मौलाना अबुल कलाम आजाद और आचार्य जेबी कृपलानी की जयंती पर उन्‍हें श्रद्धांजलि

प्रिय मित्रों,

आज हम बेहद प्रेरणादायक व्‍यक्तियों को याद कर रहे हैं, जिन्‍होंने भारतीय इतिहास में महत्‍वपूर्ण योगदान दिया। हम मौलाना अबुल कलाम आजाद और आचार्य जेबी कृपलानी की 125वीं जयंती पर उन्‍हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। दोनों एक ही वर्ष में पैदा हुए, दोनों ही व्‍यक्तियों ने अपने जीवन को देश की सेवा के लिये समर्पित कर दिया।

Remembering Maulana Abul Kalam Azad and Acharya JB Kripalani on their birth anniversary

मौलाना अबुल कलाम आजाद को किसी परिचय की जरूरत नहीं। उनके अंदर युवा अवस्‍था से ही क्रांतिकारी आग थी। 1912 में उन्‍होंने अखबार अल-हिलाल शुरू किया, जिसने कभी भी प्रवासीय शासकों पर हमला करने में झिझक नहीं दिखायी। 1940 के दशक में उन्‍होंने महात्‍मा गांधी के नेतृत्‍व में कांग्रेस पार्टी में अहम भूमिका निभाई ।

वे भारत के पहले शिक्षा मंत्री हुए और उन्‍हीं के कार्यकाल में खड़गपुर में पहला आईआईटी स्‍थापित किया गया। मौलाना आजाद को भारत के विभाजन का विरोध करने के लिये भी याद किया जाता है।

ऐसे व्‍यक्ति जिनके लिये उनके मूल्‍य और गरीबों की सेवा सबसे महत्‍वपूर्ण थे, उनका नाम है आचार्य कृपलानी जिन्‍होंने महात्‍मा गांधी के नेतृत्‍व में चंपारण सत्‍याग्रह में भाग लिया और कांग्रेस के गठन में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभायी।

स्‍वतंत्रता के बाद उन्‍होंने कांग्रेस छोड़ दी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी में चले गये, जो बाद में सोशलिस्‍ट पार्टी के रूप में प्रजा सोशलिस्‍ट पार्टी बनी।

आचार्य कृपलानी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकार के खिलाफ 1963 में पहली बार अविश्‍वास प्रस्‍ताव लाकर एक इतिहास रचा।

यह प्रस्‍ताव चीन से मिली करारी और अपमानजनक हार के बाद लाया गया, जिसमें कहा गया कि प्रथम प्रधानमंत्री और तत्‍कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्‍ण मेनन ने जंग के लिये कोई तैयारी नहीं की थी।

वास्‍तव में आचार्य कृपलानी ने लोकसभा में बार-बार बहुत सख्‍ती से कृष्‍ण मेनन का विरोध किया । उस दौर को हम नहीं भूल सकते जब वे कृष्‍ण मेनन के खिलाफ 1962 में उत्‍तर बॉम्‍बे से चुनाव लड़े वो भी सभी पार्टियों के ज्‍वाइंट कैंडिडेट के रूप में।

इमर्जेंसी के भी वो कट्टर आलोचक रहे। आचार्य कृपलानी का गुजरात विद्यापीठ से बहुत करीबी ताल्‍लुक रहा, जिसकी स्‍थापना गांधी जी ने की थी।

आज हमें उन प्रयासों की जरूरत है जो ऐसी तमाम ऐतिहासिक शख्सियतों को याद करें, जिन्‍हें पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया गया या फिर इतिहास की किताबों में उनके बारे में बहुत कुछ नहीं लिखा गया।

इस ब्‍लॉग को पढ़ने के बाद आप टीवी स्‍टूडियो और सोशल मीडिया की तरफ देखेंगे तो वहाँ कमेंट्स का अम्‍बार लगा होगा जैसे "उनमें और मोदी में क्‍या समानता है” या "लेकिन वे मोदी की पार्टी में तो नहीं थे” और कई बातें।

मित्रों यही वो विचारधारा है, जिसमें परिवर्तन की जरूरत है।

यह सोचकर मैं बहुत व्‍यथित होता हूं कि हमारे मित्रों ने कुछ राजनेताओं की भक्ति में स्‍वतंत्रता संग्राम के बहादुरों को महत्‍व देना कम कर दिया है। इससे बड़ा देश का नुकसान नहीं हो सकता कि हम इतिहास को राजनीतिक पक्षपात की संकीर्ण दृष्टी से हमारे शूरवीरों को देखें।

