देश ने हाल ही में मदन दास देवी जी जैसी महान विभूति को खोया है। उनके जाने से मेरे साथ ही लाखों कार्यकर्ताओं को जो गहरा दुख हुआ, उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। आज मन को समझाना मुश्किल है कि मदन दास जी हमारे बीच में नहीं हैं। लेकिन मदन दास जी जैसे प्रभावशाली व्यक्तित्व के विचार और मूल्य सदैव हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे।

मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे मदन दास जी के साथ वर्षों तक करीब से काम करने का अवसर मिला। मैंने उनकी सादगी और मृदुभाषी स्वभाव को भी बहुत नजदीक से जाना। उनका जीवन बहुत सहज था। वह पूरी तरह से संगठन को समर्पित व्यक्ति थे और मेरे पास भी लंबे समय तक संगठन के कार्यों का दायित्व रहा है। इसलिए अधिकतर समय हमारे बीच की बातचीत संगठन का विस्तार, व्यक्ति निर्माण जैसे पहलुओं पर केंद्रित रहती थी। एक बार मैंने उनसे पूछा कि वह मूल रूप से कहां के रहने वाले हैं। उन्होंने मुझे बताया कि वह तो महाराष्ट्र के सोलापुर के पास के एक गांव से आते हैं, लेकिन उनके पूर्वज गुजरात के थे। वैसे यह उन्हें पता नहीं था कि गुजरात में कहां से थे। मैंने उन्हें बताया कि देवी उपनाम से मेरे एक शिक्षक थे, जो विसनगर के रहने वाले थे। बाद में मदन दास जी विसनगर गए और मेरे गांव वडनगर भी गए। वह मुझसे अधिकतर समय गुजराती में ही बातचीत करते थे।

मदन दास जी धैर्यपूर्वक कार्यकर्ताओं की बातों को सुना करते थे और घंटों तक चली चर्चा को वह बहुत कम वाक्यों में संक्षेप में समेट लेते थे। उनकी एक विशेषता थी कि वह शब्दों से परे जाकर कार्यकर्ता की भावनाओं को बहुत जल्दी समझ लेते थे।

मदन दास जी की जीवन यात्रा दर्शाती है कि कैसे स्वयं को पीछे रखकर और सामान्य कार्यकर्ताओं को जोड़कर बड़ी-बड़ी उपलब्धियां हासिल की जा सकती हैं। उनके पास चार्टर्ड अकाउंटेंट की ट्रेनिंग थी, इसलिए वह चाहते तो आरामदायक जीवन जी सकते थे, लेकिन उनके जीवन का उद्देश्य कुछ और ही था। उन्होंने राष्ट्रनिर्माण को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। भारत के युवाओं पर मदन दास जी को अटूट भरोसा था। वह देश भर के युवाओं को आपस में जोड़ने की क्षमता रखते थे। उन्होंने अपने जीवन का लंबा कार्यकाल अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को मजबूत करने के लिए समर्पित कर दिया।

मदन दास जी अपनी इस यात्रा में यशवंत राव केलकर जी से प्रभावित रहे, जिनके बारे में वह अक्सर बातें किया करते थे। मदन दास जी का हमेशा जोर रहता था कि एबीवीपी के कामों में अधिक से अधिक छात्राओं की भागीदारी हो, और न सिर्फ ये भागीदारी तक सीमित रहे, बल्कि छात्राएं गतिविधियों का नेतृत्व करें। वह अक्सर कहते थे कि जब छात्राएं किसी सामूहिक गतिविधि में शामिल होती हैं तो वह प्रयास और ज्यादा संवेदनशील बन जाता है।

