स्वतंत्रता के लिए हमेशा मुस्तैद रहना जरूरी 

प्रिय मित्रों, 

15 अगस्त 1947 के दिन संविधान सभा को संबोधित करते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने ये उद्गार व्यक्त किये थे : “मध्यरात्रि को, जब यह दुनिया निद्राधीन है, तब भारतभूमि जीवन और स्वतंत्रता के प्रति जागृत होगी।“ 

लेकिन, 25-26 जून, 1975 की मध्यरात्रि को जो घटना घटित हुई, वह इसके ठीक उलट थी। दुनिया जब नींद के पहलु में विश्राम कर रही थी, उस वक्त प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने तानाशाही रवैया अख्तियार करते हुए समग्र देश में आपातकाल का ऐलान कर दिया। अभिव्यक्ति की आजादी सहित लोकतंत्र के जिन आधारभूत सिद्घांतों की बुनियाद पर देश के निर्माताओं ने भारत का निर्माण किया था, वह मानों पल भर में ही बादलों की धुंध तले ढंक गया। विधि की वक्रता देखिये, इस काम को अंजाम देने वाली शख्सियत न सिर्फ पंडित नेहरू की पार्टी की सदस्य थीं, बल्कि वह उनके परिवार की भी सदस्य थी।

आपातकाल की घटना को आज 37 साल बीत चुके हैं, लेकिन उन दो वर्षों के दौरान जो बोध पाठ सीखने को मिला वह न केवल आज प्रासंगिक है, अपितु आने वाले बरसों तक प्रासंगिक रहेगा। 

आपातकाल कुछ और नहीं बल्कि सत्ता के नशे से उन्मत्त बनी संवेदनाहीन सरकार द्वारा देश की जनता पर किए गये हमले के समान था। जिस अवाम ने चुन कर उन्हें सत्ता के शीर्ष पर बैठाया था, उसी जनता की संवेदना की डोर से यह सरकार सर्वथा ही पृथक हो चुकी थी। गरीबी हटाओ का वादा कोरी कल्पना और क्रूर मजाक साबित हुआ। देश बेलगाम महंगाई की चक्की में पिस रहा था। जीवनोपयोगी वस्तुएं हासिल करने के लिए लगने वाली लंबी कतारों के नजारे और तमाम दुश्वारियों के बीच जीते परिवारों के दृश्य आम बन चुके थे। उच्च अधिकारी भ्रष्टाचार में डूबे हुए थे। 

दरअसल, 12 जून, 1975 के दिन देश के न्यायतंत्र ने एक फैसले के जरिए स्वयं प्रधानमंत्री के निर्वाचन पर रोक लगा दी थी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दी गई इस कड़वी दवा को सरकार पचा नहीं सकी। चुनावों में बुरी तरह हारने का भय भी सरकार को सता रहा था। लिहाजा, असहाय बनी सरकार ने जनमत को कुचलने के इरादे से आपातकाल लागू करने का सरल मार्ग अख्तियार किया। 

आपातकाल को भारतीय इतिहास के सबसे अंधकारमय काल में से एक के रूप में रेखांकित करना उचित कहलाएगा। विपक्ष के तमाम बड़े नेता, चाहे वे किसी भी राज्य के हों, को फौरन ही जेल में धकेल दिया गया। 

सामाजिक और स्वेदशाभिमानी संगठनों को भी बख्शा नहीं गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर भी प्रतिबंध लगाया गया। गिरफ्तार किये गए ज्यादातर लोग आरएसएस के स्वयंसेवक थे। आपातकाल के प्रतिरोध में आरएसएस ने जो भूमिका निभाई, वह देश भर की विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं वाले देशभक्तों के लिए आधारस्तंभ समान थी। इंदिरा गांधी को तो इस च्अस्थिरताज् के पीछे च्आरएसएस का हाथज् ही नजर आ रहा था। यही वजह थी कि, आरएसएस को इस अंधकारमय काल में किए गये दमन का सर्वाधिक आघात सहन करना पड़ा। 

आपातकाल का एक अन्य निर्दयी पहलू था सेंसरशिप। विपक्षी नेताओं के अलावा अखबार और मीडिया जगत को भी इस निरंकुश हुकूमत का खौफनाक चेहरा देखने को मिला। प्रेस की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया गया। कुछ भी छापने से पहले प्रेस को सरकार की पूर्वानुमति लेनी पड़ती थी। आपातकाल के दूसरे दिन इंडियन एक्सप्रेस का कोरा पन्ना भला कौन भूल सकता है? हालात इतने बदतर थे कि, लोकतांत्रिक राजनीति के पक्षधर कांग्रेसी नेताओं को भी नहीं छोड़ा गया। ऐसे नेताओं को पदच्युत कर उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया। स्थिति कुछ बन गई कि, जनविरोधी कांग्रेस सरकार का विरोध मानों भयंकर राष्ट्रीय अपराध हो। 

