आज ओपिनियन पोल, और कल?
प्रिय मित्रों,
उम्मीद है कि अपने परिवार और स्वजनों के साथ आपकी यह दिवाली बहुत अच्छी रही होगी।
कांग्रेस के मित्र ओपिनियन पोल (चुनावी सर्वेक्षण) पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। इससे संबंधित लेख बीते कुछ दिनों से मैं अखबार, इंटरनेट और सोशल मीडिया पर पढ़ रहा हूं। इस सन्दर्भ में दो ट्विट्स ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया। बीजेडी के लोकसभा सांसद जय पांडा ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया में लिखा है कि, “अब अगला कदम- ओपिनियन (अभिव्यक्ति) पर प्रतिबंध।” इसी तरह चेतन भगत ने ट्वीट किया है, “ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध से तो ज्यादा अच्छा है कि ओपिनियन पर ही प्रतिबंध लगा दो और उससे भी कहीं ज्यादा अच्छा तो यह होगा कि पोल (चुनाव) पर ही प्रतिबंध लगा दो।”
Next step: curb opinions ;-) ? "@the_hindu: Yes, curb opinion polls: Congress https://t.co/VW32KuENyS"— Baijayant Jay Panda (@Panda_Jay) November 2, 2013
Ban opinion polls. Better ban opinions. Or best, ban polls.— Chetan Bhagat (@chetan_bhagat) November 4, 2013
मित्रों, इस कटाक्ष में निहितार्थ समाया है।
जिन लोगों ने आजादी के बाद भारतीय राजनीति और कांग्रेस के क्रियाकलापों का थोड़ा-बहुत अध्ययन किया है, उन्हें कांग्रेस की इस मांग से कोई आश्चर्य नहीं होगा। संवैधानिक संस्थाओं को कुचलने की कांग्रेस की वृत्ति और सत्ता के नशे में चूर होकर नागरिकों की वाणीस्वतंत्रता और उन्हें अपनी राय व्यक्त करने से रोकने की इस मुराद को अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण कह सकते हैं।
अभी उस बात को ज्यादा वक्त नहीं बीता, जब यूपीए सरकार ने ट्विटर हेण्डल सस्पेंड कर दिया था। ऐसा कर सरकार ने इस बात का परिचय दे दिया था कि, सोशल मीडिया पर होने वाली आलोचनाओं को लेकर वह कितनी असहिष्णु है। उस वक्त सोशल मीडिया पर वाणी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर लोगों की भावनाओं से अपनी सहमति के प्रतीकस्वरूप मैं मेरे ट्विटर के डिस्प्ले पिक्चर पर काली पट्टी लगा रखी थी। २०११ में बाबा साहेब अम्बेडकर के निर्वाण दिवस पर कई केन्द्रीय मंत्रियों ने सोशल मीडिया पर नियंत्रण लादने की बात कही थी। विडंबना भी उस दिन शर्म से सौ बार मरी होगी। कुछ महीने पूर्व मुंबई की एक रेस्तरां ने सृजनात्मक तरीके से अपने बिल में यूपीए की नीतियों के खिलाफ अपनी राय व्यक्त की तो उसे धमकियां दी गई।
१५ अगस्त को प्रधानमंत्री के स्वतंत्रता दिवस भाषण के टेलीविजन कवरेज को लेकर एक केन्द्रीय मंत्रालय द्वारा मीडियाकर्मियों को लिखा गया, और वह भी दो महीने बाद। आज, जब देश महंगाई की आग में झुलस रहा है और बेरोजगारी आसमान छू रही है, तब भी ऐसा बेशर्म नजारा देखने को मिल रहा है। यूपीए स्पष्ट तौर पर निहायत ही फिजुल बातों को प्रधानता दे रही है। राष्ट्रीय महत्व के आवश्यक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाए यह सरकार उन मसलों पर अपनी ऊर्जा व्यर्थ कर रही है जो गंभीर कदापि नहीं हैं।
मैं मीडिया के अपने मित्रों से पूछना चाहता हूं कि अभिव्यक्ति की आजादी छीनने वाले इस प्रस्ताव को लेकर वे चुप क्यों हैं?
ऐसा नहीं है कि ओपिनियन पोल को लेकर मुझे कोई विशेष प्रेम है। इसकी सीमाओं से मैं बखूबी परिचित हूं। इन ज्ञानी विश्लेषकों ने तो बड़े आत्मविश्वास से कहा था कि, २००२ के चुनावों में गुजरात की जनता भाजपा के खिलाफ मतदान करेगी। २००७ और २०१२ में भी उन्होंने ऐसा ही कहा था। लेकिन जनता ने उन्हें गलत साबित कर दिया।
परन्तु एक महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रत्येक पार्टी और सरकार के लिए सच है। महाभारत के भीष्म से लेकर अर्थशास्त्र के कौटिल्य तक हमें यह सीखाया गया है कि जनता की राय से मेल बिठाना कितना जरूरी है। जो सरकार जनता के अभिप्राय की अवगणना करती है, वह निश्चित ही सत्ता से बेदखल हो जाती है।
भारत में ओपिनियन पोल का प्रदर्शन मिला-जुला रहा है। कभी उनकी भविष्यवाणी सच साबित होती है, तो कभी गलत। ओपिनियन पोल के नतीजों का क्या किया जाए यह हम राजनीतिक पार्टियों को तय करना है।
यदि ये नतीजे हमारे पक्ष में हो तो आत्मसंतोष के भाव के साथ बैठे रहने से हमें कोई रोकने वाला नहीं है, या फिर अतिविश्वास में रचे-पचे बिना प्रयत्न जारी रखने को भी हम आजाद हैं।
ठीक इसी तरह, यदि यह हमारे पक्ष में नहीं हो तो आंकड़ों को झुठलाने से हमें कोई रोक नहीं सकता, या फिर अपनी गलतियों में सुधार कर आवश्यक प्रयास करने के लिए भी हम स्वतंत्र हैं।
ओपिनियन पोल के नतीजों में हम जो सुनना चाहते हैं, यदि वह सुनने को न मिले तो इस तरह का आत्यंतिक कदम उठाना सर्वथा बचकानी हरकत है।
मेरी चिंता ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध लगाने के प्रस्ताव तक ही सीमित नहीं है। कल को इसी तर्क के आधार पर कांग्रेस चुनाव के दौरान लेख, संपादकीय लेख और ब्लॉग पर भी प्रतिबंध लगा सकती है। यदि वह चुनाव हार जाए तो निर्वाचन आयोग पर प्रतिबंध लगाना चाहेंगे और यदि अदालत उन्हें सहयोग न दे तो कहेंगे कि अदालत पर भी प्रतिबंध लगा दो! आखिर में यह वही पार्टी है जिसने अदालत के एक कड़वे फैसले की वजह से देश पर आपातकाल थोप दिया था।
मुझे खुशी है कि मेरे साथी अरुण जेटली ने अपने एक लेख में भी इन्हीं मुद्दों को उठाया है।
यदि मुझसे पूछें तो इसका उपाय बहुत सरल है। कांग्रेस की ऐसी तानाशाही और विध्वंसकारी चालाकियों का सामना करने के बजाए अच्छा तो यही होगा कि लोकतंत्र-विरोधी कांग्रेस पार्टी को ओपिनियन पोल में तो खारिज करें हीं, इसके अलावा उस पोलिंग बूथ में भी उसे नकार दें, जिसका महत्व सर्वाधिक है।
जनता ही श्रेष्ठ न्यायाधीश है!
नरेन्द्र मोदी