समय है यह समझने का कि इन नेताओं ने जाति, समाज, संप्रदाय या पार्टी से ऊपर उठकर देश हित में काम किया। उनके आदर्श और विरासत किसी पार्टी तक सीमित नहीं है बल्कि पूरा राष्‍ट्र उनसे प्रेरणा लेता है।

समान रूप से चिंता की बात 'इतिहास के सट्टा (Speculative History)' की प्रवृति भी है जहां कुछ सेलिब्रिटी इतिहासकारों ने खुद को यह अधिकार दे दिया कि वह खुद सट्टा कर सकें जो कुछ ऐतिहासिक हस्ति ने कहा या किया होगा।

अब आप मौलाना अबुल कलाम आजाद और सरदार वल्‍लभभाई पटेल का ही उदाहरण ले लीजिये। हां यह सच है कि दोनों मौलाना आजाद और सरदार पटेल की विचारधारा कई मुद्दों पर भिन्‍न थी। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि दोनों ही भारत के लिये पूरे प्रेम और निष्‍ठा के साथ महात्‍मा गांधी के नेतृत्‍व में साथ में काम करते थे। आखिरकार जो भी तर्क-वितर्क, चर्चा और असहमति थी वह सब एक vibrant लोकतंत्र के जरुरी होती है |

हमारे प्राचीन ग्रंथों में लिखा है कि सीखना एक निरंतर प्रक्रिया है। ज्ञान और समझ समय के साथ विकसित होने चाहिये और कभी भी भूतकाल की असहमति के गर्त में खत्म नहीं हो जाने चाहिये।

इसी संदर्भ में मैं सरदार पटेल पर मौलाना आजाद के विचारों को आपके साथ बांटना चाहता हूं, जो 'इंडिया विन्‍स फ्रीडम' में प्रकाशित हुए थे। मौलाना आजाद ने कहा कि कांग्रेस के अध्‍यक्ष पद के लिये दोबारा नहीं खड़ा होना उनकी पहली गलती थी। अपनी दूसरी गलती के लिये उन्‍होंने लिखा:

“मेरी दूसरी गलती यह थी कि जब मैंने खुद को नहीं खड़ा करने का निर्णय लिया तब सरदार पटेल का भी समर्थन नहीं किया। कई मुद्दों पर हमारे विचार नहीं मिलते थे, लेकिन मैं इस बात से सहमत था कि उन्‍होंने कैबिनेट मिशन प्‍लान को सफलतापूर्वक लागू किया होता। उन्‍होंने जवाहर लाल नेहरू की उस गलती को भी नहीं किया होता, जिसने जिन्‍ना को विद्रोही योजना बनाने का अवसर दिया। मैं खुद को कभी माफ नहीं कर सकता, अगर मैंने यह गलतियां नहीं की होती तो शायद पिछले दस साल का देश का इतिहास कुछ अलग होता।”

यह बात भी उतनी ही सच है कि कई ऐतिहासिक हस्तियां हैं जो आम जनता के दिल और दिमाग से गायब हो गई हैं, सिर्फ इसलिये क्‍योंकि वो उस विशेष परिवार से ताल्‍लुक नहीं रखती थीं।

भारत का इतिहास अनगिनत महिलाओं और पुरुषों के संघर्ष का इतिहास है, जिन्‍होंने अपनी मातृभूमि के लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया। क्‍या सिर्फ इसलिये हम जनता के दिमाग से उन्‍हें मिटा दें या कम याद करें क्यूंकि वे एक विशेष परिवार के नहीं हैं ?

केंद्र सरकार मौलाना आजाद पर आज एक पोर्टल लॉन्‍च कर रही है, जिसमें उनके डिजिटल पुरालेख होंगे। हम इस पहल का स्‍वागत करते हैं, लेकिन उनसे यह भी पूछना चाहिये कि पिछले दशकों में उन्‍होंने सिर्फ एक विरासत को अपनी समर्पित सेवाएं क्‍यों दीं? क्‍या यह सब पहले नहीं करना चाहिये था?