विद्यार्थियों से मदन दास जी का गहरा लगाव था और वह अक्सर छात्रावासों में विद्यार्थियों के बीच घुल-मिल जाते थे। आयु में फर्क होने के बावजूद वह नई पीढ़ी के साथ बहुत सहजता से तालमेल बिठा लेते थे। वह विद्यार्थियों के बीच हमेशा ऐसे काम करते रहे, जैसे जल में कमल। विद्यार्थियों के बीच रहकर भी वह कभी छात्र राजनीति का हिस्सा नहीं बने।
सामाजिक और राजनीतिक जीवन में कई ऐसे लोग हैं, जिनके जीवन को गढ़ने में मदन दास जी की बहुत बड़ी भूमिका रही है। लेकिन मदन दास जी ने कभी यह प्रकट नहीं किया, क्योंकि यह उनके स्वभाव में ही नहीं था।

आजकल लोगों, प्रतिभाओं और कौशल के प्रबंधन के विचार काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। मदन दास जी यह बखूबी समझ लेते थे कि किस व्यक्ति में किस तरह का कौशल है और उसकी प्रितभा संगठन के हित में कैसे काम आ सकती है। उनमें यह खासियत थी कि वे लोगों को उनकी क्षमताओं और प्रतिभा के अनुरूप ही दायित्व सौंपते थे। जब भी किसी कार्यकर्ता के पास कोई नया विचार होता था, तो उसकी हमेशा यह इच्छा रहती थी कि वह मदन दास जी के साथ साझा करे। इसकी एक वजह यह थी कि मदन दास जी नए विचारों को सुनने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उनके साथ काम करने वाले लोग खुद ही प्रेरित होते थे, इस कारण से उनके नेतृत्व में न सिर्फ संगठनों का बहुत तेजी से विकास और विस्तार हुआ, बल्कि संगठन कहीं अधिक प्रभावी और सशक्त बने।

मदन दास जी संपर्क को लेकर बहुत सेलेक्टिव थे। किससे मिलना, कब मिलना और जब मिलूंगा तो उससे क्या बात करना और इसमें कितना समय जाएगा, इन सबकी वह योजना बनाते थे। मदन दास जी के जो प्रवास और कार्यक्रम होते थे, उनमें वह कभी भी कार्यकर्ताओं पर बोझ नहीं बनते थे।

मैं अंतिम समय तक सतत उनके संपर्क में रहा। मैं हाल में जब भी उनको फोन करता था तो वह चार बार पूछने के बाद ही अपनी बीमारी के बारे में बात करते थे। अन्यथा वह हंसकर टाल जाते थे। बीमारी में भी उनके मन में हमेशा यह भाव रहता था कि मैं समाज के लिए, देश के लिए क्या करूं।

मदन दास जी का अकादमिक रिकाॅर्ड काफी शानदार था। जब भी वह कुछ अच्छा पढ़ते थे, तो उसे उस विषय से संबंधित लोगों को भेज देते थे। मुझे अक्सर ऐसी चीजें उनसे प्राप्त होती थीं। अर्थशास्त्र और नीतिगत मामलों की वह बहुत गहरी समझ रखते थे। मदन दास जी ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी, जिसके प्रत्येक नागरिक के लिए आत्मनिर्भरता जीवन की वास्तविकता हो। एक ऐसे समाज का निर्माण हो, जहां सम्मान, सशक्तीकरण और सामूहिक समृद्धि की भावना हो। आज भारत एक के बाद एक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनता जा रहा है, इसे देखकर उनसे ज्यादा खुश कोई नहीं होता।

आज जब हमारा लोकतंत्र जीवंत है, युवा आत्मविश्वास से भरे हैं और देश उम्मीदों, आशाओं और आकांक्षाओं से भरा है, तब मदन दास देवी जी जैसी विभूतियों को याद करना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। उनका पूरा जीवन समाज की सेवा और राष्ट्र के उत्थान के लिए समर्पित रहा।

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একতাৰ মহাকুম্ভ – এটা নতুন যুগৰ প্ৰত্যুষত
February 27, 2025

