सूरत, दि. १५ जुलाई, २०१२

भी आयोजक मित्रों, भाईयों तथा बहनों...

प सभी को लग रहा होगा कि हमें चिकोटी काटने वालों की संख्या क्या कम थी जो आप एक और नया लेकर आ गये? सुबह होते ही ताना मारने वाले कम थे जो एक नया जोड़ने आ गये? इतने पीटने वाले हैं वे क्या काफी नहीं है कि आप एक और लेकर आ गए हो? यह प्रश्र किसी के भी मन में उठ सकता है..! पर दोस्तों, यही लोकतंत्र की खूबसूरती है। स्वस्थ लोकतंत्र की यही ताकत है। अखबार मतलब आपको समझ ही लेना है कि सबसे ज्यादा यदि कोई इसका भोग बनता है तो वह हम बनते हैं, सबसे ज्यादा अगर हमले होते हैं तो हम पर होते हैं। और फिर भी इसके विकास के लिए, इसकी रक्षा के लिए हमें ही एक अटल योद्धा की तरह खड़े रहते हैं..! और यही लोकतंत्र की ताकत है।

ये मनोज भाई मिस्त्री, पहले थे मित्र, अब हो गए हैं गार्डियन। पहले वे ‘गुजरात मित्र’ थे, अब ‘गुजरात गार्डियन’ हो गए..! ऐसा चलता है क्या, थोड़ी स्पीड रखो, भाई..! पहले ये सरस्वती के साधक थे, अब लक्ष्मी के हो गए हैं। क्योंकि पहले संपादक थे, अब व्यापारी बन गए, एम.डी. हो गए..! इसलिए इनका यह अनुभव भी इसमें उपयोगी रहेगा। वे सूरत को अच्छी तरह से जानते हैं और सूरत उनको जानता है। इनका बराबर तालमेल है..! और जहाँ पर तालमेल हो, केमेस्ट्री बराबर मैच करती हो तो स्वाभाविक है कि वहाँ अखबार का उत्पादन नहीं होगा, बल्कि अखबार का सृजन होगा।

मित्रों, आज समाचार मिलना कोई मुश्किल काम नहीं रहा। चंद सेकेंड की बात है... दुनिया के किसी भी कोने में घटी कोई भी घटना को आप के घर तक पहुंचने में देर नहीं लगती है। एक समय था जब समाचार के लिए आदमी को टटोलना पड़ता था। दूर दराज तक समाचार जानना, लेना, पहुंचाना एक कठिन काम था। और समाचार की भूख इंसान में इतनी थी कि यदि उसने भजिये खरीदे हों और वह अखबार में बांध कर दिए गए हों, तो भजिये खाने के बाद वह कागज के उस टुकड़े में से समाचार को पढ़ने लगता था..! क्योंकि उसके पास कोई और स्रोत ही नहीं था, उसके पास जानकारी प्राप्त करने का यही एक माध्यम था। आज इन्फर्मेशन के हाइवेज़ हैं। जहाँ जितनी चाहिए उतनी जानकारी आपको पलभर में मिल सकती है। और ऐसे समय में विश्वसनीयता, क्रेडिबिलिटी यह एकमात्र शक्ति ऐसी है जो आपकी जगह बना सकती है। आदमी को विश्वास हो कि भाई, यहाँ पर तो विश्वस्त समाचार मिलेंगे ही। वह चाहे कितना ही घूमकर आया होगा, उसके पास अखबार के ढेर होंगे, सामने सैकड़ों चैनल होंगे, लेकिन जहाँ विश्वसनियता होगी, वह वहीं जाएगा। इसलिए एक प्रकार से, प्रसार माध्यमों के लिए यह एक बड़ी चुनौती खड़ी हुई है। दूसरी ओर स्पर्धा भी है। कौन जल्दी खबर देगा, कौन पहले खबर देगा इसकी स्पर्धा है। और फिर अगर कोई लेट हो जाए तो क्या करे, घड़ी का समय ही बदले दे। सबसे पहले समाचार देने वाले हम..! क्योंकि उस समय हमारी घड़ी में पौने ग्यारह बज रहे थे, उनकी घड़ी में ग्यारह बज रहे थे। इतना अधिक स्पर्धा का माहौल है। इस स्पर्धा के वातावरण में सुयोग्य बातों को लोगों तक पहुंचाई जाए।

मित्रों, इस देश के पूर्व राष्ट्रपति, श्री अब्दुल कलाम, एक बात निरंतर कहते थे, आज भी कहते हैं, जब-जब मौका मिला तो उन्होंने इस बारे में लिखा भी है। और मुझे याद है, जिन दिनों मैं दिल्ली में था, वे अखबारी आलम के लोगों को बुलाते थे, उनके साथ बैठक करते थे तथा उनसे अनुरोध करते थे कि वे विकास में भागीदार क्यों नहीं बनते। इतने बड़े अखबार में सकारात्मक खबरों के लिए कोई मूवमॅन्ट शुरू हो, नहीं तो अखबार पढ़ते ही, टीवी चालू करते ही... आप सुबह उठ कर टीवी चालू करें तो पन्द्रह ऍक्सीडेंट के सामाचार हों, लाशों तथा टूटी हुई गाडिय़ों की ही खबरें चल रही हों..! पोज़िटिव न्यूज़। और एक ऐसी एक मान्यता बन गई है कि सकारात्मक खबरें नहीं चलतीं, ऐसी जबरदस्त मान्यता है। लोगों को नकारात्मक खबरों में रस होता है। और इस कारण से नकारात्मक खबरों को लेकर स्पर्धा का एक वातावरण बन गया है। नकारात्मक खबरें ढूंढ़ने के लिए पत्रकारों को खासी मशक्कत करनी पड़ती है। ऐसी खबरें ढूंढ़ने के लिए पत्रकार को अपने रिसोर्स डेवलप करने पड़ते हैं और और इसके परिणामस्वरूप, एक विषचक्र हमेशा चलता रहता है। और तब अब्दुल कलाम लगातार कहते रहे हैं कि आओ, विकास की प्रक्रिया में भागीदार बनो। मित्रों, हमने कई बार देखा होगा, जो बात अखबार के मित्रों के गले नहीं उतरती है। यहाँ बैठे लोगों में सर्वे करवा लो। किसी जेबकतरे ने किसी की जेब काटी और पैसा चुरा कर भाग गया, ये समाचार हो और कोई रिक्शा में अपना पर्स भूल गया हो और रिक्शावाले ने उसे ढूंढ़ कर पर्स वापिस कर दिया हो, ये समाचार हो, तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जेबकतरे के समाचार के बदले रिक्शावाले के समाचार को ज्यादा लोग पढ़ते हैं, ज्यादा पसंद करते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि मन से लोग सकारात्मक खबरों की तलाश में होते हैं, कुछ अच्छा हुआ हो तो वे उसे जानने के लिए आतुर रहते हैं, शोर में से बाहर निकल कर सुरीले संगीत को सुनने के लिए उनके कान तड़पते रहते हैं। लेकिन हम अभी यह बात व्यापक रुप से पहुंचा नहीं सकते हैं, हम व्यापक रूप से स्वीकार नहीं कर सकते हैं और इसलिए हम लगातार कोलाहल भरे वातावरण में से ही गुजर रहे हैं।