मौलाना अबुल कलाम आजाद और आचार्य कृपलानी को मैं अपनी श्रद्धांजलि इस प्रार्थना के साथ समाप्‍त करता हूं कि हम एक ऐसे भारत का निर्माण कर सकते हैं जिसका सपना उन्‍होंने और उनके जैसे स्‍वतंत्रता संग्राम के तमाम शूरवीरों ने देखा था।

नरेंद्र मोदी

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राष्ट्र निर्माण के ‘अटल’ आदर्श की शताब्दी
December 25, 2024

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं...लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं? अटल जी के ये शब्द कितने साहसी हैं...कितने गूढ़ हैं। अटल जी, कूच से नहीं डरे...उन जैसे व्यक्तित्व को किसी से डर लगता भी नहीं था। वो ये भी कहते थे... जीवन बंजारों का डेरा आज यहां, कल कहां कूच है..कौन जानता किधर सवेरा...आज अगर वो हमारे बीच होते, तो वो अपने जन्मदिन पर नया सवेरा देख रहे होते। मैं वो दिन नहीं भूलता जब उन्होंने मुझे पास बुलाकर अंकवार में भर लिया था...और जोर से पीठ में धौल जमा दी थी। वो स्नेह...वो अपनत्व...वो प्रेम...मेरे जीवन का बहुत बड़ा सौभाग्य रहा है।

आज 25 दिसंबर का ये दिन भारतीय राजनीति और भारतीय जनमानस के लिए एक तरह से सुशासन का अटल दिवस है। आज पूरा देश अपने भारत रत्न अटल को, उस आदर्श विभूति के रूप में याद कर रहा है, जिन्होंने अपनी सौम्यता, सहजता और सहृदयता से करोड़ों भारतीयों के मन में जगह बनाई। पूरा देश उनके योगदान के प्रति कृतज्ञ है। उनकी राजनीति के प्रति कृतार्थ है।

21वीं सदी को भारत की सदी बनाने के लिए उनकी एनडीए सरकार ने जो कदम उठाए, उसने देश को एक नई दिशा, नई गति दी। 1998 के जिस काल में उन्होंने पीएम पद संभाला, उस दौर में पूरा देश राजनीतिक अस्थिरता से घिरा हुआ था। 9 साल में देश ने चार बार लोकसभा के चुनाव देखे थे। लोगों को शंका थी कि ये सरकार भी उनकी उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाएगी। ऐसे समय में एक सामान्य परिवार से आने वाले अटल जी ने, देश को स्थिरता और सुशासन का मॉडल दिया। भारत को नव विकास की गारंटी दी।

वो ऐसे नेता थे, जिनका प्रभाव भी आज तक अटल है। वो भविष्य के भारत के परिकल्पना पुरुष थे। उनकी सरकार ने देश को आईटी, टेलीकम्यूनिकेशन और दूरसंचार की दुनिया में तेजी से आगे बढ़ाया। उनके शासन काल में ही, एनडीए ने टेक्नॉलजी को सामान्य मानवी की पहुंच तक लाने का काम शुरू किया। भारत के दूर-दराज के इलाकों को बड़े शहरों से जोड़ने के सफल प्रयास किये गए। वाजपेयी जी की सरकार में शुरू हुई जिस स्वर्णिम चतुर्भुज योजना ने भारत के महानगरों को एक सूत्र में जोड़ा वो आज भी लोगों की स्मृतियों पर अमिट है। लोकल कनेक्टिविटी को बढ़ाने के लिए भी एनडीए गठबंधन की सरकार ने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसे कार्यक्रम शुरू किए। उनके शासन काल में दिल्ली मेट्रो शुरू हुई, जिसका विस्तार आज हमारी सरकार एक वर्ल्ड क्लास इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के रूप में कर रही है। ऐसे ही प्रयासों से उन्होंने ना सिर्फ आर्थिक प्रगति को नई शक्ति दी, बल्कि दूर-दराज के क्षेत्रों को एक दूसरे से जोड़कर भारत की एकता को भी सशक्त किया।

जब भी सर्व शिक्षा अभियान की बात होती है, तो अटल जी की सरकार का जिक्र जरूर होता है। शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता मानने वाले वाजपेयी जी ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था, जहां हर व्यक्ति को आधुनिक और गुणवत्ता वाली शिक्षा मिले। वो चाहते थे भारत के वर्ग, यानि ओबीसी, एससी, एसटी, आदिवासी और महिला सभी के लिए शिक्षा सहज और सुलभ बने।