শ্ৰী নৰেন্দ্ৰ মোদী
ভাৰতৰ প্ৰধানমন্ত্ৰী

পবিত্ৰ নগৰী প্ৰয়াগৰাজত মহাকুম্ভৰ সফলতাৰে সামৰণি পৰিল। ইয়াৰ লগে লগে সম্পূৰ্ণ হ'ল একতাৰ এক বিশাল মহাযজ্ঞৰো। যেতিয়া এটা জাতিৰ চেতনা জাগ্ৰত হয়, যেতিয়া ই শতিকা প্ৰাচীন বশ্যতা স্বীকাৰৰ মানসিকতাৰ কঠিন শিকলিৰ পৰা মুক্ত হয়, তেতিয়াই জাতিটোৱে , দেশখনে নতুন শক্তিৰ সতেজ বতাহেৰে মুক্তভাৱে উশাহ ল'বলৈ সক্ষম হয়।মুক্ত চিন্তাৰে মুক্তভাবে উশাহ ল'ব পৰাৰ পৰিবেশ এটা ১৩ জানুৱাৰীৰ পৰা প্ৰয়াগৰাজত অনুষ্ঠিত হোৱা একতাৰ মহাকুম্ভত সুন্দৰ ৰূপত প্ৰত্যক্ষ কৰা হৈছে।

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২০২৪ চনৰ ২২ জানুৱাৰীত অযোধ্যাৰ ৰাম মন্দিৰৰ প্ৰাণ প্ৰতিষ্ঠাৰ সময়ত মই দেৱভক্তি আৰু দেশভক্তিৰ কথা কৈছিলো, মই কৈছিলো ঈশ্বৰিক আৰু দেশৰ প্ৰতি থকা ভক্তি তথা আত্মোসৰ্গাৰ বিষয়ে । প্ৰয়াগৰাজৰ মহাকুম্ভত বিভিন্ন প্ৰান্তৰ পৰা অহা সাধু- সন্ত, মহিলা, শিশু, যুৱক-যুৱতী, জ্যেষ্ঠ নাগৰিক আৰু সকলো শ্ৰেণীৰ লোক একত্ৰিত হৈছিল। আমি এই মহাকুম্ভতেই জাতিটোৰ জাগ্ৰত চেতনাৰ প্ৰতিফলন প্ৰত্যক্ষ কৰিলোঁ। এক কথাত এয়া আছিল একতাৰ মহাকুম্ভ, য’ত এই পবিত্ৰ অনুষ্ঠানৰ বাবে ১৪০ কোটি ভাৰতীয়ৰ আৱেগ একে ঠাইতে , একে সময়তে জাগ্ৰত হৈছিল৷

প্ৰয়াগৰাজৰ এই পবিত্ৰ অঞ্চলটো হৈছে ঐক্য, সম্প্ৰীতি আৰু প্ৰেমৰ পবিত্ৰ ভূমি শৃংগভেৰপুৰ, য'ত প্ৰভু শ্ৰীৰাম আৰু নিশাদৰাজৰ সাক্ষাৎ হৈছিল। তেওঁলোকৰ এই সাক্ষাৎ ভক্তি আৰু সদিচ্ছাৰ সংগমৰ প্ৰতীক আছিল। আজিও প্ৰয়াগৰাজত সেই ভক্তি আৰু সদিচ্ছাৰ ধ্বনি অনুৰণিত হৈ আছে, যিয়ে আমাক প্ৰতি পলতে অনুপ্ৰাণিত কৰি আহিছে।

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যোৱা ৪৫ টা দিনত মই লক্ষ্য কৰিছো যে দেশৰ বিভিন্ন প্ৰান্তৰ পৰা কোটি কোটি লোকে সংগমলৈ বাট পোনাইছিল। সংগমস্থলীত আৱেগৰ ঢৌ উঠিছিল। ইয়ালৈ প্ৰতিগৰাকী ভক্তই এটাই উদ্দেশ্য লৈ আহিছিল – সেয়া হৈছে সংগমত পৱিত্ৰ স্নান কৰা। গংগা, যমুনা, সৰস্বতীৰ পৱিত্ৰ সংগমস্থলে প্ৰতিগৰাকী তীৰ্থযাত্ৰীক উৎসাহ, শক্তি, আত্মবিশ্বাসেৰে ভৰাই তুলিছিল।