 

मित्रों, लोकतंत्र में शासन व्यवस्थाओं को सही अर्थ में उनके कर्तव्य की ओर द्रढ़ता से चलने के लिए मजबूर करना चौथे स्तंभ का काम है। जनता की आवाज बुलंद तरीके से उठाना यह चौथे स्तंभ का काम है। पर इसके लिए काफी अभ्यास करना पड़ता है। अगर आलोचना न हो तो लोकतंत्र को जंग लग जाता है। जैसे एक तालाब का बंधा पानी गंदगी फैलाता है, उसी प्रकार यदि कोई टिप्पणी न हो, आलोचना न हो तो व्यवस्था में भी गंदगी आ जाती है। उसके शुद्धिकरण का काम अखबारों, चौथे स्तंभ द्वारा होने वाली आलोचनाओं से संभव हो सकता है। पर बदकिस्मती से, आप कई दिनों तक के अखबार देखें, टीवी चैनलों में देखें... आलोचना का निशान तक देखने को नहीं मिलता, टीका-टिप्पणी का नामोनिशान नहीं मिलता। देखने को मिलता है तो क्या..? आक्षेपों, अखबार भरे होते हैं आक्षेपों से, आरोपों से..! समय की मांग है कि उचित अध्ययन के बाद आलोचना हो। और एक बार ठोस तथ्यों के आधार पर आलोचना हो तो बड़े से बड़े शासकों की भी घुटने टेकने पड़ते हैं, मित्रों। पर ये मेहनत करे कौन..?

मित्रों, कहने को तो समाचार पत्र कहलाता है, परन्तु आज सही मायने में समाचार पत्र मिलना मुश्किल है। अधिकांश रूप से ‘समाचार पत्र’ भी ‘विचार पत्र’ बन गए होते हैं। समाचार पत्र पढ़ना भी एक कला है। जैसे सरकार का कोई बजट आता है तो खबर क्या होनी चाहिए? समाचार यह है कि ६००० करोड़ रूपये का बजट प्रस्तुत किया गया, यह समाचार है। पर छपता क्या है..? ‘मोदी सरकार का कमरतोड़ बजट’, यह हुए विचार पत्र। ये समाचार नहीं है, ये विचार है। संपादक के पास अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए, पूरा ‘एडीटर पेज’ होता है। संपादकीय लेख लिखने के लिए, एडिटोरियल्स लिखने के लिए, मूलभूत विचारों को रखने के लिए पूरा पेज होता है, जिसमें वे भरपूर मात्रा में लिख सकते हैं। पहले पेज के समाचार तथा संपादकीय पेज के लेखों के बीच पूरे १८० डिग्री का अंतर हो सकता है। कारण? संपादक अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। लेकिन सामाचार तो समाचार ही रहने चाहिए, लोगों पर छोड़ देना चाहिए और वे तय करें कि यह बजट कमरतोडऩे वाला है या विकासशील है, उन्हें तय करने दो..! किसी का एक्सीडेंट हो जाता है तो समाचार क्या बनता है, भाई कि २५ वर्ष का एक युवक कार के नीचे आ गया। पर ऐसा नहीं आता है, क्या आता है? एक ब्राह्मण कुल के, उच्च कुल की औलाद ने दलित लड़के को कुचल दिया। यह समाचार नहीं है, यह विचार है। और इसलिए मित्रों, अखबार पढऩा भी एक बहुत बड़ा कौशल का काम बन गया है। आप लोगों ने टीवी में देखा होगा कि शुरूआत में एक व्यक्ति का इन्टरव्यू हो तो उसमें उसने एक जवाब दिया होता है। पहले दो-तीन बार जिसका इन्टरव्यू होता है वो आता है, उसका जवाब आता है। धीरे-धीरे जिस नेता का इन्टरव्यू होता है वह नजर नहीं आता है और जो वाक्य कहा गया हो वह भी धीरे-धीरे घटता जाता है और वह जो ऐंकर ने बोला हो वही चलता रहता है, और फिर बाद में पूरा विवाद, २४ घंटे तक उस टीवी की जो इच्छा होती है, चैनल वाले की इच्छा होती है वह ऐंकर के आधार पर चलता रहता है। मूल वाक्य तो गायब ही हो जाता है, साहब..! आप कभी इंटरनेट पर उस नेता के मूल बयान क्या था यह खोजें तो वह विवाद से कोई मेल खाता नहीं दिखता..! और पूरा देश वह ऐंकर जिस तरफ खींच गया हो उस तरफ खींचा चला गया हो। मित्रों, मुझे पता है कि मेरा इस प्रकार का भाषण कितना बड़ा संकट खड़ा कर सकता है, मुझे पता है..! मेरे ऊपर कितने तेज हमले होने वाले हैं इसका भी मुझे आभास है। पर इसके पीछे मेरे दिल में किसी के प्रति कोई कटुता नहीं है, किसी की व्यक्तिगत आलोचना नहीं है। इस चौथे स्तंभ की श्रेष्ठ परंपरा के लिए खुलेपन की आवश्यकता है, खुले मन की आवश्यकता है। इसमें भी लोकतंत्र की अनिवार्यता पैदा हुई है। अगर इसमें ही आंतरिक लोकतंत्र नहीं है, अगर सामाजिक जीवन की जिस पर उम्मीद लगाए बैठा है उस पर भी जंग लग जाए, अगर संस्थाएं स्वयं कमजोर हो जाएं तो...?