आपातकाल के दौरान भारत के बाशिंदों ने फिर से यह साबित कर दिया कि वे इस परिस्थिति को स्वीकार कर मुकदर्शक बने बैठे नहीं रह सकते। आपातकाल के ऐलान के साथ ही इसके विरोध में असंतोष का ज्वार उठने लगा। आगे चलकर इस विरोध ने आपातकाल के खिलाफ एक विराट अभियान का स्वरूप ले लिया, और स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र के मूल्यों पर कुठाराघात समान इस आपातकाल के खिलाफ जनाक्रोश का सैलाब उमड़ पड़ा। मुझे स्मरण है कि, गिरफ्तारी के भय को दरकिनार करते हुए हजारों लोगों ने हाथ से हाथ मिला कर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला था। आपातकाल के विरुद्घ इस जंग में समाज के सभी वर्गों ने भाग लिया और यह लड़ाई हर दृष्टिकोण से एक सच्चा जनअभियान साबित हुई। 

जुल्मी और एकचक्रीय शासन के विरोध में समूचे देश के युवा सामने आए, जो आपातकाल के खिलाफ इस आंदोलन का उल्लेखनीय पहलू रहा। 1942 के स्वतंत्रता आंदोलन की तरह ही एक बार फिर ऐसी स्थिति का निर्माण हुआ जिसमें सभी वरिष्ठ सामाजिक और राजनैतिक अग्रणियों को गिरफ्तार किया गया। ऐसे हालात में देश के युवा सामने आए और प्रचंड जोश, दूरदर्शिता, हिम्मत व प्रतिबद्घता के साथ उन्होंने आपातकाल का विरोध किया। 

श्री जयप्रकाश नारायण (जेपी) को याद किए बगैर आपातकाल संबंधी चर्चा अधूरी मानी जाएगी। जेपी समग्र देश में फैले इस आंदोलन के नायक थे। भावशून्य कांग्रेस सरकार यदि किसी एक शख्स से कांपती थी, तो वह जेपी ही थे। जेपी ने हमें एक नई दिशा दिखाई। यह एक ऐसा सितारा था, जिसमें समाज के वंचित लोगों का दु:ख दूर करने की क्षमता थी। उनके एक आह्वान ने समग्र देश को इस जंगलराज के खिलाफ संगठित कर दिया था। 

भारत की अवाम के सामूहिक सामथ्र्य की बदौलत अंतत: दो वर्ष से कुछ समय पहले शासकों को अपनी भूल का अहसास हुआ। 1977 में नये सिरे से चुनाव आयोजित हुए, और जिस इंदिरा गांधी को अब तक अजेय माना जाता था, उन्हें मतदाताओं ने पूरी तरह से नकार दिया। 

यह कहते हुए मुझे खुशी हो रही है कि आपातकाल के खिलाफ इस आंदोलन को गति देने में गुजरात ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। गुजरात की परिस्थिति का प्रतिबिंब समूचे देश में नजर आ रहा था। नवनिर्माण आंदोलन के जरिए विद्यार्थीजगत का सामथ्र्य उभर कर सामने आया और कांग्रेस के कवच में पड़ी दरार बेनकाब हो गई। 

मित्रों, मेरे नजरिये से आपातकाल के खिलाफ यह समग्र आंदोलन जनशक्ति का परिचायक था। इस जंग ने हमें लोकतंत्र का मूल्य समझाया। आपातकाल, ऐसे बहादुर लोगों की कहानी है जिन्होंने भारतमाता के लिए अपना समग्र जीवन अर्पित कर दिया। आज के दिन हम लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के मूल्यों के साथ खेलने वाली सरकार के खिलाफ जंग छेडऩे वाले उन सभी बहादुर भाई-बहनों को याद करें। 

आपातकाल से जुड़ी कई यादों को मैने मन में सहेज कर रखा है। मेरी पुस्तक ‘आपातकाल में गुजरात’ में मैने इन यादों का उल्लेख किया है। इस पुस्तक में ऐतिहासिक सन्दर्भ के अलावा इस जनअभियान के साथ जुड़े विभिन्न आयु तथा वर्ग के लोगों की एकता, स्वतंत्रता के मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्घता और शौर्यगाथाओं का निरुपण किया है। मुझे आशा है कि यह पुस्तक आपको पसन्द आएगी।

 

आपका

नरेन्द्र मोदी

 

Read 'Apatkalme Gujarat', Shri Narendra Modi's absorbing work on Gujarat during the dark Emergency days

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भारत के रतन का जाना...
November 09, 2024