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মই ভাবো কোটি কোটি লোকে একে মনোভাবেৰে সমবেত হোৱা প্ৰয়াগৰাজৰ এই মহাকুম্ভ আধুনিক ব্যৱস্থাপনাৰ সৈতে জড়িত পেছাদাৰী, পৰিকল্পনাকাৰী আৰু নীতি বিশেষজ্ঞৰ বাবে অধ্যয়নৰ এক বিশেষ বিষয় হোৱা উচিৎ। কাৰণ পৃথিৱীৰ আন ক’তো ইমান বিশাল পৰিসৰত আয়োজিত আনুষ্ঠানৰ উদাহৰণ নাই।

সমগ্ৰ বিশ্বই আশ্বৰ্যৰে ভৰা নয়েনে প্ৰত্যক্ষ কৰিলে কিদৰে প্ৰয়াগৰাজৰ নদীৰ সংগমস্থলীৰ পাৰত কোটি কোটি মানুহ গোট খাইছিল। এই অনুষ্ঠানলৈ সেই লোকসকলক কোনো আনুষ্ঠানিক নিমন্ত্ৰণ দিয়া হোৱা নাছিল, তালৈ কেতিয়া যাব লাগিব সেই সম্পৰ্কেও পূৰ্বে কাৰো সৈতে কোনো যোগাযোগ কৰা হোৱা নাছিল। তথাপি কোটি কোটি মানুহে নিজৰ ইচ্ছামতে মহাকুম্ভলৈ ৰাওনা হৈছিল আৰু সংগমৰ পবিত্ৰ পানীত স্নান কৰাৰ আনন্দ অনুভৱ কৰিছিল।

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সংগমত পৱিত্ৰ স্নান কৰাৰ পিছত অপৰিসীম আনন্দ আৰু সন্তুষ্টিৰ বিকিৰণেৰে আলোকিত হৈ পৰা সেই মুখবোৰ মই কেতিয়াও পাহৰিব নোৱাৰিম। সেয়া আছিল ঈশ্বৰিক দ্যুতি, কিবা এক প্ৰাপ্তিৰ আনন্দত উজ্জ্বল হৈ পৰা মুখ। মহিলা , বয়োজ্যেষ্ঠ, আমাৰ দিব্যাং ভাই-ভনীসকল – সকলোৱে কেৱল প্ৰয়াগৰাজৰ সংগমৰ দিশে ঢাপলি মেলিছিল।

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প্ৰয়াগৰাজৰ মহাকুম্ভত ভাৰতৰ যুৱক-যুৱতীসকলৰ লক্ষ্যণীয় অংশগ্ৰহণ দেখি মই বিশেষভাবে উৎসাহিত হৈ পৰিছিলো। মহাকুম্ভত নৱপ্ৰজন্মৰ এনে বিশাল উপস্থিতিয়ে এক গভীৰ বাৰ্তা প্ৰেৰণ কৰিছে- সেয়া হৈছে ভাৰতৰ যুৱক-যুৱতীসকল আমাৰ গৌৰৱময় সংস্কৃতি আৰু ঐতিহ্যৰ ধ্বজাবাহক হিচাবে পৰিগণিত হৈছে। আমাৰ গৌৰৱময় সংস্কৃতি আৰু ঐতিহ্যৰ বিষয়ে যুৱক-যুৱতীসকলে বুজি উঠিছে আৰু এইবোৰৰ সংৰক্ষণৰ প্ৰতি তেওঁলোকৰ দায়িত্ব উপলব্ধি কৰি ইয়াক আগুৱাই নিয়াৰ বাবে প্ৰতিশ্ৰুতিবদ্ধ হৈছে।