मित्रों, हिंदुस्तान आजाद हुआ, लोकतंत्र के मूल्यों का एक अंकित मूल्य था अखबारी स्वतंत्रता का। लेकिन १९७५ में इस देश पर इमर्जन्सी थोप दी गई, भारत के, दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया गया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी भाई देसाई सहित इस देश के नेताओं को जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे देशभक्त संगठनों पर प्रतिबंध लगा कर उस पर ताले लगा दिए गए। पर बात वहाँ पर रूकी नहीं, हिंदुस्तान के अखबारी आलम का गला घोंट दिया गया, अखबारों पर सेंसरशिप लागू हो गई और जो अखबार आज मुझ पर भी दिन-रात आसानी से हमले कर पाते हैं, वे सारे अखबार, रेडियो को गरीब गाय जैसे बेचारे बना दिये थे। ये अखबार वाले साष्टांग प्रणाम करते थे, इंदिराजी ने ऐसी दशा कर दी थी..! इतना जुल्म शासकों ने किया, लोकतंत्र का गला घोंट दिया था। और १९ महीनों तक एक-दो गिने चुने लोगों को छोड़ कर किसी की चूं-चें करने तक की हिम्मत नहीं थी, मित्रों। और उस वक्त पता चला कि हिंदुस्तान के लोकतंत्र के इस महत्वपूर्ण पहलू की दशा क्या है। आज भी इसे मजबूत करने की आवश्यकता है। इस चौथे स्तंभ को आज भी और समृद्ध करने की आवश्यकता है।

मित्रों, महात्मा गांधी भी अपना अखबार निकालते थे और उसमें उनका गुजराती में लिखा गया अग्रलेख लंदन की संसद को चर्चा करने पर मजबूर कर देता था। हिंदुस्तान के मन को समझने के लिए महात्मा गांधी के संपादकीय के आधार पर ब्रिटिश सल्तनत अपनी व्यूहरचना तैयार करती थी। मित्रों, इस सूरत की धरती पर वीर नर्मद का ‘दांडीयो’... मित्रों, समाज जीवन में चेतना जगाने वाला ‘दांडीयो’ आज भी परंपरा बन कर नई प्रेरणा दे रहा है। मित्रों, जब सुभाष बाबू आजाद हिंद फौज की रचना करने के बाद, हिंदुस्तान छोड़कर अंग्रेजों को उनकी ही भाषा में जवाब देने की योजना बना रहे थे, तब पूरी दुनिया को पहली बार उस जानकारी देने का काम एक गुजराती अखबार के पत्रकार अमृतलाल शेठ ने किया था, सिंगापुर जाकर जानकारी लाए और पूरी दुनिया को दी। अखबार जगत के इतिहास में सबसे पहले गुजराती अखबार निकला था। इतनी महान विरासत है हमारी..! इस उत्तम विरासत का कितना महा मूल्य है, मित्रों। आज भी भगवती प्रसाद शर्मा का संपादकीय लेख पढ़ने वाले लोग केवल सूरत में ही नहीं, बल्कि गुजरात के कोने-कोने में देखने को मिलेंगे। ऐसा प्रतिष्ठित जीवन, जिन्होंने फकीरी वाला जीवन जीते हुए पत्रकारिता को उजागर करने की कोशिश की है। ऐसे सभी लोग वंदन के अधिकारी हैं, अभिनंदन के अधिकारी हैं। उन्होंने सही अर्थों में समाज जीवन की चिंता की, और किसी की परवाह नहीं की। कैसा भी शक्तिशाली मुख्यमंत्री क्यों न हो, उनसे सीधा सीधा जवाब मांगे ऐसे पत्रकार आज भी मौजूद हैं और वे समाज जीवन की पूंजी है।

मुझे याद है कि एक बार लंदन में एक अखबार के लोकापर्ण के लिए जाने का मुझे अवसर मिला था। मैंने मेरे भाषण में एक बात कही थी और उसकी आधी बात कुछ लोगों ने ली और आधी पर अंधकार फिरा दिया। और उस पर कलकत्ता के एक अखबार ने तीन संपादकीय लेख लिख दिये कि मोदी ऐसा बोल ही कैसे सकता है..! कलकत्ता के अखबार में तीन संपादकीय लेख... नरेन्द्र मोदी जैसा गुजरात का एक सामान्य आदमी का एक वाक्य, जिसे योजनापूर्वक जैसे ठीक लगा वैसे, आधा उठाया और आधा छोड़ दिया। आज मुझे लगता है कि वह वाक्य मुझे आपको बताना चाहिए। उसे कहने के बाद भी मुझ पर कोई हमला नहीं होगा इसकी कोई गांरटी नहीं है। मैंने यह कहा था कि पत्रकारिता मक्खी की तरह होनी चाहिए कि मधुमक्खी की तरह होनी चाहिए..? ऐसा प्रश्र मैंने उठाया था। जिन लोगों को मेरी आलोचना करनी थी उन्होंने क्या किया कि मोदी का गंभीर आरोप, मोदी ने पत्रकारत्व को मक्खी कहा... बाकी का पूरा हटा ही दिया। उस दिन मैंने भाषण में कहा था कि मक्खी का स्वाभाव होता है गंदगी पर बैठना, दुर्गंध उठाना और बदबू फैलाना। वह गंदगी ही उठाती है और दुर्गंध को लेकर ही हर जगह घूमती रहती है। मधुमक्खी का स्वाभाव कैसा होता है? फूल के ऊपर बैठती है और सुगंध फैलाती है। मक्खी खास कोई नुकसान नहीं कर सकती सिवाय के बदबू के कारण आपको सांस लेने में थोड़ी तकलीफ हो, लेकिन मधुमक्खी अगर आपको डंक मारती है तो तीन दिनों तक आप किसी को अपना चेहरा नहीं दिखा सकते..! मैंने कहा था कि पत्रकारिता मधुमक्खी की तरह होनी चाहिए जो मधु फैलाए, शुभ फैलाए, सुवास फैलाए पर यदि कुछ गलत हो रहा हो तो नाक के ऊपर ऐसा डंक मारे कि वह तीन दिनों तक रूमाल से अपना मुंह ढांक कर घूमता रहे..! लेकिन मेरा दूसरा भाग प्रकट ही नहीं हुआ, पहले भाग पर ही मेरी धुलाई हो गई..! और स्टेट्समैन जैसा अखबार, उसने संपादकीय प्रकाशित किए..! आज आपको समझ में आया होगा कि मेरा भाव क्या था..! और मित्रों, इंसान पर शर्म नाम की चीज़ हमेशा काम करती है। पत्रकारिता अगर मधुमक्खी की तरह हो और जैसे ही डंक मारे तो तीन दिनों तक वह किसी को मुंह न दिखाए साहब, वो डरता ही रहे कि लोगों को पता चल गया है, ठहरो, सावधान रहो..! और तभी शुद्धि का वातावरण बनता है और उस शुद्धता के वातावरण की दिशा में प्रयाण करना जरूरी है।

