दलित-पिछड़े, समाज की हर वंचित व्यक्तियों की सेवा करने में, उनका जीवन बदलने के लिये प्रयास कर रहा है।
साथियों,
गीता के माध्यम से भारत ने देश और काल की सीमाओं से बाहर पूरी मानवता की सेवा की है। गीता तो एक ऐसा ग्रंथ है जो पूरे विश्व के लिए है, जीव मात्र के लिए है। दुनिया की कितनी ही भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया, कितने ही देशों में इस पर शोध किया जा रहा है, विश्व के कितने ही विद्वानों ने इसका सानिध्य लिया है। ये गीता ही है जिसने दुनिया को निःस्वार्थ सेवा जैसे भारत के आदर्शों से परिचित कराया। नहीं तो, भारत की निःस्वार्थ सेवा, ‘विश्व बंधुत्व’ की हमारी भावना, ये बहुतों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं होती।
आप देखिए,
कोरोना जैसी महामारी दुनिया के सामने आई, उस समय जैसे पूरा विश्व इस खतरे से अंजान था, एक unknown enemy था। दुनिया तैयार नहीं थी, मानव तैयार नहीं था और वैसी ही स्थिति भारत के लिए भी थी। लेकिन भारत ने खुद को भी संभाला, और विश्व की सेवा के लिये जो भी कर सकता है, पीछे नहीं रहा। दुनिया के देशों को दवाइयाँ पहुंचाईं, जरूरत जिन सामग्री की थी उसको पहुंचाया। आज दुनिया के कई ऐसे देश जिनके पास वैक्सीन के लिए साधन-संसाधन नहीं थे, भारत ने उनके लिए बिना किसी बंध-अनुबंध और शर्त के, कोई शर्त नहीं, हमने वैक्सीन पहुंचाई। वहाँ के लोगों के लिए भी ये सेवा किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं है। उनके लिए, ये अलग ही अनुभव है।
साथियों,
इसी तरह दूसरे देशों के भी जो लोग दुनिया में अलग अलग जगह फंसे थे, भारत ने उन्हें भी सुरक्षित निकाला, हमने उनके देश पहुंचाया। इसमें भारत ने नफा-नुकसान का कोई गणित नहीं लगाया। मानव मात्र की सेवा को ही कर्म मानकर भारत ने ये कर्तव्य निभाया। जब दुनिया के लोग, विश्व के नेता इसे भारत द्वारा की गई सहायता बताते हैं, भारत के प्रति मुझे धन्यवाद देते हैं, तो मैं कहता हूँ कि भारत के लिए ये सहायता नहीं, संस्कार हैं। भारत की दृष्टि में ये महानता नहीं, मानवता है। भारत सदियों से इसी निष्काम भाव से मानव मात्र की सेवा कैसे करते आ रहा है, ये मर्म दुनिया को तब समझ आता है जब वो गीता के पन्ने खोलती है। हमें तो गीता ने पग-पग पर यही सिखाया है- ‘कर्मणि एव अधिकारः ते मा फलेषु कदाचन’। यानी, बिना फल की चिंता किए निष्काम भावना से कर्म करते रहो। गीता ने हमें बताया है- ‘युक्तः कर्म फलं त्यक्त्वा शान्तिम् आप्नोति नैष्ठिकीम्’। अर्थात, फल या लाभ की चिंता किए बिना कर्म को कर्तव्य भाव से, सेवा भाव से करने में ही आंतरिक शांति मिलती है। यही सबसे बड़ा सुख है, सबसे बड़ा अवार्ड है।
साथियों,
गीता में तामसिक, राजसिक और सात्विक, तीन प्रवत्तियों का वर्णन भगवान कृष्ण ने किया है। यहाँ कोई, यहां जब आप एक प्रकार से गीता से जुड़े हुए मर्मज्ञ के लोग भी मेरे सामने हैं। आप सब जानते ही हैं कि गीता के 17वें अध्याय में इस पर कई श्लोक हैं और मेरे अनुभव के हिसाब से अगर हम सरल भाव में इन तामसिक, राजसिक और सात्विक प्रवत्तियों को कहें तो, जो कुछ भी सबके पास है, वो मेरा हो जाए, हमें मिल जाए, यही तामसिक प्रवत्ति है। इसके कारण दुनिया में युद्ध होते हैं, अशांति होती है, षड्यंत्र होते हैं। जो मेरा है, वो मेरे पास रहे। जो किसी और का वो उसका है, वो उसी में अपना गुजारा करे। ये राजसिक यानी सामान्य दुनियावी सोच है। लेकिन, जो मेरा है वो उतना ही सबका है, मेरा सब कुछ मानव मात्र का है, ये सात्विक प्रवत्ति है। इसी सात्विक प्रकृति पर भारत ने हमेशा से अपने मानवीय मूल्यों को आकार दिया है, समाज का मापदंड बनाया है। हमारे यहाँ परिवारों में भी बच्चों को भी सबसे पहले यही सिखाते हैं, कुछ भी मिले पहले सबको दो, बाद में खुद रखो। मैं मेरा नहीं करते, मिलकर चलते हैं। इन्हीं संस्कारों के कारण भारत ने कभी अपनी पूंजी को, अपने ज्ञान को, आने और अपने आविष्कारों को केवल आर्थिक आधार पर नहीं देखा। हमारा गणित का ज्ञान हो, textile हो, metallurgy हो जैसे कई प्रकार के