প্ৰয়াগৰাজত এই মহাকুম্ভত উপস্থিত হোৱা লোকৰ সংখ্যাই নিঃসন্দেহে নতুন অভিলেখ সৃষ্টি কৰিছে। কিন্তু শাৰীৰিকভাৱে উপস্থিত থকাসকলৰ বাহিৰেও প্ৰয়াগৰাজত কায়িকভাবে উপস্থিত হ’ব নোৱাৰা কোটি কোটি লোকো এই অনুষ্ঠানৰ সৈতে আৱেগিকভাৱে গভীৰভাৱে জড়িত হৈ পৰিছিল। তীৰ্থযাত্ৰীসকলে লগত লৈ যোৱা পবিত্ৰ পানী লাখ লাখ লোকৰ বাবে আধ্যাত্মিক আনন্দৰ উৎস হৈ পৰিছিল। মহাকুম্ভৰ পৰা উভতি অহা বহু লোকক সমাজে সন্মান জনাই নিজৰ গাঁৱলৈ শ্ৰদ্ধাৰে আদৰণি জনোৱাও দেখা গৈছিল।

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সঁচা অৰ্থত ক'বলৈ গ'লে যোৱা কেইসপ্তাহমানত যি ঘটিছে সেয়া আছিল অভূতপূৰ্ব আৰু ই আগন্তুক শতিকাবোৰৰ বাবে এক দৃঢ় ভেটি স্থাপন কৰিবলৈ সক্ষম হৈছে।

মানুহে কল্পনা কৰাতকৈও অধিক ভক্ত প্ৰয়াগৰাজত সমবেত হৈছে । দৰাচলতে কুম্ভৰ পূৰ্বৰ অভিজ্ঞতাৰ ভিত্তিতে প্ৰশাসনে ভক্তৰ উপস্থিতিৰ আনুমানিক হিচাপ কৰিছিল। সেয়ে কোনো অসুবিধা নোহোৱাকৈ সকলো সুচাৰু ৰূপে সম্পন্ন হৈছে৷

লক্ষ্যণীয় কথাটো হল আমেৰিকাৰ জনসংখ্যা যিমান ,তাৰ প্ৰায় দুগুণ লোকে এই একতাৰ মহাকুম্ভত অংশগ্ৰহণ কৰিছিল।

আধ্যাত্মিক পণ্ডিতসকলে যদি কোটি কোটি ভাৰতীয়ৰ এনে উৎসাহ ভৰা অংশগ্ৰহণৰ কথা বিশ্লেষণ কৰে তেন্তে তেওঁলোকে দেখিব যে নিজৰ ঐতিহ্যক লৈ ভাৰতীয়সকল কিমান গৌৰৱান্বিত আৰু তেওঁলোকে এতিয়া নতুনকৈ আৰহৰণ কৰা নৱ উদ্দীপনা তথা শক্তিৰে আগবাঢ়িছে। মোৰ বিশ্বাস- এয়া এক নতুন যুগৰ সূৰ্যোদয়, যিয়ে নতুন ভাৰতৰ ভৱিষ্যতৰ চিত্ৰনাট্য ৰচনা কৰিব৷

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হাজাৰ হাজাৰ বছৰ ধৰি মহাকুম্ভই ভাৰতৰ জাতীয় চেতনাক শক্তিশালী কৰি তুলিছে। প্ৰতিটো পূৰ্ণকুম্ভই সন্ত, পণ্ডিত আৰু চিন্তাবিদৰ সমাৱেশৰ সাক্ষ্য বহন কৰিছে । প্ৰতিটো কুম্ভত সমবেত লোকসকলে নিজৰ সময়ৰ সামাজিক অৱস্থাৰ বিষয়ে আলোচনা কৰিছে৷ তেওঁলোকৰ চিন্তাৰ প্ৰতিফলনে দেশ আৰু সমাজখনক এক নতুন দিশ প্ৰদান কৰি আহিছে। প্ৰতি ছবছৰৰ মূৰে মূৰে অনুষ্ঠিত অৰ্ধকুম্ভৰ সময়ত এই ধাৰণাসমূহ পুনৰ ফঁহিয়াই চোৱা হৈছে। ১৪৪ বছৰৰ পিছত ১২টা পূৰ্ণকুম্ভ অনুষ্ঠিত হোৱাৰ অন্তত সমাজত অচল হৈ পৰা পৰম্পৰাবোৰ, ধাৰণাবোৰ পৰিত্যাগ কৰা হৈছে ৷ তাৰ ঠাইত নতুন ধাৰণাক আঁকোৱালি লোৱা হৈছে আৰু এনেদৰেই নতুন পৰম্পৰাৰ সৃষ্টি হৈ সময়ৰ লগে লগে সমাজখন আগবাঢ়ি গৈছে৷