आज श्री रतन टाटा जी के निधन को एक महीना हो रहा है। पिछले महीने आज के ही दिन जब मुझे उनके गुजरने की खबर मिली, तो मैं उस समय आसियान समिट के लिए निकलने की तैयारी में था। रतन टाटा जी के हमसे दूर चले जाने की वेदना अब भी मन में है। इस पीड़ा को भुला पाना आसान नहीं है। रतन टाटा जी के तौर पर भारत ने अपने एक महान सपूत को खो दिया है...एक अमूल्य रत्न को खो दिया है।

आज भी शहरों, कस्बों से लेकर गांवों तक, लोग उनकी कमी को गहराई से महसूस कर रहे हैं। हम सबका ये दुख साझा है। चाहे कोई उद्योगपति हो, उभरता हुआ उद्यमी हो या कोई प्रोफेशनल हो, हर किसी को उनके निधन से दुख हुआ है। पर्यावरण रक्षा से जुड़े लोग...समाज सेवा से जुड़े लोग भी उनके निधन से उतने ही दुखी हैं। और ये दुख हम सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में महसूस कर रहे हैं।

युवाओं के लिए, श्री रतन टाटा एक प्रेरणास्रोत थे। उनका जीवन, उनका व्यक्तित्व हमें याद दिलाता है कि कोई सपना ऐसा नहीं जिसे पूरा ना किया जा सके, कोई लक्ष्य ऐसा नहीं जिसे प्राप्त नहीं किया जा सके। रतन टाटा जी ने सबको सिखाया है कि विनम्र स्वभाव के साथ, दूसरों की मदद करते हुए भी सफलता पाई जा सकती है।

 रतन टाटा जी, भारतीय उद्यमशीलता की बेहतरीन परंपराओं के प्रतीक थे। वो विश्वसनीयता, उत्कृष्टता औऱ बेहतरीन सेवा जैसे मूल्यों के अडिग प्रतिनिधि थे। उनके नेतृत्व में, टाटा समूह दुनिया भर में सम्मान, ईमानदारी और विश्वसनीयता का प्रतीक बनकर नई ऊंचाइयों पर पहुंचा। इसके बावजूद, उन्होंने अपनी उपलब्धियों को पूरी विनम्रता और सहजता के साथ स्वीकार किया।

दूसरों के सपनों का खुलकर समर्थन करना, दूसरों के सपने पूरा करने में सहयोग करना, ये श्री रतन टाटा के सबसे शानदार गुणों में से एक था। हाल के वर्षों में, वो भारत के स्टार्टअप इकोसिस्टम का मार्गदर्शन करने और भविष्य की संभावनाओं से भरे उद्यमों में निवेश करने के लिए जाने गए। उन्होंने युवा आंत्रप्रेन्योर की आशाओं और आकांक्षाओं को समझा, साथ ही भारत के भविष्य को आकार देने की उनकी क्षमता को पहचाना।

भारत के युवाओं के प्रयासों का समर्थन करके, उन्होंने नए सपने देखने वाली नई पीढ़ी को जोखिम लेने और सीमाओं से परे जाने का हौसला दिया। उनके इस कदम ने भारत में इनोवेशन और आंत्रप्रेन्योरशिप की संस्कृति विकसित करने में बड़ी मदद की है। आने वाले दशकों में हम भारत पर इसका सकारात्मक प्रभाव जरूर देखेंगे।

रतन टाटा जी ने हमेशा बेहतरीन क्वालिटी के प्रॉडक्ट...बेहतरीन क्वालिटी की सर्विस पर जोर दिया और भारतीय उद्यमों को ग्लोबल बेंचमार्क स्थापित करने का रास्ता दिखाया। आज जब भारत 2047 तक विकसित होने के लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, तो हम ग्लोबल बेंचमार्क स्थापित करते हुए ही दुनिया में अपना परचम लहरा सकते हैं। मुझे आशा है कि उनका ये विजन हमारे देश की भावी पीढ़ियों को प्रेरित करेगा और भारत वर्ल्ड क्लास क्वालिटी के लिए अपनी पहचान मजबूत करेगा।

रतन टाटा जी की महानता बोर्डरूम या सहयोगियों की मदद करने तक ही सीमित नहीं थी। सभी जीव-जंतुओं के प्रति उनके मन में करुणा थी। जानवरों के प्रति उनका गहरा प्रेम जगजाहिर था और वे पशुओं के कल्याण पर केन्द्रित हर प्रयास को बढ़ावा देते थे। वो अक्सर अपने डॉग्स की तस्वीरें साझा करते थे, जो उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा थे। मुझे याद है, जब रतन टाटा जी को लोग आखिरी विदाई देने के लिए उमड़ रहे थे...तो उनका डॉग ‘गोवा’ भी वहां नम आंखों के साथ पहुंचा था।