उनकी सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए कई बड़े आर्थिक सुधार किए। इन सुधारों के कारण भाई-भतीजावाद में फंसी देश की अर्थव्यवस्था को नई गति मिली। उस दौर की सरकार के समय में जो नीतियां बनीं, उनका मूल उद्देश्य सामान्य मानवी के जीवन को बदलना ही रहा।

उनकी सरकार के कई ऐसे अद्भुत और साहसी उदाहरण हैं, जिन्हें आज भी हम देशवासी गर्व से याद करते है। देश को अब भी 11 मई 1998 का वो गौरव दिवस याद है, एनडीए सरकार बनने के कुछ ही दिन बाद पोकरण में सफल परमाणु परीक्षण हुआ। इसे ‘ऑपरेशन शक्ति’ का नाम दिया गया। इस परीक्षण के बाद दुनियाभर में भारत के वैज्ञानिकों को लेकर चर्चा होने लगी। इस बीच कई देशों ने खुलकर नाराजगी जताई, लेकिन तब की सरकार ने किसी दबाव की परवाह नहीं की। पीछे हटने की जगह 13 मई को न्यूक्लियर टेस्ट का एक और धमाका कर दिया गया। 11 मई को हुए परीक्षण ने तो दुनिया को भारत के वैज्ञानिकों की शक्ति से परिचय कराया था। लेकिन 13 मई को हुए परीक्षण ने दुनिया को ये दिखाया कि भारत का नेतृत्व एक ऐसे नेता के हाथ में है, जो एक अलग मिट्टी से बना है।

उन्होंने पूरी दुनिया को ये संदेश दिया, ये पुराना भारत नहीं है। पूरी दुनिया जान चुकी थी, कि भारत अब दबाव में आने वाला देश नहीं है। इस परमाणु परीक्षण की वजह से देश पर प्रतिबंध भी लगे, लेकिन देश ने सबका मुकाबला किया।

वाजपेयी सरकार के शासन काल में कई बार सुरक्षा संबंधी चुनौतियां आईं। करगिल युद्ध का दौर आया। संसद पर आतंकियों ने कायरना प्रहार किया। अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले से वैश्विक स्थितियां बदलीं, लेकिन हर स्थिति में अटल जी के लिए भारत और भारत का हित सर्वोपरि रहा।

जब भी आप वाजपेयी जी के व्यक्तित्व के बारे में किसी से बात करेंगे तो वो यही कहेगा कि वो लोगों को अपनी तरफ खींच लेते थे। उनकी बोलने की कला का कोई सानी नहीं था। कविताओं और शब्दों में उनका कोई जवाब नहीं था। विरोधी भी वाजपेयी जी के भाषणों के मुरीद थे। युवा सांसदों के लिए वो चर्चाएं सीखने का माध्यम बनतीं।

कुछ सांसदों की संख्या लेकर भी, वो कांग्रेस की कुनीतियों का प्रखर विरोध करने में सफल होते। भारतीय राजनीति में वाजपेयी जी ने दिखाया, ईमानदारी और नीतिगत स्पष्टता का अर्थ क्या है।

संसद में कहा गया उनका ये वाक्य... सरकारें आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी मगर ये देश रहना चाहिए...आज भी मंत्र की तरह हम सबके मन में गूंजता रहता है।

वो भारतीय लोकतंत्र को समझते थे। वो ये भी जानते थे कि लोकतंत्र का मजबूत रहना कितना जरुरी है। आपातकाल के समय उन्होंने दमनकारी कांग्रेस सरकार का जमकर विरोध किया, यातनाएं झेली। जेल जाकर भी संविधान के हित का संकल्प दोहराया। NDA की स्थापना के साथ उन्होंने गठबंधन की राजनीति को नए सिरे से परिभाषित किया। वो अनेक दलों को साथ लाए और NDA को विकास, देश की प्रगति और क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधि बनाया।

पीएम पद पर रहते हुए उन्होंने विपक्ष की आलोचनाओं का जवाब हमेशा बेहतरीन तरीके से दिया। वो ज्यादातर समय विपक्षी दल में रहे, लेकिन नीतियों का विरोध तर्कों और शब्दों से किया। एक समय उन्हें कांग्रेस ने गद्दार तक कह दिया था, उसके बाद भी उन्होंने कभी असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया।