১৪৪ বছৰৰ পাছত এই মহাকুম্ভত আমাৰ সাধু-সন্তসকলে পুনৰবাৰ ভাৰতৰ উন্নয়ন যাত্ৰাৰ বাবে আমাক এক নতুন বাৰ্তা দিছে। সেই বাৰ্তা হৈছে উন্নত ভাৰত – বিকশিত ভাৰত।

এই একতাৰ মহাকুম্ভত জাতি, ধৰ্ম আৰু মতাদৰ্শ নিৰ্বিশেষে ধনী বা দুখীয়া, ডেকা বা বুঢ়া, গাঁও বা চহৰৰ পৰা অহা লোক, ভাৰত বা বিদেশৰ পৰা অহা লোক, পূব বা পশ্চিমৰ পৰা অহা লোক, উত্তৰ বা দক্ষিণৰ পৰা অহা লোক,প্ৰতিগৰাকী তীৰ্থযাত্ৰীয়েই এক মনোভাবেৰে একত্ৰিত হৈছিল। কোটি কোটি মানুহৰ আস্থাৰে পৰিপূৰ্ণ এক ভাৰত, শ্ৰেষ্ঠ ভাৰতৰ দৃষ্টিভংগীৰ এয়া আছিল এক মূৰ্ত ৰূপ। এতিয়া, উন্নত ভাৰত গঢ়াৰ অভিযানৰ বাবে আমি একে মনোভাৱেৰেই একত্ৰিত হ’ব লাগিব।

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মোৰ মনলৈ আহিছে সেই ঘটনাটোৰ কথা, য’ত বালক শ্ৰী কৃষ্ণই নিজৰ মুখৰ ভিতৰত থকা সমগ্ৰ বিশ্বব্ৰহ্মাণ্ডৰ এটা ৰূপ তেওঁৰ মাতৃ যশোদাৰ সন্মুখত উদ্ভাসিত কৰিছিল। সেইদৰে এই মহাকুম্ভতো ভাৰতৰ সামূহিক শক্তিৰ ব্যাপক সম্ভাৱনাৰ কথাক প্ৰমাণ কৰি ভাৰতৰ লগতে বিশ্ববাসীৰ কোটি কোটি লোক একে ঠাইতে সমবেত হৈছে৷ এতিয়া আমি এই আত্মবিশ্বাসকেই আধাৰ কৰি আগবাঢ়ি যাব লাগিব আৰু এখন উন্নত ভাৰত গঢ়াৰ দিশত নিজকে উৎসৰ্গা কৰিব লাগিব।


পূৰ্বে ভক্তি আন্দোলনৰ সৈতে জড়িত সন্তসকলে সমগ্ৰ ভাৰতবৰ্ষতে আমাৰ সামূহিক সংকল্পৰ শক্তি চিনাক্ত কৰি সেইবোৰক উৎসাহিত কৰিছিল। স্বামী বিবেকানন্দৰ পৰা আৰম্ভ কৰি শ্ৰী অৰবিন্দলৈকে প্ৰতিগৰাকী মহান চিন্তাবিদে আমাক আমাৰ সামূহিক সংকল্পৰ শক্তিৰ কথা সোঁৱৰাই দিছিল। আনকি মহাত্মা গান্ধীয়েও স্বাধীনতা আন্দোলনৰ সময়তসামূহিক সংকল্পৰ শক্তিৰ কথা অনুভৱ কৰিছিল। স্বাধীনতাৰ পিছৰ এই সামূহিক শক্তিক যদি সঠিকভাৱে স্বীকৃতি দিয়া হ’লহেঁতেন আৰু সকলোৰে কল্যাণ বৃদ্ধিৰ দিশত ইয়াক ব্যৱহাৰ কৰা হ’লহেঁতেন তেন্তে ই নতুনকৈ স্বাধীনতাৰ সোৱাদ পোৱা জাতি এটাৰ বাবে এক বৃহৎ শক্তি হৈ পৰিলহেঁতেন৷ দুৰ্ভাগ্যজনকভাৱে আগতে তেনে কৰা হোৱা নাছিল। কিন্তু এতিয়া, এখন উন্নত ভাৰতৰ বাবে জনসাধাৰণৰ এই সামূহিক শক্তি একত্ৰিত কৰাৰ ধাৰণাটো পুনৰ জাগ্ৰত হোৱা দেখি মই আনন্দিত হৈ পৰিছো৷