मित्रों, बदकिस्मती से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ यानी मीडिया, प्रचार-प्रसार माध्यम, जिसको स्वतंत्रता होती है, जिसकी खुमारी होती है। परन्तु यदि कोई न्यूज़ ट्रेडर ये मानता है कि वे इस फिल्ड में आये हैं इसलिए उन्हें भी वे लाभ मिल जाए, तो नहीं मिलता है, मित्रों। मीडिया अलग चीज़ है, न्यूज़ ट्रेडर अलग चीज़ है। लोकतंत्र के हित में समाज जीवन में यह शिक्षा जरूरी है कि लोग मीडिया क्या है, चौथा स्तंभ किसे कहते हैं और न्यूज़ ट्रेडरों की जमात किसको कहते हैं उसे पहचान सके। न्यूज ट्रेडरों समाज जीवन के लिए संकट हैं, मित्रों। जैसे मज़ेदार, मसालेदार, मुंह में पानी लाने वाली चीज़, स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं हो तो भी चटपटी चीज़ें खाने का मन करता है, और धीरे-धीरे चटपटी, मसालेदार चीज़ें बेचनेवाला आपकी आदतें बिगाड़ देता है, वैसे ही यह न्यूज़ ट्रेडर भी आपको ऐसी चटपटी चीज़ें पढ़ने की आदत डाल देते हैं। केवल मीडिया ही है जो आपको चटपटी, मसालेदार आदतों से बचाकर शुद्ध, सात्विक, लोकतंत्र के हित में, समाज के हित में खबरें परोसता है और इसमें से एक नई ताकत जन्म लेती है।

भाईयों और बहनों, गुजरात की पत्रकारिता की दुनिया में एक नया नाम जोड़ा जा रहा है, गुजरात गार्डियन का। सिंह गर्जना के साथ आ रहा है। मुझे विश्वास है कि समाज की शुद्धता के काम मे एक उत्तम सेवा यह अखबार करेगा ऐसी हम आशा रखें और इसका व्याप, जितने भी अखबार बढ़ें, जितनी टीवी चैनलें बढ़ें, बढ़ने दो... आम आदमी की उसमें से सत्य को ढूंढ़ने की ताकत बढ़ती जाएगी। आज के इस शुभ अवसर पर जीवणभाई और उनके परिवार को, उनके इस साहस को अनेकोनेक शुभकामनाएं देता हूँ। मैं अपने बारे में तो नि:संकोच कहता हूँ कि किसी भी प्रकार की आलोचना करने में संकोच मत करना, भले ही उद्धाटन मैंने किया हो, १६ तारीख के पहले ही अंक में यदि मेरी चमड़ी उधेड़ दोगे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी..! लोकतंत्र का यही तो मजा है, दोस्तों। मैं आपको निमंत्रण देता हूँ कि आओ और समाज के शुद्धिकरण के लिए अपनी पूरी शक्ति के साथ जुड़ जाओ। फिर एक बार, बहुत बहुत शुभकामनाएं।

य जय गरवी गुजरात..!!

 

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मेरे प्यारे देशवासियो, नमस्कार | 'मन की बात', यानि देश के सामूहिक प्रयासों की बात, देश की उपलब्धियों की बात, जन-जन के सामर्थ्य की बात, ‘मन की बात' यानि देश के युवा सपनों, देश के नागरिकों की आकांक्षाओं की बात | मैं पूरे महीने, 'मन की बात' का इंतजार करता रहता हूँ, ताकि, आपसे सीधा संवाद कर सकूँ । कितने ही सारे संदेश, कितने ही messages ! मेरा पूरा प्रयास रहता है कि ज्यादा- से-ज्यादा संदेश को पढूँ, आपके सुझावों पर मंथन करूँ ।

साथियो, आज बड़ा ही खास दिन है - आज NCC दिवस है | NCC का नाम सामने आते ही हमें स्कूल-कॉलेज के दिन याद आ जाते हैं | मैं स्वयं भी NCC Cadet रहा हूँ, इसलिए, पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इससे मिला अनुभव मेरे लिए अनमोल है | 'NCC' युवाओं में अनुशासन, नेतृत्व और सेवा की भावना पैदा करती है । आपने अपने आस-पास देखा होगा, जब भी कहीं कोई आपदा होती है, चाहे बाढ़ की स्थिति हो, कहीं भूकंप आया हो, कोई हादसा हुआ हो, वहाँ, मदद करने के लिए NCC के cadets जरूर मौजूद हो जाते हैं । आज देश में NCC को मजबूत करने के लिए लगातार काम हो रहा है । 2014 में करीब 14 लाख युवा NCC से जुड़े थे | अब 2024 में, 20 लाख से ज्यादा युवा NCC से जुड़े हैं | पहले के मुकाबले पाँच हजार और नए स्कूल-कॉलेजों में अब NCC की सुविधा हो गई है, और सबसे बड़ी बात, पहले NCC में girls cadets की संख्या करीब 25% (percent) के आस-पास ही होती थी | अब NCC में girls cadets की संख्या करीब-करीब 40% (percent) हो गई है | बॉर्डर किनारे रहने वाले युवाओं को ज्यादा से ज्यादा NCC से जोड़ने का अभियान भी लगातार जारी है । मैं युवाओं से आग्रह करूंगा कि ज्यादा से ज्यादा संख्या में NCC से जुड़ें | आप देखिएगा आप किसी भी career में जाएं, NCC से आपके व्यक्तित्व निर्माण में बड़ी मदद मिलेगी |