व्यापारिक अनुभव हों, या फिर आयुर्वेद का विज्ञान हो, हमने इन्हें मानवता की पूंजी माना। आयुर्वेद का विज्ञान तो उन युगों से मानवता की सेवा कर रहा है जब आधुनिक मेडिकल साइन्स इस रूप में नहीं थी। आज भी जब दुनिया एक बार फिर से हर्बल और नैचुरल की बात कर रही है, treatment से पहले healing की ओर देख रही है, आज जब आयुर्वेद पर अलग अलग देशों में शोध हो रहे हैं, तो भारत उसे प्रोत्साहित कर रहा है, अपनी मदद भी दे रहा है। अतीत में भी, हमारे प्राचीन विश्वविद्यालयों में विदेशी छात्र आए, विदेशी यात्री आए, हर किसी को हमने अपना ज्ञान-विज्ञान पूरी उदारता से दिया। हमने जितनी ज्यादा प्रगति की, उतना ही मानव मात्र की प्रगति के लिए और प्रयास हम करते रहे हैं।
साथियों,
हमारे यही संस्कार, हमारा यही इतिहास आज ‘आत्मनिर्भर भारत’ के संकल्प के रूप में एक बार फिर जाग्रत हो रहा है। आज एक बार फिर भारत अपने सामर्थ्य को संवार रहा है ताकि वो पूरे विश्व की प्रगति को गति दे सके, मानवता की और ज्यादा सेवा कर सके। हाल के महीनों में दुनिया ने भारत के जिस योगदान को देखा है, आत्मनिर्भर भारत में वही योगदान और अधिक व्यापक रूप में दुनिया के काम आयेगा। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए आज देश को गीता के कर्मयोग की जरूरत है। सदियों के अंधकार से निकलकर एक नए भारत के सूर्योदय के लिए, आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लिए, हमें अपने कर्तव्यों को पहचानना भी, उनके लिए कृतसंकल्प भी होना है। जैसे भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा था- ‘क्षुद्रम् हृदय दौर्बल्यम् त्यक्तवा उत्तिष्ठ परंतप’! अर्थात्, छोटी सोच, छोटे मन और आंतरिक कमजोरी को छोड़कर अब खड़े हो जाओ। भगवान कृष्ण ने ये उपदेश देते हुये गीता में अर्जुन को ‘भारत’ कहकर संबोधित किया है। आज गीता का ये सम्बोधन हमारे ‘भारतवर्ष’ के लिए है, 130 करोड़ भारतवासियों के लिए है। आज इस आवाहन के प्रति भी नई जागृति आ रही है। आज दुनिया भारत को एक नए नजरिए से देख रही है, एक नए सम्मान से देख रही है। हमें इस बदलाव को भारत की आधुनिक पहचान, आधुनिक विज्ञान के शिखर तक लेकर जाना है। मुझे विश्वास है कि हम मिलकर ये लक्ष्य हासिल करेंगे। आज़ादी के 75 साल देश के एक नए भविष्य की शुरुआत का आधार बनेंगे। मैं फिर एक बार डॉक्टर साहब को, इस ट्रस्ट को चलाने वाले सभी महानुभावों को और इस काम को करने के लिये आपने जो मेहनत की उसके लिये मैं हृदय से बहुत-बहुत बधाई देता हूँ और मुझे विश्वास है कि इस किताब से जो लोग reference के रूप में किताब का उपयोग करने के आदि होते हैं, उनके लिये ये ग्रंथ बहुत अधिक काम आऐंगे क्योंकि हम जैसे लोग हैं उनको जरा ज्यादा जरूरत पड़ती है। तो इसमें reference के लिये सुविधा बहुत रहती है और इसके लिये भी मैं मानता हूँ कि एक अनमोल खजाना आपने दिया है और मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ शायद विश्व की ये पहली चिंतन धारा ऐसी है, ये विश्व का पहला ऐसा ग्रंथ है, विश्व का पहला ऐसा माध्यम है जो युद्ध की भूमि में रचा गया है, शंखनाद के बीच रचा गया है। जहां जय-पराजय दरवाजे पर दस्तक दे रहा था, उस समय कहा गया है। ऐसी प्रतिकूल वातावरण, अशांत वातावरण में, उसमें इतना शांत चित्त विचारधारा निकलना, ये इस अमृत प्रसार के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता है। ऐसा गीता का ज्ञान आने वाली पीढ़ियों को, वो जो भाषा में समझें, जिस रूप में समझें, उस रूप में देते रहना हर पीढ़ी का काम है। डॉक्टर कर्ण सिंह जी ने, उनके पूरे परिवार ने, उनकी महान परंपरा ने इस काम को हमेशा जीवित रखा है। आगे की भी पीढ़ियां जीवित रखेंगी, ये मुझे पूरा विश्वास है और डॉक्टर कर्ण सिंह जी की सेवाएं हम हमेशा याद रखेंगे। इस महान कार्य के लिये मैं आदरपूर्वक उनका नमन करता हूँ और वो आयु में इतने वरिष्ठ हैं, सार्वजनिक जीवन में इतने वरिष्ठ हैं कि उनका आर्शीवाद हम पर बना रहे ताकि हम भी इन आदर्शों को लेकर कुछ न कुछ देश के लिए करते रहें।
बहुत-बहुत धन्यवाद!