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বেদৰ পৰা আৰম্ভ কৰি বিবেকানন্দলৈকে, প্ৰাচীন শাস্ত্ৰৰ পৰা আৰম্ভ কৰি আধুনিক কৃত্ৰিম উপগ্ৰহলৈকে ভাৰতৰ মহান পৰম্পৰাই এই দেশখনক সবলৰূপত গঢ় দিছে। এজন নাগৰিক হিচাপে আমি এয়াই প্ৰাৰ্থনা কৰোঁ যাতে আমি আমাৰ পূৰ্বপুৰুষ আৰু সন্তসকলৰ স্মৃতি তথা অভিজ্ঞতাৰ পৰা নতুন প্ৰেৰণা আহৰণ কৰিব পাৰো। এই একতাৰ মহাকুম্ভই আমাক নতুন সংকল্পৰে আগবাঢ়ি যোৱাত সহায় কৰক। আহক আমি ঐক্যক আমাৰ পথ প্ৰদৰ্শক নীতি হিচাপে গঢ়ি তোলোঁ। আহক আমি এই বুজাবুজিৰে কাম কৰোঁ যাতে আমাৰ মনত দেশৰ সেৱাই হৈছে ঈশ্বৰৰ সেৱাৰ দৰে মনোভাবৰ উদয় হয়।

কাশীত নিৰ্বাচনী প্ৰচাৰ চলোৱাৰ সময়ত মই কৈছিলোঁ, "মা গংগাই মোক মাতিছে।" এয়া কেৱল মোৰ বাবে আৱেগ নহয় বৰঞ্চ দায়িত্বৰ আহ্বানো আছিল৷ আমাৰ পবিত্ৰ নদীৰ পৰিষ্কাৰ-পৰিচ্ছন্নতা ৰক্ষাৰ প্ৰতি এয়া আছিল মোৰ দায়িত্ব । প্ৰয়াগৰাজৰ গংগা, যমুনা, সৰস্বতীৰ সংগমস্থলীত থিয় হৈ মোৰ সংকল্প আৰু অধিক শক্তিশালী হৈ পৰিল। আমাৰ নদীৰ পৰিষ্কাৰ-পৰিচ্ছন্নতা আমাৰ নিজৰ জীৱনৰ লগত গভীৰভাৱে জড়িত। আমাৰ সৰু-বৰ নদীবোৰক জীৱনদায়িনী মাতৃ হিচাপে জ্ঞান কৰাটো আমাৰ দায়িত্ব। এই মহাকুম্ভই আমাক আমাৰ নদ- নদীসমূহৰ পৰিষ্কাৰ-পৰিচ্ছন্নতাৰ দিশত কাম কৰি যাবলৈ অনুপ্ৰাণিত কৰিছে।

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মই জানো যে ইমান বৃহৎ অনুষ্ঠান এটা আয়োজন কৰাটো কোনো সহজ কাম নাছিল। মা গংগা, মা যমুনা আৰু মা সৰস্বতীক প্ৰাৰ্থনা জনাইছো যাতে আমাৰ ভক্তিত কিবা অভাৱ থাকিলে, কিবা খুঁত ৰৈ গ'লে আমাক ক্ষমা কৰি দিয়ে যেন৷ জনতা জনাৰ্দনক মই দেৱতাৰ মূৰ্তি হিচাপে জ্ঞান কৰিছো৷ যদি তেওঁলোকৰ সেৱাৰ ক্ষেত্ৰতো আমাৰ প্ৰচেষ্টাত কিবা খুঁত ৰৈ গৈছে , তেন্তে ৰাইজৰ ওচৰতো ক্ষমা বিচাৰিছো।