साथियो, विकसित भारत के निर्माण में युवाओं का रोल बहुत बड़ा है | युवा मन जब एकजुट होकर देश की आगे की यात्रा के लिए मंथन करते हैं, चिंतन करते हैं, तो निश्चित रूप से इसके ठोस रास्ते निकलते हैं । आप जानते हैं 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जी की जयंती पर देश 'युवा दिवस' मनाता है । अगले साल स्वामी विवेकानंद जी की 162वीं जयंती है | इस बार इसे बहुत खास तरीके से मनाया जाएगा | इस अवसर पर 11-12 जनवरी को दिल्ली के भारत मंडपम में युवा विचारों का महाकुंभ होने जा रहा है, और इस पहल का नाम है 'विकसित भारत Young Leaders Dialogue’ | भारत-भर से करोड़ों युवा इसमें भाग लेंगे | गाँव, block, जिले, राज्य और वहाँ से निकलकर चुने हुए ऐसे दो हजार युवा भारत मंडपम में 'विकसित भारत Young Leaders Dialogue' के लिए जुटेंगे | आपको याद होगा, मैंने लाल किले की प्राचीर से ऐसे युवाओं से राजनीति में आने का आहवान किया है, जिनके परिवार का कोई भी व्यक्ति और पूरे परिवार का political background नहीं है, ऐसे एक लाख युवाओं को, नए युवाओं को, राजनीति से जोड़ने के लिए देश में कई तरह के विशेष अभियान चलेंगे | ‘विकसित भारत Young Leaders Dialogue' भी ऐसा ही एक प्रयास है । इसमें देश और विदेश से experts आएंगे | अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय हस्तियाँ भी रहेंगी | मैं भी इसमें ज्यादा-से-ज्यादा समय उपस्थित रहूँगा | युवाओं को सीधे हमारे सामने अपने ideas को रखने का अवसर मिलेगा | देश इन ideas को कैसे आगे लेकर जा सकता है? कैसे एक ठोस roadmap बन सकता है? इसका एक blueprint तैयार किया जाएगा, तो आप भी तैयार हो जाइए, जो भारत के भविष्य का निर्माण करने वाले हैं, जो देश की भावी पीढ़ी हैं, उनके लिए ये बहुत बड़ा मौका आ रहा है | आइए, मिलकर देश बनाएं, देश को विकसित बनाएं ।

मेरे प्यारे देशवासियों, ‘मन की बात’ में, हम अक्सर ऐसे युवाओं की चर्चा करते हैं | जो निस्वार्थ भाव से समाज के लिए काम कर रहे हैं ऐसे कितने ही युवा हैं जो लोगों की छोटी-छोटी समस्याओं का समाधान निकालने में जुटे हैं | हम अपने आस-पास देखें तो कितने ही लोग दिख जाते है, जिन्हें, किसी ना किसी तरह की मदद चाहिए,कोई जानकारी चाहिए I मुझे ये जानकर अच्छा लगा कुछ युवाओं ने समूह बनाकर इस तरह की बात को भी address किया है जैसे लखनऊ के रहने वाले वीरेंद्र हैं, वो बुजुर्गों को Digital life certificate के काम में मदद करते हैं I आप जानते हैं कि नियमों के मुताबिक सभी Pensioners को साल में एक बार Life Certificate जमा कराना होता है I 2014 तक इसकी प्रक्रिया यह थी इसे बैंकों में जाकर बुजुर्ग को खुद जमा करना पड़ता था आप कल्पना कर सकते हैं कि इससे हमारे बुजुर्गों को कितनी असुविधा होती थी I अब ये व्यवस्था बदल चुकी है I अब Digital Life Certificate देने से चीजें बहुत ही सरल हो गई हैं, बुजुर्गों को बैंक नहीं जाना पड़ता I बुजुर्गों को Technology की वजह से कोई दिक्कत ना आए, इसमें, वीरेंद्र जैसे युवाओं की बड़ी भूमिका है I वो, अपने क्षेत्र के बुजुर्गों को इसके बारे में जागरूक करते रहते हैं I इतना ही नहीं वो बुजुर्गों को tech savvy भी बना रहे हैं ऐसे ही प्रयासों से आज Digital Life certificate पाने वालों की संख्या 80 लाख के आँकड़े को पार कर गई है I इनमें से दो लाख से ज्यादा ऐसे बुजुर्ग हैं, जिनकी आयु 80 के भी पार हो गई है I

साथियो, कई शहरों में ‘युवा’ बुजुर्गों को Digital क्रांति में भागीदार बनाने के लिए भी आगे आ रहे हैं I भोपाल के महेश ने अपने मोहल्ले के कई बुजुर्गों को Mobile के माध्यम से Payment करना सिखाया है I इन बुजुर्गों के पास smart phone तो था, लेकिन, उसका सही उपयोग बताने वाला कोई नहीं था I बुजुर्गों को Digital arrest के खतरे से बचाने के लिए भी युवा आगे आए हैं I अहमदाबाद के राजीव, लोगों को Digital Arrest के खतरे से आगाह करते हैं I मैंने ‘मन की बात’ के पिछले episode में Digital Arrest की चर्चा की थी I इस तरह के अपराध के सबसे ज्यादा शिकार बुजुर्ग ही बनते हैं I ऐसे में हमारा दायित्व है कि हम उन्हें जागरूक बनाएं और cyber fraud से बचने में मदद करें I हमें बार-बार लोगों को समझाना होगा कि Digital Arrest नाम का सरकार में कोई भी प्रावधान नहीं है - ये सरासर झूठ, लोगों को फ़साने का एक षड्यन्त्र है मुझे खुशी है कि हमारे युवा साथी इस काम में पूरी संवेदनशीलता से हिस्सा ले रहे हैं और दूसरों को भी प्रेरित कर रहे हैं I

मेरे प्यारे देशवासियो, आजकल बच्चों की पढ़ाई को लेकर कई तरह के प्रयोग हो रहे हैं | कोशिश यही है कि हमारे बच्चों में creativity और बढ़े, किताबों के लिए उनमें प्रेम और बढ़े - कहते भी हैं ‘किताबें’ इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं, और अब इस दोस्ती को मजबूत करने के लिए, Library से ज्यादा अच्छी जगह और क्या होगी | मैं चेन्नई का एक उदाहरण आपसे share करना चाहता हूं | यहां बच्चों के लिए एक ऐसी library तैयार की गई है, जो, creativity और learning का Hub बन चुकी है | इसे प्रकृत् अरिवगम् के नाम से जाना जाता है | इस library का idea, technology की दुनिया से जुड़े श्रीराम गोपालन जी की देन है | विदेश में अपने काम के दौरान वे latest technology की दुनिया से जुड़े रहे | लेकिन, वो, बच्चों में पढ़ने और सीखने की आदत विकसित करने के बारे में भी सोचते रहे | भारत लौटकर उन्होंने प्रकृत् अरिवगम् को तैयार किया | इसमें तीन हजार से अधिक किताबें हैं, जिन्हें पढ़ने के लिए बच्चों में होड़ लगी रहती है | किताबों के अलावा इस library में होने वाली कई तरह की activities भी बच्चों को लुभाती हैं | Story Telling session हो, Art Workshops हो, Memory Training Classes, Robotics Lesson या फिर Public Speaking, यहां, हर किसी के लिए कुछ-न-कुछ जरूर है, जो उन्हें पसंद आता है |