उन में सत्ता की लालसा नहीं थी। 1996 में उन्होंने जोड़-तोड़ की राजनीति ना चुनकर, इस्तीफा देने का रास्ता चुन लिया। राजनीतिक षड्यंत्रों के कारण 1999 में उन्हें सिर्फ एक वोट के अंतर के कारण पद से इस्तीफा देना पड़ा। कई लोगों ने उनसे इस तरह की अनैतिक राजनीति को चुनौती देने के लिए कहा, लेकिन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी शुचिता की राजनीति पर चले। अगले चुनाव में उन्होंने मजबूत जनादेश के साथ वापसी की।

संविधान के मूल्य संरक्षण में भी, उनके जैसा कोई नहीं था। डॉ. श्यामा प्रसाद के निधन का उनपर बहुत प्रभाव पड़ा था। वो आपात के खिलाफ लड़ाई का भी बड़ा चेहरा बने। इमरजेंसी केबाद 1977 के चुनाव से पहले उन्होंने ‘जनसंघ’ का जनता पार्टी में विलय करने पर भी सहमति जता दी। मैं जानता हूं कि ये निर्णय सहज नहीं रहा होगा, लेकिन वाजपेयी जी के लिए हर राष्ट्रभक्त कार्यकर्ता की तरह दल से बड़ा देश था, संगठन से बड़ा, संविधान था।

हम सब जानते हैं, अटल जी को भारतीय संस्कृति से भी बहुत लगाव था। भारत के विदेश मंत्री बनने के बाद जब संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषण देने का अवसर आया, तो उन्होंने अपनी हिंदी से पूरे देश को खुद से जोड़ा। पहली बार किसी ने हिंदी में संयुक्त राष्ट्र में अपनी बात कही। उन्होंने भारत की विरासत को विश्व पटल पर रखा। उन्होंने सामान्य भारतीय की भाषा को संयुक्त राष्ट्र के मंच तक पहुंचाया।

राजनीतिक जीवन में होने के बाद भी, वो साहित्य और अभिव्यक्ति से जुड़े रहे। वो एक ऐसे कवि और लेखक थे, जिनके शब्द हर विपरीत स्थिति में व्यक्ति को आशा और नव सृजन की प्रेरणा देते थे। वो हर उम्र के भारतीय के प्रिय थे। हर वर्ग के अपने थे।

मेरे जैसे भारतीय जनता पार्टी के असंख्य कार्यकर्ताओं को उनसे सीखने का, उनके साथ काम करने का, उनसे संवाद करने का अवसर मिला। अगर आज बीजेपी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है तो इसका श्रेय उस अटल आधार को है, जिसपर ये दृढ़ संगठन खड़ा है।

उन्होंने बीजेपी की नींव तब रखी, जब कांग्रेस जैसी पार्टी का विकल्प बनना आसान नहीं था। उनका नेतृत्व, उनकी राजनीतिक दक्षता, साहस और लोकतंत्र के प्रति उनके अगाध समर्पण ने बीजेपी को भारत की लोकप्रिय पार्टी के रूप में प्रशस्त किया। श्री लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों के साथ, उन्होंने पार्टी को अनेक चुनौतियों से निकालकर सफलता के सोपान तक पहुंचाया।

जब भी सत्ता और विचारधारा के बीच एक को चुनने की स्थितियां आईं, उन्होंने इस चुनाव में विचारधारा को खुले मन से चुन लिया। वो देश को ये समझाने में सफल हुए कि कांग्रेस के दृष्टिकोण से अलग एक वैकल्पिक वैश्विक दृष्टिकोण संभव है। ऐसा दृष्टिकोण वास्तव में परिणाम दे सकता है।

आज उनका रोपित बीज, एक वटवृक्ष बनकर राष्ट्र सेवा की नव पीढ़ी को रच रहा है। अटल जी की 100वीं जयंती, भारत में सुशासन के एक राष्ट्र पुरुष की जयंती है। आइए हम सब इस अवसर पर, उनके सपनों को साकार करने के लिए मिलकर काम करें। हम एक ऐसे भारत का निर्माण करें, जो सुशासन, एकता और गति के अटल सिद्धांतों का प्रतीक हो। मुझे विश्वास है, भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी के सिखाए सिद्धांत ऐसे ही, हमें भारत को नव प्रगति और समृद्धि के पथ पर प्रशस्त करनें की प्रेरणा देते रहेंगे।