মহাকুম্ভলৈ ভক্তিৰসত নিমজ্জিত হৈ কোটি কোটি মানুহ আহিছিল । তেওঁলোকৰ সেৱা কৰাটোও আছিল ভক্তিৰ অনুভূতিৰেই পালন কৰা এটা দায়িত্ব । উত্তৰ প্ৰদেশৰ এজন সংসদ সদস্য হিচাপে মই গৌৰৱেৰে ক’ব পাৰো যে যোগী জীৰ নেতৃত্বত প্ৰশাসন আৰু ৰাইজে একেলগে কাম কৰি এই একতাৰ মহাকুম্ভ সফল কৰি তুলিলে। ৰাজ্যই হওঁক বা কেন্দ্ৰই হওঁক, ইয়াত কোনো শাসক বা প্ৰশাসক নাছিল, তাৰ পৰিৱৰ্তে ইয়াত সকলোৱে আছিল একো একোগৰাকী নিষ্ঠাবান সেৱক। অনাময় কৰ্মী, আৰক্ষী, নাৱৰীয়া, গাড়ী চালক, খাদ্য পৰিবেশন কৰা লোক - সকলোৱে অক্লান্তভাৱে কাম কৰিছিল। প্ৰয়াগৰাজৰ ৰাইজে বহু অসুবিধাৰ সন্মুখীন হৈও যিদৰে মুক্ত হৃদয়েৰে তীৰ্থযাত্ৰীসকলক আদৰণি জনাইছিল সেয়া বিশেষভাৱে প্ৰেৰণাদায়ক কথা আছিল। তেওঁলোকৰ লগতে উত্তৰ প্ৰদেশৰ জনসাধাৰণৰ প্ৰতি মোৰ আন্তৰিক কৃতজ্ঞতা আৰু ধন্যবাদ প্ৰকাশ কৰিছো।

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আমাৰ দেশ খনৰ উজ্জ্বল ভৱিষ্যতকলৈ মোৰ সদায় অদম্য আস্থা আছে। এই মহাকুম্ভৰ সাক্ষী হৈ মোৰ প্ৰত্যয় আৰু বহুগুণে শক্তিশালী হৈ পৰিল৷

১৪০ কোটি ভাৰতীয়ই একতাৰ মহাকুম্ভক যিদৰে বিশ্বজনীন অনুষ্ঠানলৈ ৰূপান্তৰিত কৰিলে সেয়া সঁচাকৈয়ে আচৰিত কথা। আমাৰ জনসাধাৰণৰ নিষ্ঠা, ভক্তি আৰু প্ৰচেষ্টাত অনুপ্ৰাণিত হৈ শীঘ্ৰেই ১২টা জ্যোতিৰ্লিংগৰ ভিতৰত প্ৰথম শ্ৰী সোমনাথৰ ওচৰলৈ গৈ এই সামূহিক জাতীয় প্ৰচেষ্টাৰ ফল তেওঁৰ ওচৰত অৰ্পণ কৰিম আৰু প্ৰতিজন ভাৰতীয়ৰ বাবে প্ৰাৰ্থনা কৰিম।

মহাশিৱৰাত্ৰিত মহাকুম্ভৰ ৰূপে হয়তো সফলতাৰে সমাপ্তিৰ ৰূপ পৰিগ্ৰহ কৰিছে, কিন্তু গংগাৰ চিৰন্তন প্ৰবাহৰ দৰেই মহাকুম্ভই জাগ্ৰত কৰা আধ্যাত্মিক শক্তি, জাতীয় চেতনা আৰু ঐক্যই আগন্তুক প্ৰজন্মল লগতে আমাক অনুপ্ৰাণিত কৰি যাব।