साथियो, हैदराबाद में ‘Food for Thought’ Foundation ने भी कई शानदार libraries बनाई हैं | इनका भी प्रयास यही है कि बच्चों को ज्यादा-से-ज्यादा विषयों पर ठोस जानकारी के साथ पढ़ने के लिए किताबें मिलें | बिहार में गोपालगंज के ‘Prayog Library’ की चर्चा तो आसपास के कई शहरों में होने लगी है | इस library से करीब 12 गांवों के युवाओं को किताबें पढ़ने की सुविधा मिलने लगी है, साथ ही ये, library पढ़ाई में मदद करने वाली दूसरी जरूरी सुविधाएँ भी उपलब्ध करा रही है | कुछ libraries तो ऐसी हैं, जो, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में students के बहुत काम आ रही हैं | ये देखना वाकई बहुत सुखद है कि समाज को सशक्त बनाने में आज library का बेहतरीन उपयोग हो रहा है | आप भी किताबों से दोस्ती बढ़ाइए, और देखिए, कैसे आपके जीवन में बदलाव आता है |

मेरे प्यारे देशवासियो, परसों रात ही मैं दक्षिण अमेरिका के देश गयाना से लौटा हूं | भारत से हजारों किलोमीटर दूर, गयाना में भी, एक ‘Mini भारत’ बसता है | आज से लगभग 180 वर्ष पहले, गयाना में भारत के लोगों को, खेतों में मजदूरी के लिए, दूसरे कामों के लिए, ले जाया गया था | आज गयाना में भारतीय मूल के लोग राजनीति, व्यापार, शिक्षा और संस्कृति के हर क्षेत्र में गयाना का नेतृत्व कर रहे हैं | गयाना के राष्ट्रपति डॉ. इरफान अली भी भारतीय मूल के हैं, जो, अपनी भारतीय विरासत पर गर्व करते हैं | जब मैं गयाना में था, तभी, मेरे मन में एक विचार आया था - जो मैं ‘मन की बात’ में आपसे share कर रहा हूं | गयाना की तरह ही दुनिया के दर्जनों देशों में लाखों की संख्या में भारतीय हैं | दशकों पहले की 200-300 साल पहले की उनके पूर्वजों की अपनी कहानियां हैं | क्या आप ऐसी कहानियों को खोज सकते हैं कि किस तरह भारतीय प्रवासियों ने अलग-अलग देशों में अपनी पहचान बनाई! कैसे उन्होंने वहाँ की आजादी की लड़ाई के अंदर हिस्सा लिया! कैसे उन्होंने अपनी भारतीय विरासत को जीवित रखा? मैं चाहता हूं कि आप ऐसी सच्ची कहानियों को खोजें, और मेरे साथ share करें | आप इन कहानियों को NaMo App पर या MyGov पर #IndianDiasporaStories के साथ भी share कर सकते हैं |

साथियो, आपको ओमान में चल रहा एक extraordinary project भी बहुत दिलचस्प लगेगा | अनेकों भारतीय परिवार कई शताब्दियों से ओमान में रह रहे हैं | इनमें से ज्यादातर गुजरात के कच्छ से जाकर बसे हैं | इन लोगों ने व्यापार के महत्वपूर्ण link तैयार किए थे | आज भी उनके पास ओमानी नागरिकता है, लेकिन भारतीयता उनकी रग-रग में बसी है | ओमान में भारतीय दूतावास और National Archives of India के सहयोग से एक team ने इन परिवारों की history को preserve करने का काम शुरू किया है | इस अभियान के तहत अब तक हजारों documents जुटाए जा चुके हैं | इनमें diary, account book, ledgers, letters और telegram शामिल हैं | इनमें से कुछ दस्तावेज तो सन् 1838 के भी हैं | ये दस्तावेज, भावनाओं से भरे हुए हैं | बरसों पहले जब वो ओमान पहुंचे, तो उन्होंने किस प्रकार का जीवन जिया, किस तरह के सुख-दुख का सामना किया, और, ओमान के लोगों के साथ उनके संबंध कैसे आगे बढ़े - ये सब कुछ इन दस्तावेजों का हिस्सा है | ‘Oral History Project’ ये भी इस mission का एक महत्वपूर्ण आधार है | इस mission में वहां के वरिष्ठ लोगों ने अपने अनुभव साझा किए हैं | लोगों ने वहाँ अपने रहन-सहन से जुड़ी बातों को विस्तार से बताया है |

साथियो ऐसा ही एक ‘Oral History Project’ भारत में भी हो रहा है | इस project के तहत इतिहास प्रेमी देश के विभाजन के कालखंड में पीड़ितों के अनुभवों का संग्रह कर रहें हैं | अब देश में ऐसे लोगों की संख्या कम ही बची है, जिन्होंने, विभाजन की विभीषिका को देखा है | ऐसे में यह प्रयास और ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है |

साथियो, जो देश, जो स्थान, अपने इतिहास को संजोकर रखता है, उसका भविष्य भी सुरक्षित रहता है | इसी सोच के साथ एक प्रयास हुआ है जिसमें गांवों के इतिहास को संजोने वाली एक Directory बनाई है | समुद्री यात्रा के भारत के पुरातन सामर्थ्य से जुड़े साक्ष्यों को सहेजने का भी अभियान देश में चल रहा है | इसी कड़ी में, लोथल में, एक बहुत बड़ा Museum भी बनाया जा रहा है, इसके अलावा, आपके संज्ञान में कोई manuscript हो, कोई ऐतिहासिक दस्तावेज हो, कोई हस्तलिखित प्रति हो तो उसे भी आप, National Archives of India की मदद से सहेज सकते हैं |