रतन टाटा जी का जीवन इस बात की याद दिलाता है कि लीडरशिप का आकलन केवल उपलब्धियों से ही नहीं किया जाता है, बल्कि सबसे कमजोर लोगों की देखभाल करने की उसकी क्षमता से भी किया जाता है।

रतन टाटा जी ने हमेशा, नेशन फर्स्ट की भावना को सर्वोपरि रखा। 26/11 के आतंकवादी हमलों के बाद उनके द्वारा मुंबई के प्रतिष्ठित ताज होटल को पूरी तत्परता के साथ फिर से खोलना, इस राष्ट्र के एकजुट होकर उठ खड़े होने का प्रतीक था। उनके इस कदम ने बड़ा संदेश दिया कि – भारत रुकेगा नहीं...भारत निडर है और आतंकवाद के सामने झुकने से इनकार करता है।

व्यक्तिगत तौर पर, मुझे पिछले कुछ दशकों में उन्हें बेहद करीब से जानने का सौभाग्य मिला। हमने गुजरात में साथ मिलकर काम किया। वहां उनकी कंपनियों द्वारा बड़े पैमाने पर निवेश किया गया। इनमें कई ऐसी परियोजनाएं भी शामिल थीं, जिसे लेकर वे बेहद भावुक थे।

जब मैं केन्द्र सरकार में आया, तो हमारी घनिष्ठ बातचीत जारी रही और वो हमारे राष्ट्र-निर्माण के प्रयासों में एक प्रतिबद्ध भागीदार बने रहे। स्वच्छ भारत मिशन के प्रति श्री रतन टाटा का उत्साह विशेष रूप से मेरे दिल को छू गया था। वह इस जन आंदोलन के मुखर समर्थक थे। वह इस बात को समझते थे कि स्वच्छता और स्वस्थ आदतें भारत की प्रगति की दृष्टि से कितनी महत्वपूर्ण हैं। अक्टूबर की शुरुआत में स्वच्छ भारत मिशन की दसवीं वर्षगांठ के लिए उनका वीडियो संदेश मुझे अभी भी याद है। यह वीडियो संदेश एक तरह से उनकी अंतिम सार्वजनिक उपस्थितियों में से एक रहा है।

कैंसर के खिलाफ लड़ाई एक और ऐसा लक्ष्य था, जो उनके दिल के करीब था। मुझे दो साल पहले असम का वो कार्यक्रम याद आता है, जहां हमने संयुक्त रूप से राज्य में विभिन्न कैंसर अस्पतालों का उद्घाटन किया था। उस अवसर पर अपने संबोधन में, उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि वो अपने जीवन के आखिरी वर्षों को हेल्थ सेक्टर को समर्पित करना चाहते हैं। स्वास्थ्य सेवा एवं कैंसर संबंधी देखभाल को सुलभ और किफायती बनाने के उनके प्रयास इस बात के प्रमाण हैं कि वो बीमारियों से जूझ रहे लोगों के प्रति कितनी गहरी संवेदना रखते थे।

मैं रतन टाटा जी को एक विद्वान व्यक्ति के रूप में भी याद करता हूं - वह अक्सर मुझे विभिन्न मुद्दों पर लिखा करते थे, चाहे वह शासन से जुड़े मामले हों, किसी काम की सराहना करना हो या फिर चुनाव में जीत के बाद बधाई सन्देश भेजना हो।

अभी कुछ सप्ताह पहले, मैं स्पेन सरकार के राष्ट्रपति श्री पेड्रो सान्चेज के साथ वडोदरा में था और हमने संयुक्त रूप से एक विमान फैक्ट्री का उद्घाटन किया। इस फैक्ट्री में सी-295 विमान भारत में बनाए जाएंगे। श्री रतन टाटा ने ही इस पर काम शुरू किया था। उस समय मुझे श्री रतन टाटा की बहुत कमी महसूस हुई।

आज जब हम उन्हें याद कर रहे हैं, तो हमें उस समाज को भी याद रखना है जिसकी उन्होंने कल्पना की थी। जहां व्यापार, अच्छे कार्यों के लिए एक शक्ति के रूप में काम करे, जहां प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता को महत्व दिया जाए और जहां प्रगति का आकलन सभी के कल्याण और खुशी के आधार पर किया जाए। रतन टाटा जी आज भी उन जिंदगियों और सपनों में जीवित हैं, जिन्हें उन्होंने सहारा दिया और जिनके सपनों को साकार किया। भारत को एक बेहतर, सहृदय और उम्मीदों से भरी भूमि बनाने के लिए आने वाली पीढ़ियां उनकी सदैव आभारी रहेंगी।