साथियो, मुझे Slovakia में हो रहे ऐसे ही एक और प्रयास के बारे में पता चला है जो हमारी संस्कृति को संरक्षित करने और उसे आगे बढ़ाने से जुड़ा है | यहां पहली बार Slovak language में हमारे उपनिषदों का अनुवाद किया गया है | इन प्रयासों से भारतीय संस्कृति के वैश्विक प्रभाव का भी पता चलता है | हम सभी के लिए ये गर्व की बात है कि दुनिया-भर में ऐसे करोड़ों लोग हैं, जिनके हृदय में, भारत बसता है |

मेरे प्यारे देशवासियो, अब मैं आपसे देश की एक ऐसी उपलब्धि साझा करना चाहता हूं जिसे सुनकर आपको खुशी भी होगी और गौरव भी होगा, और अगर आपने नहीं किया है, तो शायद पछतावा भी होगा | कुछ महीने पहले हमने ‘एक पेड़ मां के नाम’ अभियान शुरू किया था | इस अभियान में देश-भर के लोगों ने बहुत उत्साह से हिस्सा लिया | मुझे ये बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि इस अभियान ने सौ करोड़ पेड़ लगाने का अहम पड़ाव पार कर लिया है | सौ करोड़ पेड़, वो भी, सिर्फ पाँच महीनों में - ये हमारे देशवासियों के अथक प्रयासों से ही संभव हुआ है | इससे जुड़ी एक और बात जानकर आपको गर्व होगा | ‘एक पेड़ मां के नाम’ अभियान अब दुनिया के दूसरे देशों में भी फैल रहा है | जब मैं गयाना में था, तो वहां भी, इस अभियान का साक्षी बना | वहां मेरे साथ गयाना के राष्ट्रपति डॉ. इरफान अली, उनकी पत्नी की माता जी, और परिवार के बाकी सदस्य, ‘एक पेड़ मां के नाम’ अभियान में शामिल हुए |

साथियो, देश के अलग-अलग हिस्सों में ये अभियान लगातार चल रहा है | मध्य प्रदेश के इंदौर में ‘एक पेड़ मां के नाम’ अभियान के तहत, पेड़ लगाने का record बना है - यहां 24 घंटे में 12 लाख से ज्यादा पेड़ लगाए गए | इस अभियान की वजह से इंदौर की Revati Hills के बंजर इलाके, अब, green zone में बदल जाएंगे | राजस्थान के जैसलमेर में इस अभियान के द्वारा एक अनोखा record बना - यहां महिलाओं की एक टीम ने एक घंटे में 25 हजार पेड़ लगाए | माताओं ने मां के नाम पेड़ लगाया और दूसरों को भी प्रेरित किया। यहां एक ही जगह पर पाँच हज़ार से ज़्यादा लोगों ने मिलकर पेड़ लगाए - ये भी अपने आप में एक रिकॉर्ड है । ‘एक पेड़ माँ के नाम’ अभियान के तहत कई सामाजिक संस्थाएँ स्थानीय जरूरतों के हिसाब से पेड़ लगा रही हैं । उनका प्रयास है कि जहां पेड़ लगाए जाएँ वहाँ पर्यावरण के अनुकूल पूरा Eco System Develop हो । इसलिए ये संस्थाएँ कहीं औषधीय पौधे लगा रहीं हैं, तो कहीं, चिड़ियों का बसेरा बनाने के लिए पेड़ लगा रहीं हैं । बिहार में ‘JEEViKA Self Help Group’ की महिलाओं ने 75 लाख पेड़ लगाने का अभियान चला रहीं हैं । इन महिलाओं का focus फल वाले पेड़ों पर है, जिससे आने वाले समय में आय भी की जा सके ।

साथियो, इस अभियान से जुड़कर कोई भी व्यक्ति अपनी माँ के नाम पर पेड़ लगा सकता है । अगर माँ साथ है तो उन्हें साथ लेकर आप पेड़ लगा सकते हैं, नहीं तो उनकी तस्वीर साथ में लेकर आप इस अभियान का हिस्सा बन सकते हैं । पेड़ के साथ आप अपनी Selfie भी mygov.in पर पोस्ट कर सकते हैं । माँ, हम सबके लिए जो करती है हम उनका ऋण कभी नहीं चुका सकते, लेकिन, एक पेड़ माँ के नाम लगाकर हम उनकी उपस्थिति को हमेशा के लिए जीवंत बना सकते हैं ।

मेरे प्यारे देशवासियो, आप सभी लोगों ने बचपन में गौरेया या Sparrow को अपने घर की छत पर, पेड़ों पर चहकते हुए ज़रूर देखा होगा । गौरेया को तमिल और मलयालम में कुरुवी, तेलुगु में पिच्चुका और कन्नड़ा में गुब्बी के नाम से जाना जाता है । हर भाषा, संस्कृति में, गौरेया को लेकर किस्से-कहानी सुनाए जाते हैं । हमारे आसपास Biodiversity को बनाए रखने में गौरेया का एक बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है, लेकिन, आज शहरों में बड़ी मुश्किल से गौरेया दिखती है । बढ़ते शहरीकरण की वजह से गौरेया हमसे दूर चली गई है । आज की पीढ़ी के ऐसे बहुत से बच्चे हैं, जिन्होंने गौरेया को सिर्फ तस्वीरों या वीडियो में देखा है । ऐसे बच्चों के जीवन में इस प्यारी पक्षी की वापसी के लिए कुछ अनोखे प्रयास हो रहे हैं । चेन्नई के कूडुगल ट्रस्ट ने गौरेया की आबादी बढ़ाने के लिए स्कूल के बच्चों को अपने अभियान में शामिल किया है । संस्थान के लोग स्कूलों में जाकर बच्चों को बताते हैं कि गौरेया रोज़मर्रा के जीवन में कितनी महत्वपूर्ण है । ये संस्थान बच्चों को गौरेया का घोंसला बनाने की training देते है । इसके लिए संस्थान के लोगों ने बच्चों को लकड़ी का एक छोटा सा घर बनाना सिखाया । इसमें गौरेया के रहने, खाने का इंतजाम किया । ये ऐसे घर होते हैं जिन्हें किसी भी इमारत की बाहरी दीवार पर या पेड़ पर लगाया जा सकता है । बच्चों ने इस अभियान में उत्साह के साथ हिस्सा लिया और गौरेया के लिए बड़ी संख्या में घोंसला बनाना शुरू कर दिया । पिछले चार वर्षों में संस्था ने गौरेया के लिए ऐसे दस हज़ार घोंसले तैयार किए हैं । कूडुगल ट्रस्ट की इस पहल से आसपास के इलाकों में गौरेया की आबादी बढ़नी शुरू हो गई है। आप भी अपने आसपास ऐसे प्रयास करेंगे तो निश्चित तौर पर गौरेया फिर से हमारे जीवन का हिस्सा बन जाएगी ।

साथियो, कर्नाटका के मैसुरू की एक संस्था ने बच्चों के लिए ‘Early Bird’ नाम का अभियान शुरू किया है । ये संस्था बच्चों को पक्षियों के बारे में बताने के लिए खास तरह की library चलाती है । इतना ही नहीं, बच्चों में प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी का भाव पैदा करने के लिए ‘Nature Education Kit’ तैयार किया है। इस Kit में बच्चों के लिए Story Book, Games, Activity Sheets और jig-saw puzzles हैं । ये संस्था शहर के बच्चों को गांवों में लेकर जाती है और उन्हें पक्षियों के बारे में बताती है । इस संस्था के प्रयासों की वजह से बच्चे पक्षियों की अनेक प्रजातियों को पहचानने लगे हैं । ‘मन की बात’ के श्रोता भी इस तरह के प्रयास से बच्चों में अपने आसपास को देखने, समझने का अलग नज़रिया विकसित कर सकते हैं ।

मेरे प्यारे देशवासियो, आपने देखा होगा, जैसे ही कोई कहता है ‘सरकारी दफ्तर’ तो आपके मन में फाइलों के ढ़ेर की तस्वीर बन जाती है | आपने फिल्मों में भी ऐसा ही कुछ देखा होगा | सरकारी दफ्तरों में इन फाइलों के ढ़ेर पर कितने ही मजाक बनते रहते हैं, कितनी ही कहानियां लिखी जा चुकी हैं | बरसों-बरस तक ये फाइलें Office में पड़े-पड़े धूल से भर जाती थीं, वहां, गंदगी होने लगती थी - ऐसी दशकों पुरानी फाइलों और Scrap को हटाने के लिए एक विशेष स्वच्छता अभियान चलाया गया | आपको ये जानकर खुशी होगी कि सरकारी विभागों में इस अभियान के अद्भुत परिणाम सामने आए हैं | साफ-सफाई से दफ्तरों में काफी जगह खाली हो गई है | इससे दफ्तर में काम करने वालों में एक Ownership का भाव भी आया है | अपने काम करने की जगह को स्वच्छ रखने की गंभीरता भी उनमें आई है |

सथियो, आपने अक्सर बड़े-बुजुर्गों को ये कहते सुना होगा, कि जहां स्वच्छता होती है, वहां, लक्ष्मी जी का वास होता है | हमारे यहाँ ‘कचरे से कंचन’ का विचार बहुत पुराना है | देश के कई हिस्सों में ‘युवा’ बेकार समझी जाने वाली चीजों को लेकर, कचरे से कंचन बना रहे हैं | तरह-तरह के innovation कर रहे हैं | इससे वो पैसे कमा रहे हैं, रोजगार के साधन विकसित कर रहे हैं | ये युवा अपने प्रयासों से sustainable lifestyle को भी बढ़ावा दे रहे हैं | मुंबई की दो बेटियों का ये प्रयास, वाकई बहुत प्रेरक है | अक्षरा और प्रकृति नाम की ये दो बेटियाँ, कतरन से फैशन के सामान बना रही हैं | आप भी जानते हैं कपड़ों की कटाई-सिलाई के दौरान जो कतरन निकलती है, इसे बेकार समझकर फेंक दिया जाता है | अक्षरा और प्रकृति की Team उन्हीं कपड़ों के कचरे को Fashion Product में बदलती है | कतरन से बनी टोपियां, Bag हाथों-हाथ बिक भी रही है |

साथियो, साफ-सफाई को लेकर UP के कानपुर में भी अच्छी पहल हो रही है | यहाँ कुछ लोग रोज सुबह Morning Walk पर निकलते हैं और गंगा के घाटों पर फैले Plastic और अन्य कचरे को उठा लेते हैं | इस समूह को ‘Kanpur Ploggers Group’ नाम दिया गया है | इस मुहिम की शुरुआत कुछ दोस्तों ने मिलकर की थी | धीरे-धीरे ये जन भागीदारी का बड़ा अभियान बन गया | शहर के कई लोग इसके साथ जुड़ गए हैं | इसके सदस्य, अब, दुकानों और घरों से भी कचरा उठाने लगे हैं | इस कचरे से Recycle Plant में tree guard तैयार किए जाते हैं, यानि, इस Group के लोग कचरे से बने tree guard से पौधों की सुरक्षा भी करते हैं|

साथियो, छोटे-छोटे प्रयासों से कैसी बड़ी सफलता मिलती है, इसका एक उदाहरण असम की इतिशा भी है | इतिशा की पढ़ाई-लिखाई दिल्ली और पुणे में हुई है | इतिशा corporate दुनिया की चमक-दमक छोड़कर अरुणाचल की सांगती घाटी को साफ बनाने में जुटी हैं | पर्यटकों की वजह से वहां काफी plastic waste जमा होने लगा था | वहां की नदी जो कभी साफ थी वो plastic waste की वजह से प्रदूषित हो गई थी | इसे साफ करने के लिए इतिशा स्थानीय लोगों के साथ मिलकर काम कर रही है | उनके group के लोग वहां आने वाले tourist को जागरूक करते हैं और plastic waste को collect करने के लिए पूरी घाटी में बांस से बने कूड़ेदान लगाते हैं |

साथियो, ऐसे प्रयासों से भारत के स्वच्छता अभियान को गति मिलती है | ये निरंतर चलते रहने वाला अभियान है | आपके आस-पास भी ऐसा जरूर होता ही होगा | आप मुझे ऐसे प्रयासों के बारे में जरूर लिखते रहिए |

साथियो, ‘मन की बात’ के इस episode में फिलहाल इतना ही | मुझे तो पूरे महीने, आपकी प्रतिक्रियाओं, पत्रों और सुझावों का खूब इंतजार रहता है | हर महीने आने वाले आपके संदेश मुझे और बेहतर करने की प्रेरणा देते हैं | अगले महीने हम फिर मिलेंगे, ‘मन की बात’ के एक और अंक में - देश और देशवासियों की नई उपलब्धियों के साथ, तब तक के लिए, आप सभी देशवासियों को, मेरी ढ़ेर सारी शुभकामनाएं |

बहुत-बहुत धन्यवाद |